संघर्ष और परिवर्तन की भूमि बिहार छात्र आन्दोलन से हलकान हैं। वजह है- रोज़गार और इसकी प्रदाता संवैधानिक संस्थान का परम्परागत निर्लज्ज भ्रष्टाचार। विगत 13 दिसंबर, 2024 को प्रदेश के 925 परीक्षा केंद्रों पर 70वीं बीपीएससी की प्रारंभिक परीक्षा आयोजित की गयी। इस दौरान राजधानी पटना के बापू सेंटर पर परीक्षार्थियों को थोड़े समय के अंतराल पर दो बार में पर्चे बाँटे गये। विद्यालय प्रशासन के अनुसार, इसकी वजह यह थी कि उक्त सेंटर पर कुछ पेपर कम पड़ गये, तो अतिरिक्त पेपर दूसरे परीक्षा केंद्र के मँगवाने पड़े। इसी आधार पर पेपर लीक होने की सूचना फैली और विरोध शुरू हो गया। इसी गहमागहमी में पटना के डीएम चंद्रशेखर सिंह ने एक परीक्षार्थी को थप्पड़ भी मार दिया, जिसके बाद विवाद भड़क गया और छात्रों का विशाल समूह आन्दोलन पर उतर आया। हालाँकि परीक्षार्थी इससे पूर्व परीक्षा के नॉर्मलाइजेशन के लिए आयोग कार्यालय पर प्रदर्शन कर रहे थे।
वैसे वर्तमान कलह से इतर भी देखें, तो बिहार लोक सेवा आयोग का विवादों से सम्पन्धित पुराना रिकॉर्ड रहा है। अभी निकट ही 2023 की प्रारंभिक परीक्षा में भी पेपर लीक का मामला सामने आया था। वैसे उत्तर पुस्तिकाओं से छेड़छाड़, दस्तावेज़ मिटाने, साक्षात्कार में घूसख़ोरी प्रकार के आरोप लगना और ऐसे मामलों का सामने आना इस संवैधानिक संस्था के लिए कोई नयी बात नहीं है। जैसे ही सन् 1996 में एक भ्रष्टाचार का मामला खुलने पर तत्कालीन अध्यक्ष जेल चले गये। वर्ष 2003-05 के दौरान इसी प्रकार के अनियमितताओं और धाँधली के कारण आयोग के अध्यक्ष समेत 13 अधिकारियों पर आरोप तय हुए थे। सन् 2017 में लेक्चरर भर्ती के दौरान सार्वजनिक शुचिता के सारे मानक ही ध्वस्त हो गये। आयोग ने केवल ऐसे अभ्यर्थी ही नहीं चुने, जिनके पास निर्धारित मानक की योग्यता नहीं थी, बल्कि ऐसे ऐसे लोग भी चयनित हुए, जो इंटरव्यू में शामिल भी नहीं हुए थे। 56वीं और 59वीं परीक्षा के दौरान भी घूस लेकर पद दिलाने का मामला प्रकाश में आया, जिसमें मुक़दमा दर्ज हुआ, जिसमें एक राजनीतिक दल से जुड़े पूर्व विधान पार्षद घिरे थे। आयोग के कुकर्मों की यह गौरव-कथा इतनी व्यापक है कि इस पर एक विस्तृत ग्रन्थ लिखा जा सकता है।
असल में आयोग के इन ऐतिहासिक कारनामों के परिपेक्ष्य में बिहार लोक सेवा आयोग का अक्स सत्ता संरक्षण में नौकरियों की ख़रीद-फ़रोख्त और बिक्री में लिप्त एक संगठित आपराधिक संस्था के रूप प्रतीत होता है, जिसे न नैतिकता की लाज है, न जन-शुचिता की चिन्ता और न ही विधिक कार्यवाहियों का भय। ऐसे में चिह्नित रिकॉर्ड वाली संस्था के विरुद्ध रोज़गार के लिए आन्दोलनरत बच्चों के पेपर लीक के अंदेशे पर संदेह क्यों किया जाना चाहिए? तथा पुन: परीक्षा के लिए उनकी माँगों पर आपत्ति क्यों होनी चाहिए? लेकिन बावजूद इसके आयोग इस विवाद में ढीठ बना हुआ है। उसे छात्रों की माँग से कोई सरोकार नहीं है। ऊपर से प्रशासन की बर्बर प्रतिक्रिया। रोज़गार नहीं, बल्कि रोज़गार भर्ती की ईमानदार प्रक्रिया की माँग करते बच्चों की पीठ पर टूटती सरकारी लाठियाँ सत्ता के नैतिक पतन का निर्लज्ज प्रदर्शन था। किसी भी लोकतांत्रिक राष्ट्र में वाजिब माँग और ग़लत के विरोध में प्रदर्शन का प्रत्युत्तर हिंसात्मक तरीक़े से देने के प्रयास को सत्ता-प्रशासन की बर्बर सोच ही कहना उचित होगा।
हो सकता है कि आयोग के पास पुन: परीक्षा के लिए बड़ा ख़र्च, प्रशासनिक तंत्र की व्यवस्था में अक्षमता जैसे कई तर्क होंगे; लेकिन जब मध्यावधि चुनाव कराने हों, नेताओं को प्रवास करना हो, सिनेमाई भाँडों के प्रोग्राम हों, तब सरकार के पास न ख़र्च की कमी और चिन्ता होती है, न ही पुलिस-प्रशासन की उपलब्धता की कमी। परन्तु परीक्षार्थियों के मामले सारे तर्क दिय जाने लगते हैं, क्योंकि ये आम मेहनतकश, ग़रीब-ग़ुरबे, किसान-मज़दूरों के बच्चे हैं, जो आधे पेट या भूखे रहकर अपनी और परिवार की तक़दीर बदलने के लिए ज्ञान तथा परिश्रम के बूते ठंडी रातों में अपनी उम्मीद के लिए संघर्षरत सड़कों पर खड़े हैं। दो-चार मर भी जाएँ, सैकड़ों लाठियाँ इनकी पीठ पर टूट भी जाएँ, इन्हें घसीट कर फेंक भी दिया जाए, तो सरकार को क्यों चिन्तित होना चाहिए? वैसे भी इस देश में आम आदमी की यही औक़ात है। इसलिए राष्ट्रीय समाज की अभिजनवादी मानसिकता भी चुप है।
धनिक, सत्ता के वरदहस्त प्राप्त, राजनीतिक लोगों के सामने आत्मसम्मानहीन होकर लेट जाने वाले वाली सरकारें और नौकरशाही आम लोगों के लिए तुरंत क़ायद-क़ानून के साथ कड़क हो जाती हैं। जिस तरह माननीय ज़िलाधिकारी ने प्रतियोगी छात्र को थप्पड़ मारा। एक बार ऐसी ही मर्दानगी वे बिहार के किसी बाहुबली जनप्रतिनिधि के सामने दिखाते, तो पूरा देश उनके रुआब के आगे लहालोट हो जाता कि हाँ ये हैं भइया असली वाले साहेब। लेकिन उनके सामने तो झुकी कमर सीधी नहीं होती है। अगर डीएम साहब को क़ानून व्यवस्था बाधित होने का इतना ग़ुस्सा था, तो उससे अधिक समाजद्रोही तो ये अपराधी बाहुबली हैं। लेकिन वहाँ गले से गिड़गिड़ाने के अलावा कोई शब्द नहीं फूटता।
अपने अधिकारों के लिए सत्याग्रह पर क़ायम प्रदर्शनकारी युवाओं के समूह पर बर्बरतापूर्ण पुलिस कार्यवाही लोकतांत्रिक मान्यताओं के लिए न केवल एक घृणात्मक अनुभव है, बल्कि प्राकृतिक नियमों के अनुसार भी पूर्णत: अस्वीकृत, अस्वीकार्य है। अधिकारों के संवैधानिक संघर्ष इन परीक्षार्थियों का अधिकार है। छात्रों ने तो विधानमण्डलों की जनवादी उपयोगिता में व्याप्त सुषुप्तावस्था को तोड़कर उसे जगाने का प्रशंसनीय प्रयास किया है, जिसके लिए जम्हूरियत की मूल भावना उनके लिए कृतज्ञ है। जैसा कि डॉ. लोहिया मानते थे कि ‘अगर सड़कें ख़ामोश हो जाएँ, तो संसद आवारा हो जाएगी।’ लेकिन पटना की सड़कों पर क्रूर तरीक़े से आन्दोलनकारी परीक्षार्थियों को लाठियों से पीटने और हाड़ कँपाने वाली ठंडी रात में उन पर निर्दयतापूर्वक पानी की बौछार करने वाले पुलिस-प्रशासन ने अपने इस कुकर्म के लिए उलटे परीक्षार्थियों को ज़िम्मेदार ठहराते हुए उन पर आरोप लगाया कि वे प्रदर्शन स्थल ख़ाली नहीं करने की ज़िद पर अड़े थे। हो सकता है कि ऐसा ही हुआ हो; लेकिन छात्र हठ का प्रत्युत्तर क्रूर राज हठ तो नहीं हो सकता है ना! और फिर वे क्यूँ हटते? क्या वे कोई सशस्त्र प्रतिरोध कर रहे थे? या भारत की संप्रभुता के विरुद्ध किसी राष्ट्र-विरोधी कार्य में लिप्त थे? नहीं। वे केवल अपने वाजिब अधिकारों, स्पष्ट कहें तो संविधान प्रदत्त अधिकारों की माँग के समर्थन में प्रदर्शनरत थे; वह भी संवैधानिकता के दायरे में।
यदि नौकरशाही यह तर्क दे कि वह सत्ता के आदेश और उसके मनोनुकूल निर्णयों से बँधी है, तब भी उसका आन्दोलनरत प्रतियोगी विद्यार्थियों के विरुद्ध आचरण अत्यंत निंदित कृत्य की श्रेणी में आता है। ह्यूगो ग्रोशियस कहते हैं- ‘ईश्वर ने प्रत्येक मनुष्य, कम-से-कम प्रत्येक सभ्य मनुष्य के हृदय में एक ऐसी शक्ति रख दी है, जो उसे बतलाती रहती है कि क्या उचित है और क्या अनुचित है। इस विवेक शक्ति या तर्क शक्ति के द्वारा जो नियम सिद्ध होते हैं, उनको प्राकृतिक विधि कहते हैं।’ (पाश्चात्य राजनीतिक चिन्तन का इतिहास (प्लेटो से मार्क्स), डॉ. बी.एल. फाड़िया, साहित्य भवन पब्लिकेशन्स, आगरा, 2008, पृष्ठ-395)। क्या बिहार की नौकरशाही की विवेक-शक्ति सत्ता के नशे में मृत हो चुकी है, जिसे अपनी व्यवहारिक क्रूरता का अर्थ नहीं समझ आ रहा है? परन्तु छोड़िए, भारतीय नौकरशाही तो अपने मूल चरित्र में ही अभिजनवादी एवं आमजन द्रोही है, ऐसे में जब उसे सत्ता का संरक्षण प्राप्त हो जाए, तो उसकी कार्यशैली में व्याप्त विकृत्ति को क्रूरता में बदलते देर नहीं लगती। लेकिन वाजिब सवाल ये हैं कि यदि विद्यार्थी विरोध कर रहे, तो सरकार का कोई भी ज़िम्मेदार नेता-मंत्री या कोई अन्य प्रतिनिधि उनसे बात करने क्यों नहीं आया? क्या सरकार इन्हें राष्ट्र का नागरिक नहीं मानती, जिनकी समस्या उसके लिए चिन्ता का विषय हो? अपनी तमाम राजनीतिक नौटंकियों के बावजूद सरकार और उसके नेता-मंत्री इस विवाद का ठीकरा आयोग के स्वतंत्र एवं ख़ुदमुख़्तार होने के नाम फोड़कर अपनी ज़िम्मेदारी से नहीं बच सकते, जैसा कि वे इस मामले में कर भी रहे हैं। क्या बिहार आयोग इतना स्वतंत्र की वह व्यवस्थापिका और कार्यपालिका की स्थापित संरचना से भी ऊपर है, जिसकी किसी के प्रति कोई जवाबदेही नहीं है? आज प्रशासनिक और पुलिसिया बर्बरता में पिस रहे प्रदर्शनकारी छात्रों के संघर्ष को सत्ता के शीर्ष पर बैठे नेता जमात के लोग अपने जीवन-संघर्ष का ज्ञान दे सकते हैं; लेकिन वे संघर्ष के असल निहितार्थ नहीं है। संघर्ष स्वाभिमान का आधार हो सकता है, अभिमान का नहीं। लेकिन सत्ता जनित यही अभिमान बिहार सरकार को अपने दुष्कृत्यों के प्रति दुराग्राही और हठी बना रही है।
हालाँकि न सत्ता सहज होती, न ही सत्ताधीश सहज होते हैं। सत्ता के अहंकार में एक उद्वेग होता है, जहाँ उसके अंदर बैठा सर्वाधिकारवाद उसे अहंकारी एवं जन-विमुख बना देता है। पिछले 18 वर्षों से बिना बहुमत के सत्ताधीश बने सुशासन बाबू सत्ता की अनधिकृत त्वरा में जनशक्ति की महत्ता को अनदेखा कर रहे हैं। संभवत: कथित रूप से सुशासन सरकार और उसका प्रशासन संविधान की मूलभूत अवधारणा को विस्मृत कर चुकी है कि लोकतंत्र में प्रभुसत्ता जनता में ही निहित रहती है। लोकतांत्रिक आदर्श में जनता ही स्वयं अपने ऊपर शासन करती है। जनता का समर्थन है, तभी राष्ट्र का तंत्र सुचारू रूप से संचालित होता है। जनता ही लोकतंत्र की मूल संप्रभु शक्ति है। जनता सत्ता में बैठाती है, तो पतन के अंधकार में गाड़ती भी इसलिए है कि सत्ता के ध्येय वालों को लोकतंत्र के नियम याद रहने चाहिए। यूँ भी बिहार परिवर्तन की भूमि है, जहाँ शिक्षा एवं रोज़गार का स्तर भले ही न्यून हो, किन्तु राजनीतिक जागरूकता का अभाव नहीं है। अगस्त क्रान्ति (1942) से लेकर 1975 के बिहार आन्दोलन (आपातकाल) तक बिहार की जनता और ज़मीन ने इसे सिद्ध भी किया है। युवाओं के व्यवस्था-विरोधी आन्दोलन हमेशा से सत्ता के लिए ख़तरे की घंटी रहे हैं। इसे बिहार की आत्मा से बेहतर कौन समझ सकता है। राज्य के हुक्मरान यह भूल गये हैं; लेकिन इतिहास को भलीभाँति याद है। इतिहास की सीख वर्तमान और भविष्य का पथ सुगम बनाती है। सार्थक रूप से मार्गदर्शन करती है। आसन्न विधानसभा चुनाव के मद्देनज़र यह सीख सत्ता के लिए अत्यंत ज़रूरी है, ताकि उसका राजनीतिक अस्तित्व संकट में न पड़े। वरना अपनी अहमन्यता में पतन का मार्ग तो उसने चुन ही लिया है।