अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि और लेखन की शुरुआत के बारे में कुछ बताइए.
मेरा और मेरे जुड़वा भाई हुताशन वाजपेयी का जन्म 19 नवंबर 1986 को भोपाल में हुआ. हमारे जन्म के अगले ही दिन मां का देहान्त हो गया. मां के न रहने के बाद मुझे मेरी बुआ आभा वाजपेयी और मेरी ताई स्वर्णलता वाजपेयी ने पाला. ये दोनों बस नाम की बुआ और ताई हैं, इन दोनों से हम भाइयों को सगी मां सा प्यार मिला है और आगे भी मिलता रहेगा. कुछ सालों बाद पिताजी ने कत्थक नृत्यांगना अल्पना वाजपेयी से दूसरा विवाह कर लिया. उनसे भी मुझे और मेरे भाई को बहुत सारा प्यार मिला. यहां तक कि परिवार के कई लोग कहते हैं कि उन्होंने अपने अधिक लाड़-प्यार से हम दोनों भाइयों को बिगाड़ दिया. मेरी आरंभिक शिक्षा भोपाल में शारदा विद्या मंदिर में हुई, बाद में मैंने मौलाना आजाद राष्ट्रीय प्रोद्योगिकी संस्थान से पदार्थ शास्त्र एवं धातु विज्ञान अभियांत्रिकी में प्रोद्योगिकी स्नातक (बी टेक) की शिक्षा संपन्न की. आजकल एक प्रतिस्पर्धी परीक्षा के तैयारी कर रहा हूं. भोपाल में अपने पिताजी के साथ रहता हूं. पिताजी, बचपन से ही मेरे लिए हमेशा, बतौर तोहफे, किताबें लाते रहे हैं. मैंने 7 साल की उम्र में लोक कथाएं एवं बच्चों की किताबें पढ़नी शुरू कीं. पहली बार गंभीर साहित्य मैंने 10 साल की उम्र में पढ़ा था और वह था होमर का इलियड, इ वी रेयु के अनुवाद में. उसके बाद मैंने दोस्तोयेव्स्की का क्राइम एंड पनिशमेंट पढ़ा जिससे मुझे समझ में आया कि मनुष्य जीवन के दौरान सबसे ज्यादा खुद को ही सहता है. इसके बाद गीता प्रेस से छपी संक्षिप्त महाभारत पढ़ी. इस पुस्तक ने मुझे चकित कर दिया. कल्पना के स्तर पर महाभारत से बेहतर दुनिया में संभवत: कुछ नहीं लिखा गया है. साहित्य में कल्पना की चोटी पर महाभारत है और सौंदर्य की चोटी पर रामचरितमानस.
केवल कविताएं ही लिखते हैं या गद्य भी?
मैंने कविताओं के अलावा थोड़ा गद्य भी लिखा है, लेकिन कभी प्रकाशित कराने की कोशिश नहीं की और न ही मेरा ऐसा कोई विचार है. यदि ऐसा गद्य लिख पाया जो मुझे प्रकाशन के योग्य लगे तो अवश्य छपने के लिए किसी पत्रिका को भेजूंगा. हाल ही में अशोक वाजपेयी जी के काव्य संसार पर एक छोटा-सा लेख जरूर एक जगह प्रकाशन के लिए भेजा है.
आपके पसंदीदा रचनकार कौन-कौन हैं?
अनेक नाम हैं. वेद व्यास, तुलसीदास तो सबसे ज्यादा पसंद है. इनके अलावा दोस्तोयेव्स्की, टॉलस्टॉय, जारोस्लाव हसेक, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, श्रीकांत वर्मा, हजारीप्रसाद द्विवेदी, फणीश्वरनाथ ‘रेणु’, विलियम फॉल्कनर, मेरे ख्याल से तो फॉल्कनर और रेणु अपनी प्रचण्डता में दो भाइयों की तरह हैं, असाधारण विचलन और साहस के लेखक. थॉमस मान, हरमन हेस, रोबर्ट मुसिल आदि जर्मन लेखकों को पढ़कर लगता है कि नाजी हुकूमत का जितना दर्द विश्व में अन्य देशों के लेखकों और बुद्धिजीवियों को हुआ उतना ही जर्मनी के विचारवान लेखकों को भी हो रहा था. कुछ और नाम लूं तो जॉन स्टैनबेक, जेम्स जॉयस, मार्सेल प्रोस्ट, गालिब, कबीर, कमलेश, उदयन वाजपेयी, अशोक वाजपेयी आदि पसंदीदा लेखकों में शुमार हैं. कुछ लेखक पहले अच्छे नहीं लगते थे लेकिन बाद में दोबारा पढ़ने पर बहुत अच्छे लगे जैसे चेखोव, निर्मल वर्मा और काफ्का. रचनाओं की बात करें तो मुझे पंचतंत्र से मिलती जुलती थाउजेंड एंड वन नाइट्स भी बहुत पसंद है. हैरतअंगेज दार्शनिक कवि रूमी और अत्तार तथा अब्दुलकासिम फिरदौसी का शाहनामा भी बहुत पसंद है. हाल ही में रामचन्द्र गुहा की पुस्तक इंडिया आफ्टर गांधी बहुत चाव से पढ़ी है.
भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार पाने की सूचना कैसे मिली? निर्णायक कौन था इस वर्ष?
मुझे यह सूचना टेलीफोन पर मिली. इस वर्ष के निर्णायक वरिष्ठ कवि अरुण कमल जी थे.
कैसा लगता है जब आपकी पहचान को अशोक वाजपेयी के साथ जोड़कर देखा जाता है?
मुझे उदयन वाजपेयी का बेटा और अशोक वाजपेयी का भतीजा होने पर बहुत गर्व है. जहां तक पहचान का सवाल है, मेरे ताऊ हिंदी कविता के क्षेत्र में आधी शताब्दी से अधिक समय से सक्रिय हैं और मेरे पिता तीस से अधिक सालों से, मेरी अभी उम्र ही 27 साल है! इन दोनों की तुलना में मेरी कोई पहचान है ही नहीं. वैसे भी मैं जिन लोगों से मिलता हूं, जिनके साथ रहता हूं, वे मुझे इन दोनों लेखकों से अलग ही देखते हैं. किसी स्तर पर हर कवि कविता लिखते समय अपनी पहचान को प्रश्नांकित करता है, मेरे लिए यह सही है और मुझे यकीन है इन दोनों के लिए भी.
आपकी पुरस्कृत कविता चर्चा में है. कहीं तारीफ हो रही है तो कहीं आलोचना. कहा जा रहा है कि कविता में बिम्ब स्पष्ट नहीं हैं, कविता में विचलन बहुत हैं. आपने देखीं ये आलोचनाएं? आपका क्या कहना है?
देखिए, मैं प्रशंसा और आलोचना दोनों का आभारी हूं. इसलिए क्योंकि हिंदी कविता के सिकुड़ते आकाश में एक युवक की कविता पर लोग बहस कर रहे हैं यह कविता के लिए शुभ संकेत है. मैं पिछले दिनों कार्ल मार्क्स की अवधारणा हिस्टोरिकल मटीरियलिज्म पढ़ रहा था. मार्क्स ने इतिहास की भिन्न अवस्थाओं के बारे में लिखा है. मेरे मन में एक बात आयी कि क्या अवस्थाओं का विचार लेकर मार्क्स से भिन्न अवस्थाओं को गठित कर कविता में रचा जा सकता है. इतिहास की बात करें तो पश्चिम में विचार रहा कि ऐसा हुआ था, भारत में इतिहास का विचार रहा है कि ऐसा होता है. मैंने सोचा कि मानव इतिहास से जुड़े मार्क्स के विचार में मानव इतिहास को घुसा दिया जाए, ढांचा उन्हीं अवस्थाओं का है बस अवस्थाएं बदल गई हैं. मेरी कविता में पहले अवस्था है हिंसा (यह प्रवृत्ति है), दूसरी अवस्था है मशीन (यह प्रवृत्ति नहीं तकनीक है) दूसरी अवस्था में पहली अवस्था को मिला दिया गया है, तीसरी है शक्ति (जो एक स्थिति है) इसमें पहली दोनों अवस्थाएं मिली हुई हैं, चौथी है क्रांति, इसमें भी पहले की अवस्थाएं मिली हुई है और इतिहास को पूरी कविता में तोड़ा मरोड़ा गया है, मिथक को भी मिलाया गया है क्योंकि समाज का इतिहास उसके मिथकों का भी इतिहास होता है. मेरी कोशिश थी कि हिस्टोरिकल मटीरियलिज्म से अपनी छेड़छाड़ को ऐसा नकाब पहनाऊं कि पाठकों को आसानी से समझ न आ पाए. जो कह रहे हैं कि बिम्ब स्पष्ट नहीं है वे मुझे दरअसल यह बता रहे हैं कि मेरी कोशिश सफल हुई.
जहां तक विचलन का सवाल है, हमारे समय में किस क्षेत्र में विचलन नहीं है? अगर मेरी कविता में इस समय के अनुकूल विचलन है तो इसमें क्या हर्ज है. कई जगह महिलाओं के साथ अत्याचार हो रहा है, दलित बहनों-भाइयों का उत्पीड़न हो रहा है, आदिवासियों के अधिकारों का हनन हो रहा है और ऐसी ढेरों तकलीफों से हमारा समाज गुजर रहा है, यदि इस स्थिति में कविता में विचलन आए तो ठीक ही है.
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पुरस्कृत कविता: विध्वंस की शताब्दी
इस शताब्दी के आगमन पर
काल प्रवाह ने मनुष्य देख,
तुझे क्या बना दिया है
मैं अपनी आहुति देता हूं,
मैं मर गया हूं और
मेरे श्राद्ध पर अनादरपूर्वक आमंत्रित हैं
सब जीव-जंतु, पुष्प और पत्थर.
मेरे देवताओं, पीछे मत छूट जाना
ऐसा इसलिए हूं क्योंकि तुमने ऐसा
बनाया है
मैं रुखसत लेता हूं अपने अनुग्रहों से और
वासना और लोभ और आत्मरक्षा के व्यर्थ विन्यासों से
और अपने किंचित व्यय से.
शुरू में कुछ नहीं था.
फिर हिंसा आयी
रक्त की लाल साड़ी पहने
हमारे समय में सफलता की शादी हो
रही है
आओ हिंसक पुरुषों और बर्बर राजनेताओं
समय उपयुक्त है और यह समय ऐसा हमेशा से था, याद रखना.
तुमने इसे भी नहीं बनाया है
तुम भोले जानवरों को भी
मूर्ख नहीं बना पाये हो
लेकिन यह सही है
कि श्मशान अब नये उद्यान बन गये हैं.
मुझे सड़क से भय है
जहां इतने सारे मनुष्य
और जीव और अपमानित अनुभूतियां रहती हैं.
गाड़ी की खिड़की के बाहर
हम सब में समय और आकांक्षा और प्रतिद्वंद्विता
और विफल सपनों के भीतर मर्यादाहीन लिप्सा
और क्रूरता और अहंकार,
(पंक्ति के अंत में खड़े हो जायें,
जैसे पता ही है आपको
यहां अपमान समय लेकर हो पाता है.)
और महाभारत के यक्ष और स्तब्ध गायें
और लाचार महिलाएं और बनावटी चित्रकार …
कुर्ता नया प्रचलन है,
कविता हो न हो कुर्ता होना चाहिए,
कविता का यह सत्य है.
संकोच की तरह सच,
प्रमाण की तरह सच,
आदर की तरह सच,
दुःख की तरह सच,
झूठ की तरह सच.
बोलो कि मैं निर्दोष हूं
और फिर और जोर से बोलो
क्योंकि जेल के अंदर की
पिटाई दिमाग में होना शुरू हो गयी है.
परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाओ
क्योंकि सफलता या कम से कम सफलता की गुंजाइश
परीक्षा का कवच पहने खड़ी है,
सम्भोग कवच उतार कर होगा.
हिंसा के बाद मशीन आयी
और अनन्तकाल से बेखबर मनुष्य को
पता चला पहली बार कि वह बेखबर था.
अच्छा हुआ कि खुशी का जादू
लम्बी गाड़ी और अच्छे जूतों में मिल गया
आखिर गांधी और बुद्ध और युधिष्ठिर
आत्म-प्रश्न में तो डूबे ही थे,
क्या मिल गया?
जूते की चमक के ऊपर
टेसू के पेड़ में
फूल नहीं अंतड़ियां और गुर्दे
उग रहे हैं,
इन्हें निचोड़ लेते हैं,
होली आने वाली है.
जब जमीन पर हाथ रखते हैं बुद्ध हर बार,
तो वह पूछती है यदि सत्य है
तो पूछते क्यों हो.
क्योंकि मैंने कोशिश की है
और समझ नहीं पाया हूं
कि फल और कर्म क्यों मिल
जाते हैं
मनुष्य के सपने में,
क्योंकि मैं नहीं समझ पाता कि जीवन की
अर्थहीनता सहते हुए भी रोजमर्रे की निराशा क्यों तोड़ देती है,
क्योंकि मृत लोगों की आकांक्षाओं का भार भी
न उठा पाने के कष्ट को संतोष से
ढंकना कठिन हो रहा है,
क्योंकि अपनी उम्मीदों के टोकरे को
सिकोड़ कर मैंने एक अंगूर बना दिया है
वह जब सड़ जायेगा, तो इसकी शराब पीते हुए
देखूंगा कि क्या अन्य भाग गये हैं
यह कहकर – ‘पता नहीं ऐसा क्यों हुआ?’
मुझे बेचारा मत कहो बेचारों,
मुझे मृत कहो,
मृत्यु ही पिछली शताब्दी की
सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि है,
तुम रुककर देखो अपने दुःख दूसरों के आंसुओं में
और जानो कि परिष्कार यही है.
हिंसा की मशीन बत्ती जाने पर
और तेज चलती है
और अकारण विश्वयुद्धों में
करोड़ों का नरसंहार वह खेल था
जो प्रकृति ने रचा था
यह बतलाने के लिए कि मूलतः
कुछ नहीं बदलता और मनुष्य
हर क्षण बदलता रहता है.
मशीन के बाद शक्ति आयी
और याद रखो कि सत्य को जो मार पाये
वह बड़ा सत्य होता है,
हमें एतराज है उन लोगों से
क्योंकि भिन्न सोचते हैं
हिम्मत का प्याला सबसे पहले हमारे पास आ गया था
और हमने ही सबसे ज्यादा पिया है
ज्ञान वही है जो हमें हो, प्रेम वही जो हमसे हो
क्योंकि लोग यदि मुझे पसंद करेंगे
तो मैं सच हूं.
या कम से कम वह हूं
जो सच का उत्स है, आधार है,
जैसे सूरज रोशनी का इस
ब्रह्माण्ड में.
मुझे नहीं पता सच क्या है,
हो सकता है आपको भी न पता हो
इसलिए धर्म और कानून और विज्ञान का विष
सुकरात को पिला देते हैं.
आखिर प्रश्न से बड़ा है उत्तर,
संकोच से बड़ा है संदेह,
अनिश्चित अंतःकरण से बड़ा है आत्मविश्वास,
रात में आसमान अंधेरे में नहीं खिलता,
नये बल्ब से सब जगमगा जाता है!
तिलक प्रश्न करते हैं कि क्या मेरा
खामोश बलिदान चाहिए
मेरे देश को
हम उत्तर देते हैं
कि यह काफी है
वैसे भी हम खुश हैं
सभ्यता जाए चूल्हे में.
तिलक देश की और
हम अपनी लाज बचाकर
चले जाते हैं.
शक्ति के बाद आती है क्रांति
जिस पर सिर्फ हमारा अधिकार है
क्योंकि दूसरे झूठे हैं,
केवल हमारा भगवान सच है
क्योंकि केवल हममें दूसरों को गाली देने की हिम्मत है.
हम सबके लिए लड़ रहे हैं
आखिर हम पर आक्षेप तो
रेगिस्तान की रेत पर ओस की
तरह है.
और क्रांति में हिंसा तो शेर की दहाड़ की तरह है.
मूर्ख, शिकार करते समय शेर दहाड़ता नहीं.
यदि हिंसा के विरुद्ध अहिंसा जीत भी जाए
तो उसे इतना अपमानित करो कि
वह विकृत हो जाये और लोग पहले
दूसरों के प्रति अपने सम्मान से और फिर
खुद से नफरत करने लग जायें.
आखिर सफलता ऐसे ही नहीं आती,
मेहनत करनी पड़ती है.
मैं जीने के कारण मर रहा हूं,
किसानों को देख रहा हूं
मैं उनकी फसल हूं
इस साल भी ठीक से नहीं उग
पाया हूं,
वे निराष हैं, मैं निराश हूं,
यह क्षमाप्रार्थी नियति है और
असम्भव आकांक्षाएं हैं,
इन्हें मैं बांट नहीं पा रहा.
क्रांति के बाद आता है संदेह
जो अब पाप है और जिसे पवित्रता की
दरकार भी नहीं
क्योंकि एक समाज ऐसे भी चल रहा है.
अखबारों और संसदों से परे
यह समाज ऐसे ही चल रहा है.
यह नया पागलपन है क्योंकि
बाकी सारे पागलपन अब आदर्श हो गये हैं.
हम खुद के कल्याण के रास्ते में
खुद पर समय व्यर्थ नहीं कर सकते,
जीवन का आकाश अब परछाईं है
सिर्फ एक कदम दूर, हमेशा.
चलो, इसका इलाज हो सकता है
इतना सोचने से कुछ नहीं मिलता
और जो नहीं मिल सकता
वह पाने योग्य नहीं है.
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