हम फिदा-ए-लखनऊ

‘किसी शहर का चरित्र खोजना है तो उसके जन में बसे किस्से-कहानियों में खोजा जाए.’ लखनऊ के संदर्भ में कही गई अमृतलाल नागर की ये पंक्ति इस शहर के मूल चरित्र की पहचान करने में बेहद सहायक है. खुद नागर जी का सम्पूर्ण साहित्य लखनऊ के ऐसे ही बेशुमार किस्से-कहानियां अपने अंतस में समेटे हुए है. अगर उन्हीं की राह चलते हुए लखनऊ को तलाशा जाए तो हम ऐसी कई कहानियों से मदद पा सकते हैं जो कि लखनवी समाज में पीढ़ियों से रची-बसी हैं. जैसे कि इस शहर में कोई नवाब हुआ करते थे जिन्होंने अंग्रेजों को गिरफ्तारी दे दी, लेकिन भागे नहीं, इसलिए क्योंकि उन्हें कोई जूता पहनाने वाला नहीं था और खुद जूता पहनना उनकी शान के खिलाफ था. हालांकि ऐतिहासिक रूप से गलत होने के बावजूद ये किस्सा लखनऊ के समाज में गहरे बसे स्वाभिमान और किसी हद तक सामंती प्रवृत्ति को रेखांकित तो करता ही है.

वैसे किस्से-कहानियां सिर्फ नवाबी के दायरे में ही नहीं सीमित, इसके बाहर भी बेशुमार हैं. महज कुछ दशक पहले तक नक्खास में वजीरू मियां का चाय का होटल हुआ करता था. जहां शेरो-अदब की महफिलें सजा करती थीं. होटल के अपने तय ग्राहक थे. अगर कोई नया ग्राहक पहुंच गया और चाय के लिए अधीर हुआ तो वजीरू मियां विशिष्ट लखनवी अंदाज़ में उससे कह देते- देखिए जनाब ! सब्र कीजिए, या फिर नक्खास में और भी दुकानें हैं. आपके पास तो पैसे हैं, आपको कोई भी चाय पिला देगा, इन हज़रात को चाय कौन पूछेगा, ये सब हमारे बाकीदार हैं. बाकीदारों को लेकर भी शिष्टाचार का ये आलम और कहां होगा.

इतिहास शहर के शानदार अतीत का एक गवाह छोटा इमामबाड़ा
इतिहास शहर के शानदार अतीत का एक गवाह छोटा इमामबाड़ा

इसी सिलसिले का एक आखिरी किस्सा कुछ यूं है कि एक साहब बम्बई से लखनऊ घूमने आए. जूतियां खरीदने की गरज से वे नज़ीराबाद जा पहुंचे. किसी दुकान पर एक जोड़ी पसंद आई. लेकिन दुकान की हालत देखकर और खुद से मुखातिब नौकर के हालात देखकर उन्हें लगा कि जूतियों की पैकिंग शायद वहां ठीक तरह से न हो पाए. लिहाजा उन्होंने नौकर से कहा- सुनो, इसको बराबर से पैक करना. इस पर दुकान के मुलाज़िम ने कहा- शहज़ादे, आप इतने बेचैन न होइए. अभी तो बेटी बाप के घर है, जब आप तक बेसलीका पहुंचे तब गिला कीजिएगा. ये है लखनवी अंदाज़, जो कि पढ़े-लिखों से लेकर अनपढ़ों तक और अमीरों से लेकर गरीबों तक एक सा फैला है. इस तरह के तमाम किस्से लखनऊ में बिखरे पड़े हैं, जो आपको बता देंगें, कि लखनऊ क्या है.

दरअसल लखनऊ अपने आप में वो अफसाना है कि जितना सुनते जाइए उतना ही दिलचस्प होता जाता है. जो भी इसका बयान सुनाता है, एक नई दास्तान सुनाता है. एक शहर, जिसका खयाल आते ही जहन में तहज़ीब की शमाएं रोशन हो उठती हैं. जिसका जिक्र छिड़ते ही दिल की गलियां गुलशन हो उठती हैं. जिसका नाम लेकर आशिक अहदे वफा करते हैं, सुखन-नवाज़ जिसके होने का शुक्र अदा करते हैं. क्या इतनी खूबियों से भरपूर मकाम सिर्फ एक अदद शहर हो सकता है ?

दरअसल लखनऊ वो तिलिस्म है जिसमें कैद हुआ शख्स कभी आज़ाद नहीं होना चाहता. जो दुर्भाग्य के कारण यहां से निकल भी जाते हैं वो अपनी आंखों में लखनऊ के मंजर लिए भटकते हैं और इसकी यादों को अपने कलेजे से हरदम लगाए रहते हैं. वाजिद अली शाह के हवाले से इतिहास गवाह रहा है कि ऐसे दीवाने जहां भी जाते हैं एक नया लखनऊ बसा देते हैं. लखनऊ वाले कहीं भी रहें लखनवी आदाब कभी नहीं भुलाते. पुरखों से विरासत में मिले तहज़ीब के लबालब खजाने को कैसे दोगुना-चौगुना करना है, ये उन्हें खूब आता है. अपने अंदाज़-ए-बयां से वे दुश्मन को भी अपना दीवाना बना सकते हैं. जीवन में कितनी भी कड़वाहट क्यों न हो लखनऊ वालों की जुबान पर इसका असर कभी नहीं दिखेगा. लखनऊ वाले जानते हैं कि बीमार से ये पूछना कि क्या आपके दुश्मनों की तबीयत नासाज है, ये सिर्फ एक जुमला नहीं है, बीमारी की रामबाण दवा है. हिंदुस्तान ने अपनी साम्प्रदायिक एकता की जान इस शहर में समोई हुई है. फिरकापरस्ती आज भी इस शहर में आते हुए शर्माती है. नज़ाकत लखनऊ की पहचान है. हिंदुस्तान का ऐसा कौन-सा दूसरा शहर है, जहां ककड़ी को ककड़ी कहने से महज इसलिए गुरेज किया जाता हो क्योंकि ककड़ी शब्द कानों को कुछ कर्कश लगता है या फिर शरीफे को शरीफा कहकर इनके दाम कभी पूछे-बताए न गए हों क्योंकि इसमें शरीफ लोगों की रुसवाई होती है, अगर ये पूछा जाए कि शरीफों के क्या दाम हैं ?

इस बे-मिसाल बा-कमाल शहर की लोक मान्यताएं हमें बताती हैं कि कभी ये भगवान राम के छोटे भाई लक्ष्मण का शहर हुआ करता था. नाम था लक्ष्मणपुर, जो बाद में घिसते-घिसते लखनऊ हो गया. इतिहास हमें बताता है कि इस शहर ने अपनी आंखों से यहां कई-कई हुकूमतों को आते और जाते देखा है. लेकिन ये भी सच है कि लखनऊ के इतिहास का सबसे लोकप्रिय हिस्सा नवाबी और उसके बाद के कालखण्ड में लिखा गया है. खासकर सन 1775 से. जब आसिफुद्दौला अवध के नवाब बने और लखनऊ अवध सूबे की राजधानी बना. आसिफुद्दौला के जमाने से लखनऊ में नवाबी के जो जलवे शुरू हुए वो आखिरी नवाब वाजिद अली शाह के दौर तक कायम रहे. इसी दौर में लखनवी तहज़ीब की धूम पूरी दुनिया में फैली और लखनऊ कला, साहित्य एवं संस्कृति के गढ़ के तौर पर पहचाना जाने लगा. जब अंग्रेज़ों ने 1856 में वाजिद अली शाह को अपदस्थ करके कलकत्ता के पास मटियाबुर्ज़ में कैद कर दिया तो लखनऊ में नवाबी का अध्याय समाप्त हो गया. इसके अगले ही साल 1857 में लखनऊ बेगम हज़रत महल के नेतृत्व में भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम का और उसके बाद अंग्रेज़ों के भीषण दमन का साक्षी भी बना. 1857 के मुक्ति संग्राम से लेकर 1947 में देश को आज़ादी मिलने तक लखनऊ आज़ादी की लड़ाई का एक प्रमुख केंद्र बना रहा. 1916 और 1936 के अति महत्वपूर्ण कांग्रेस अधिवेशन यहीं हुए. खिलाफत आंदोलन का गढ़ लखनऊ ही था. गांधी और नेहरू एक-दूसरे से पहली बार लखनऊ में ही मिले और प्रगतिशील लेखक संघ की पहली कांफ्रेंस भी लखनऊ में ही हुई. कुल मिलाकर लखनऊ का इतिहास इतना समृद्ध है कि अक्सर कुछ लोग कहते हैं कि लखनऊ जो भी था अपने अतीत में था और वो लखनऊ अब गए दिनों का किस्सा हो गया. लेकिन ऐसा वही कहते हैं जिन्होंने लखनऊ को सिर्फ इतिहास की किताबों में पढ़ा है. आज के लखनऊ को नहीं देखा.

इस बे-मिसाल शहर की लोक-मान्यताएं हमें बताती हैं कि कभी ये भगवान राम के भाई लक्ष्मण का शहर लक्ष्मणपुर था, जो बाद में घिसते-घिसते लखनऊ हो गया

सच तो ये है कि समय के साथ ये शहर अपने क्षेत्रफल को चाहे जितना बड़ा कर ले इसका सांस्कृतिक गुरुत्व-केंद्र अटल रहता है. इतना बड़ा दिल दुनिया के बहुत कम शहरों के पास होता है कि हर आने वाले को अपना बना ले और खुद को उसका बना दे. असल में लखनऊ को नए लखनऊ और पुराने लखनऊ के खांचों में बांटने वाले भी वही हैं, जो इस शहर के संस्कारों से अछूते रह गए हैं. लखनऊ सिर्फ एक है और वो कभी नया या पुराना नहीं हो सकता, क्योंकि लखनऊ एक शहर का नहीं बल्कि एक संस्कृति का नाम है. इसीलिए चाहे पुराना कॉफी हाउस हो या नव-निर्मित ज़ायका, जनपथ हो या मरीन ड्राइव, दोनों ही जगह आपको एक ही सूरज से रोशन मिलेगी जिसका नाम लखनऊ है. लखनऊ वाले तो लखनऊ की मिट्टी के हर ज़र्रे को अपनी ज़िंदगी का आफताब समझते हैं. इसीलिए चौक की गलियों में चहल कदमी करते हुए उन्हें गेसु-ए-जानां के खम सुलझाने जैसा लुत्फ आता है, तो गोमती नगर की चौड़ी-चौड़ी सड़कों पर भी वे उसी तरह आवारगी करते हैं जैसे बाद-ए-सबा किसी चमन से होकर गुजरती है.

वास्तव में लखनऊ अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को दिल से लगाए हुए अपने समय से कदम मिला रहा है. जिस तरह हर दिन व्यक्ति के कपड़े बदलने मात्र से उसकी आत्मा में कोई परिवर्तन नहीं होता, उसी तरह समय के अनुसार इस शहर में हुए तमाम बाहरी परिवर्तनों के बाद भी लखनऊ की रूह और उसके किरदार में जरा भी तब्दीली नहीं हुई है. लखनऊ अगर बदला भी है तो बेहतरी के लिए बदला है. आज यहां दस से ज्यादा विश्वविद्यालय हैं, तीस से ज्यादा इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट हैं, आधा दर्ज़न से ज्यादा केंद्रीय शोध संस्थान हैं, बहुत से अत्याधुनिक अस्पताल हैं, ढेर सारे बेहतरीन डिग्री कॉलेज हैं और कई उम्दा स्कूल हैं. निजी कंपनियों की शहर में आमद से यहां रोज़गार के अवसर भी बढ़े हैं.

इसी तरह से सुंदर सांस्कृतिक केंद्रों, व्यवस्थित प्रेक्षागृहों, चमचमाते बाज़ारों, मल्टीप्लेक्स, शॉपिंग मॉल, डिस्कोथेक-बार और एम्यूजमेंट सेंटर, क्लबों और खूबसूरत पार्कों की भी कमी नहीं है. दिलचस्प बात ये भी है कि चौक जैसे रिवायती इलाके में भी पांच से ज्यादा पूल और बिलियर्ड्स प्वाइंट हैं जो कि खचाखच भरे रहते हैं.

पढ़ने-लिखने के शौकीन इस शहर में पुस्तकालय पहले भी थे, लेकिन दिल्ली मुंबई की तर्ज पर अब लखनऊ में भी 300 स्टोरीज डॉट कॉम जैसे बेहतरीन ऑनलाइन पुस्तकालय हैं जो न सिर्फ घर बैठे आपको आपकी मनपसंद किताबें पहुंचा रहे हैं बल्कि आपके बच्चों में पठन-पाठन की आदतें विकसित करने के लिए भी काम कर रहे हैं. आज शहर से कई सारी प्रतिष्ठित पत्रिकाएं और लगभग सारे बड़े अखबार निकल रहे हैं. शहर अभी भी हिंदी-उर्दू के बड़े नामों का गढ़ है. साथ ही यहां युवाओं के द्वारा रोज नए बुक क्लब और लिटरेरी सोसाइटी शुरू हो रहीं हैं. रेजीडेंसी जैसी ऐतिहासिक जगह पर भी सुबह-सुबह युवाओं द्वारा ‘बेवजह मॉर्निंग’ जैसा ताजगी भरा आयोजन किया जा रहा है. यहां एक नहीं बल्कि दो-दो भव्य लिटरेचर फेस्टिवल होते हैं जिनमें देश-दुनिया के बड़े साहित्यकार लखनऊ शिरकत करते हैं. इस तरह से नए दौर के लखनऊ में आज वो सब कुछ है जो यहां पहले कभी नहीं था.

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अच्छी बात ये है कि नए दौर में होने के बावजूद गुजिश्ता दौर से भी इसने अपनी नातेदारी निभाए रखी है. संक्रमण काल से गुजर रहे किसी भी समाज के लिए ये बहुत कठिन काम होता है. लेकिन असल में लखनऊ को लखनऊ उसकी समन्वय की असीम क्षमता ही बनाती है. ये इसी शहर में हो सकता है कि एक ही वक्त में एक ही तरह के लोगों के द्वारा टुंडे के कबाब और बाजपेयी पूड़ी भंडार की पूड़ियां भी लंबी लाइन में लगकर खरीदीं जाएं और सहारा गंज के फूड कोर्ट में पास्ता या सिज़लर खरीदने के लिए भी गदर मचा रहे. मीर-ओ-गालिब पर भी गाहे-गाहे तब्सरा होता रहे और अमीश त्रिपाठी की भी पुरसिश होती रहे. वे बेगम अख्तर के मुरीद भी रहें और शकीरा के दीवाने भी. हज़रतगंज में ‘गंजिंग’ करने के भी शौकीन हों, तो नक्खास में इतवारी बाजार में भी तफरीह करते मिलें. चौक वाले चिकन के कुरते भी उन पर उतने ही फबते हों जितने प्रोवोग से लिए पश्चिमी परिधान. जहां गोमतीनगर, जानकीपुरम, एल्डिको और आशियाना में भी उतनी ही लखनवियत हो जितनी कश्मीरी मोहल्ले, शीश महल, राजा बाजार या सआदतगंज में मिलती है.

लखनवी तहज़ीब पर अक्सर ही अभिजात्य और जनविरोधी होने का आरोप लगता है, क्योंकि नफासत की आड़ में वह अवधी लोक संस्कृति से मुंह फेर लेती है

इन जैसी तमाम खुशगवार मिसालों के बावजूद अगर हमें वास्तव में लखनऊ के समन्वयकारी चरित्र को सलीके से समझना है तो यहां के सामाजिक ताने-बाने में गुंथी मिसालों को मद्दे नजर रखना चाहिए. जैसे अगर यहां झाऊ लाल का बनवाया इमामबाड़ा है, तो जनाबे आलिया का बनवाया हनुमान मंदिर भी है. पड़ाइन की बनवाई मस्जिद है, तो आसफुद्दौला का अता किया कल्याण गिरि मंदिर भी है. ये वो शहर है जहां मुसलमान बड़े मंगल पर हलवा-पूड़ी बटवाते हैं, जमघट पर पतंग उड़ाते हैं, होली में रंग खेलते हैं, कृष्ण जी की बारात में शामिल होते हैं, तो हिंदू मुहर्रम में अजादारी करते हैं, सबीले लगवातें हैं और रमज़ान में सहरी के लिए जगाते हैं, बल्कि इफ्तारी का इंतज़ाम भी करते हैं. ये रिवायतें तब से पूरी आबो ताब के साथ कायम हैं जबसे राजा झाऊलाल कर्बला की ज़ियारत के लिए इराक जाया करते थे और वाजिद अली शाह जोगिया चोले में कन्हैया बना करते थे. इसीलिए यहां अब तक हमको लोगों की जुबान पर वाजिद अली शाह की लिखी गई गणेश हनुमान स्तुतियां भी मिल जाती हैं और नानक चंद नानक के लिखे मर्सिए भी.

लखनऊ की एक मकबूलियत इसके दस्तरखान की वजह से भी है. शाकाहार के शौकीनों के लिए यहां पूड़ी-सब्जी, खस्ता-कचौड़ी, छोले-भटूरे, चाट, पानी के बताशे और बंद-मक्खन जैसे बेशुमार नज़राने हैं तो नॉनवेज का तो गढ़ ही लखनऊ है. दर्जनों तरह के कबाब लखनऊ से मंसूब हैं, साथ ही सैकड़ों तरह के और पकवान भी. टुण्डे कबाबी, रहीम की नहारी, नौशीजान और इदरीस की बिरयानी जैसी जगहें खाने-पीने के शौकीनों के लिए किसी तीर्थ से कम नहीं. यहां एक बात बता देना जरूरी है कि एक मुद्दत तक लखनऊ में बिरयानी को जानवरों की गिज़ा कहा जाता रहा. और पुलाव को उस पर तरजीह दी जाती रही, लेकिन आज दमपुख्त लखनवी बिरयानी भी यहां खूब खाई जाती है. अब्दुल हलीम शरर ने अपनी किताब गुजिश्ता लखनऊ में दोनों के बारीक अंतर को इस तरह समझाया है- ‘देहली में बिरयानी का खास रिवाज है. मगर लखनऊ की नफासत ने पुलाव को उस पर तरजीह दी. आवाम की नज़र में दोनों करीब-करीब एक ही हैं, मगर बिरयानी में मसाले की ज्यादती से सालन मिले हुए चावलों की शान पैदा हो जाती है, पुलाव के मुकाबिल बिरयानी नफासत पसंद लोगों की नज़र में बहुत ही लद्धड़ और बदनुमा गिज़ा है.’

लखनऊ की इन खूबियों के बावजूद अगर किसी बयान में सिर्फ खूबियां ही बताई जाएं तो ये बयान अधूरा ही कहा जाएगा. ये भी सच है कि अपनी तमाम खूबियों के बावजूद इस शहर के स्वभाव में कई ऐसी बातें हैं जिन्हें किसी भी नज़र से तहज़ीब के दायरे में नहीं रखा जा सकता. यहां हिंदू-मुस्लिम दंगे नहीं होते लेकिन बहरहाल दंगे तो हर साल होते ही हैं. यूं तो ये शहर ‘पहले आप’ के लिए मशहूर है लेकिन ये भी सच है कि बाहर वालों से मिलते समय लखनऊ वाले अपने शहर को लेकर एक सुपीरियॉरिटी कॉम्पलेक्स में घिरे रहते हैं. ऊपरी दिखावे में विश्वास रखते हैं और एक खास किस्म की आत्म-मुग्धता और विशिष्टता बोध के मारे भी होते हैं, जिस वजह से लखनवी तहज़ीब पर अक्सर ही सीमित वर्ग की सामंती, अभिजात्य, प्रतिगामी और जनविरोधी सभ्यता होने का आरोप भी लगता है, क्योंकि नफासत की आड़ में वह सहज-सरल अवधी लोक संस्कृति से मुंह फेरकर खड़ी हो जाती है. इसी वजह से अवध के कई चेतनाशील लोगों ने ही लखनवी तहज़ीब को कटघरे में खड़ा किया है. जिसके संकेत हमें रमई काका, कुंवर नारायन और रफीक शादानी तक की कविताओं में खूब मिल जाएंगें. दूसरों की ऐबजोई और मज़ाक उड़ाने और नीचा समझने में उन्हें खास लुत्फ मिलता है. मीर-तकी-मीर भी लखनऊ वालों के इस हमले से बच नहीं पाए थे, यही वजह है कि लखनऊ में लंबा वक्त गुज़ारने के बाद भी उन्हें लखनऊ कभी पसंद नहीं आया. एक बड़े शायर यगाना चंगेज़ी को  भी अदब-नवाज़ कहे जाने वाले लखनऊ  ने जिस तरह ज़लील किया वो लखनऊ के लिए कभी न मिटाया जा सकने वाला कलंक है. बात सिर्फ ये थी कि यगाना की शाइरी लखनऊ वालों को पसंद नहीं आती थी. मजाज़ लखनवी ने भी एक सर्द रात यहीं के एक शराबखाने की छत पर दम तोड़ दिया, लेकिन उनको बचाने के लिए कोई नहीं था. अभी कुछ वक्त पहले इस अहद के कबीर कहे जाने वाले शायर अदम गोंडवी लखनऊ में मदद की बाट जोहते हुए दुनिया को अलविदा कह गए, लेकिन एक और मरते हुए के लिए भी ये शहर अपनी धीमी चाल को तेज़ नहीं कर सका.

आप किसी भी लखनवी से इन कमियों का ज़िक्र कीजिए वह सर झुकाकर अपनी शर्मिंदगी का इज़हार करेगा, लेकिन साथ ही साथ लखनवी अंदाज़ में ये कहकर आपको लाजवाब भी कर देगा कि आप सेर भर बेर लेते हैं तो पाव भर गुठलियां भी आती हैं न?