आप आधुनिक हिंदी साहित्य के हस्ताक्षरों में से एक पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी के परिवार से आती हैं. लिखने की शुरुआती प्रेरणा क्या रही? अब तक के लेखन में क्या किसी तरह का कोई दबाव महसूस किया?
यह मेरा सौभाग्य ही रहा कि मेरा जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ, जहां विद्वता, ज्ञान और किताबें चारों तरफ थीं. वहां अधिक से अधिक पढ़ना एक सहज क्रिया थी. लेकिन मेरे पिता जी की नौकरी एक छोटी जगह पर थी. बस्ती जनपद में. बस्ती में किताबें मिलना मुश्किल था. पर उस समय की सभी महत्वपूर्ण पत्रिकाएं बस्ती में, मेरे घर आती थीं. बस्ती प्रतिभाशाली लोगों का क्षेत्र रहा है. साहित्य की बड़ी प्रतिभाएं वहां से निकली हैं. इन सभी प्रतिभाओं को अपना विकास करने के लिए बस्ती से बाहर जाना पड़ा. इसलिए वहां चुनौतियां अलग तरह की थीं. पारिवारिक दबाव नहीं था. साहित्य का सम्मान था. इसलिए छोटी उम्र में जब मैंने अन्याय का विरोध करने के लिए एक कविता लिखी, तो परिवार वाले अतिरिक्त रूप से खुश हो गए. उन्होंने उस समय जो एक बहुत छोटा-सा अन्याय मेरे और मेरी बहनों के साथ हो गया था, उसे समझा भी, सराहा भी. फिर मित्रों, परिचितों के आगे कविता सुनाने का सिलसिला शुरू हुआ. पिता जी गर्व से भर उठते. मेरे लिए यह कठिन हो गया कि अन्याय के विरोध में लिखी कविता मनोरंजन बन कर रह जाए, तब इस स्थिति के विरोध में एक और कविता लिखी, इसे सुन कर कविता सुनवाने का सिलसिला रोक दिया गया. इस सब से मुझे समझ में आया कि साहित्य अपनी बात कहने का सशक्त माध्यम है. अपनी बात भी और जो नहीं कह सकता, उनकी बात भी. गद्य के क्षेत्र में बाद में कदम रखा, जब लगने लगा कि कहने के लिए और अधिक स्पेस चाहिए. मेरी पहली कहानी ‘हंस’ अक्टूबर 1996 में ‘ऐ अहिल्या’ नाम से प्रकाशित हुई थी. इस पर घर, परिवार से लेकर दोस्तों- मित्रों तक ने कहा कि अब ये सब क्या लिखने लगी? कविता तक ठीक था. लेकिन मेरी मां ने मुझे स्वीकार किया. पिता जी ने भी हौसला बढ़ाया. जब ‘कथादेश’ के नवलेखन अंक जून 2001 में कहानी ‘मुक्ति प्रसंग’ प्रकाशित हुई, तब बहुत मुश्किलें आईं. पत्रों के ढेर लग गए. अच्छे बुरे, धमकी भरे, अश्लील तक. संपादक के पास भी बहुत पत्र आए. बहुत से लोगों ने पीठ थपथपाई, तो बहुत से लोगों ने साफ कहा कि अब बंद करो ये सब लिखना. यही हाल हुआ, जब ‘इंडिया टुडे’ की साहित्य वार्षिकी 2002 में कहानी ‘भय’ आई. लेकिन मैं तो ‘कहने’ निकली हूं. जिद है कि उन लोगों की तरफ से भी कहूंगी, जो खुद नहीं बोल सकते.
परिवार, नौकरी और लेखन में तालमेल बिठाने में मुश्किल नहीं आई कभी? कोई मोड़ ऐसा आया हो जब लगा हो कि किसी एक से समझौता करना पड़ेगा?
बार-बार मुश्किलें आईं. परिवार और नौकरी के साथ एक स्त्री का काम कई गुणा बढ़ जाता है. अगर लेखन भी साथ हो तो सोने पर सुहागा जैसा होगा. परिवार और नौकरी के बाद केवल अपने आराम का समय ही है, जो एक स्त्री लेखन को दे सकती है. मैंने भी अपनी नींद का वक्त लेखन को दिया. सारी कहानियां देर रात जगकर लिखी गईं. उपन्यास लिखते समय दो-तीन बजे रात तक जगने की आदत पड़ गई थी. जब उपन्यास पूरा हो गया तो करीब महीने-भर तक रात तीन बजे तक नींद नहीं आती थी. इस तरह कोशिश-भर संतुलन साधा. मेरे साथ एक और भी मुश्किल रही हैं, परिवार की अधिकतम जिम्मेदारी मेरे कंधों पर आ जाती रहीं. इसका कारण मेरे पति कर्नल अमिताभ का सेना में होना था. वे फौज की कठिन ड्यूटी करते रहे हैं. फिर भी उन्होंने हमेशा मेरा साथ दिया है. मैंने स्त्री आत्मनिर्भरता के लिए नौकरी करना चुनकर फौज की कुछ सुविधाओं को छोड़ा भी था, इस निर्णय में भी पति ने मेरा साथ दिया. मैंने अपने अनुभवों से जाना है कि ज्यादातर फौजी परिवार के मामले में भावुक और विचार के मामले में प्रगतिशील होते हैं. इस तरह पति और बच्चों और माता-पिता, सब के साथ मिल-जुल कर हमने यह गाड़ी ठीक ठाक ले चलने की कोशिश की है.
आपके लेखन में वंचित वर्ग और स्त्रियों के दुखः दर्द केंद्रीय विषय बनकर सामने आते हैं. लेखन के शुरुआत से अब तक आप इन दोनों वर्गों की स्थिति में किस तरह का सकारात्मक या नकारात्मक बदलाव देखती हैं?
मैंने अपनी कहानियों में लगातार स्त्री के वृहत्तर सरोकारों और व्यापक दृष्टि की बात की है. स्त्री की आकांक्षा भी बेहतर दुनिया की आकांक्षा है. इसलिए मेरे सरोकार भी कमजोर तबके से जुड़े हैं, जिनमें दलित, वंचित वर्ग, शोषित, पीडि़त और स्त्रियां हैं. हां, युवा भी मेरी चिंता के केन्द्र में हमेशा रहा है, वह युवा स्त्री भी है और पुरुष भी. उसके पास मूल्य भी हैं, वह परेशान भी है और कई बार भ्रमित भी. मुझे लगता है कि आज वर्ग भेद की खाई पहले से कहीं गहरी और चौड़ी हुई है. वर्ग के भीतर भी कई वर्ग बने हैं. बड़े बाजार की भी बड़ी भूमिका देखी जा सकती है. शोषण, अपमान, अवमानना के तरीके भी पहले की अपेक्षा अधिक बारीक, अधिक चालाक और अधिक क्रूर और हिंसक हुए हैं. स्त्रियों ने जितना स्पेस लिया है उसी के मुकाबले उन्हें नियंत्रित करने की छटपटाहट भी बढ़ी है. उन पर हिंसा की घटनाएं बढ़ी हैं. कुछ सकारात्मक हुआ है- स्त्री शिक्षा और आर्थिक आत्मनिर्भरता बढ़ी है, नई तकनीक ने कुछ सुविधाएं भी बढ़ाई हैं, तो बहुत कुछ नकारात्मक भी हुआ है. पिछले दस-पन्द्रह वर्षों में बहुत बदलाव आए हैं.
आप पिछले कुछ समय के दौरान स्त्री लेखन में आ रही तेजी को कैसे देखती हैं?
मैं इसे बेहद सकारात्मक रूप में देखती हूं. बड़ी संख्या में स्त्रियां लिख रही हैं. वे देह विमर्श वाले भटकाव से निकल गई हैं. वे अपने निज के सरोकारों और मानवीय चिंताओं के साथ लिख रही हैं.
महिला लेखन फिक्शन तक सीमित क्यों है? आलोचना, चिंतन तथा अन्य अध्ययनपरक विधाओं में महिलाएं उस तरह से नहीं लिख रही हैं जैसे कविता या कहानी?
महिलाएं फिक्शन ज्यादा लिख रही हैं, यह सही है. गद्य से पहले उन्होंने कविताएं और गीत लिखे. शिक्षा मिलने के साथ गद्य के क्षेत्र में उनका आना हुआ. गद्य चिंतन और विचार का क्षेत्र माना गया है. यह अधिक चुनौतीपूर्ण है. धीरे-धीरे स्त्रियां विचार के इस क्षेत्र में भी अधिक स्पेस लेंगी. अभी उन्हें शिक्षा मिले बहुत लंबा अरसा नहीं हुआ है, जबकि हमारी सभ्यता के पास ज्ञान की हजारों वर्ष की परम्परा है. जितना ज्यादा शिक्षा का प्रसार होगा, साथ ही जितना चेतना का विकास होगा, उतना ही विचार के क्षेत्र में हस्तक्षेप बढ़ेगा. मैं भी गद्य में कई अलग तरह के काम कर रही हूं. बहुत दिनों से मीरा पर काम कर रही थी, उनके पदों का एक नया पाठ तैयार करने की योजना है, इस वर्ष यह काम पूरा करने की कोशिश है. एक दूसरे उपन्यास पर भी काम जारी है. इसी के साथ कुछ ऐसी कहानियों को, जो फार्मूले से अलग स्त्री के समाजीकरण की प्रक्रिया को दिखाती हैं, उन्हें विमर्श की सैद्धांतिकी के साथ समझाने की कोशिश भी है.
आपकी कहानियों की स्त्रियां हमारे आसपास की स्त्रियां हैं. आपके पास तो फौज के भी गहन अनुभव हैं. क्या उनमें से कुछ खास अनुभव साझा करना चाहेंगी?
मेरी कहानियों की स्त्रियां हमारे समाज की संघर्षरत स्त्रियां हैं. इसीलिए ये पाठक को जानी-पहचानी लगती हैं. पाठक का ऐसी कहानियों के साथ एक पाठकीय रिश्ता बनता है. लेखक के लिए यह एक बड़ी पूंजी है कि पाठक उसकी कहानियों को अपना मानें. फौजी जीवन के अनुभवों का खजाना मेरे पास है. पर अभी मैं इस पर बहुत नहीं लिख पाई हूं. केवल एक कहानी ‘छावनी में बेघर’ में ही कुछ बातें कह पाई थी. इस कहानी में मैंने सैनिकों के मनुष्य जीवन की बात उठाई थी, उनकी हीरोइक छवि से अलग उनके मानवीय सुख, दुख, जिम्मेदारियां, चिंताएं और मुसीबत के वक्त फौजी परिवारों की आपसी सांझेदारियां, सहयोग… कारगिल युद्ध की पृष्ठभूमि इस कहानी में है. फौजियों का जीवन बहुत कठिन है. इसे आम आदमी समझता भी है पर भैतिकवादी दृष्टिकोण और बाजार ने आज धन को सर्वोच्च बना दिया है और त्याग, बलिदान जैसे मूल्यों को पीछे ढकेल दिया है. सैनिक चाहे अफसर हो या सिपाही, मेरे मन में उनके लिए बहुत सम्मान है.
क्या आपको लगता है कि फेसबुक जैसे सोशल मीडिया माध्यमों ने साहित्य को लोकतांत्रिक बनाया है. तमाम नए लोग इनके जरिये सामने आए हैं, आपको इसकी क्या कमियां या खूबियां नजर आती हैं?
सोशल मीडिया ने एक नया जनतांत्रिक स्पेस निर्मित किया है. यहां कोई भी अपनी बात कहने के लिए स्वतंत्र है. कई बार यहां बड़ी अच्छी बहसें उठ खड़ी होती हैं. बहस करते-करते कोई बीच से गायब भी हो सकता है, इसकी भी छूट है. कई बार ऐसे बेतुके झगड़े भी देखने को मिल जाते हैं, जिनसे जीवन की एक और समझ खुलती है. मनुष्य ऐसा ही है- तमाम अंतर्द्वद्वों से घिरा हुआ. इसकी खूबी यह भी है कि विवेक की परीक्षा यहां होती रहती है. और तमाम तरह के विचारों, सूचनाओं का पिटारा भी आपको यहां मिल जाता है. तमाम प्रतिभाएं ऐसी भी दिख जाती हैं, जिन्हें यदि जरा-सा मांज दिया जाए तो अद्भुत हो उठेंगी. व्यस्त जीवन में लोगों को कनेक्ट करने का एक बड़ा माध्यम तो यह है ही. मैं खुद भी इसके साथ जुड़ी हुई हूं. जल्दी ही एक ब्लॉग शुरू करने वाली हूं.
आपका पहला उपन्यास ‘अन्हियारे तलछट में चमका’ अपने अनूठे कथ्य और शिल्प की वजह से चर्चा में रहा. उसे प्रेमचंद सम्मान से भी सम्मानित किया गया. एक कथा लेखक को उपन्यास लिखते समय किन चुनौतियों से जूझना पड़ता है.
यह कहा जाता है कि उपन्यास अधिक समय और उर्जा लेने वाली श्रमसाध्य विधा है, यह ठीक है, लेकिन श्रम तो कोई भी कर सकता है. असल बात है औपन्यासिक विजन, जिसके बिना उपन्यास नहीं सध सकता. जीवन को आप कितना समझते हैं? आपके अनुभव का दायरा कितना बड़ा है? विचार के स्तर पर क्या बन सका है, इतिहास बोध है भी या नहीं, पिछली और समसामयिक समस्याओं को किस तरह चिन्हित कर पाये हैं? इस तरह की बातों का उपन्यास के लिए बड़ा महत्व है. जीवन की गहरी समझ और विराट विजन मुझे उपन्यास के लिए जरूरी लगता है.
जहां तक ‘अन्हियारे तलछट में चमका’ की बात है तो यही कहूंगी कि बस, मेरी कोशिश इतनी थी कि जो बात कहना चाहती हूं, उसे खूब अच्छी तरह से कह पाऊं. समय बहुत लगा. केवल फाइनल ड्राफ्ट बनाने में लगभग एक वर्ष का समय लग गया. तकनीक नई थी तो शायद इसी से शिल्प भी बदलता चला गया. कहानी कहने के लिए आत्मकथा की तकनीक को भी इसमें मिला दिया. तमाम प्रविधियां घुलमिल कर एक नई प्रविधि की तरफ लेती गईं. यह भी अनायास ही हुआ. बस, कहने के तरीके की खोज में यह तरीका बनता गया. व्यापक पाठकीय प्रतिक्रियाओं ने मेरा हौसला बढ़ाया है. युवा वर्ग इसे अपने से कनेक्ट कर के देख रहा है, मुझे इसका भी सुकून मिल रहा है. दूर-दराज से पत्र, फोन और एसएमएस आ रहे हैं. एक महिला गाजियाबाद से मुझे ढूंढ़ते हुए आई, उन्होंने अखबार में उपन्यास के बारे में पढ़कर उपन्यास मंगवाया था. एक युवक ने उपन्यास के पहले चैप्टर की कुछ पंक्तियां एक सांस में सुना दीं और कहा कि वह भी ऐसा ही सोचता था. मुझे तसल्ली है कि इस उपन्यास के पात्र पाठकों को परिचित लग रहे हैं. बल्कि कई जगह पाठकों ने यह भी पूछा है कि ‘क्या ये पात्र जीवित हैं?’ इस पर मैं कहूंगी कि इस उपन्यास के पात्रों का जीवित या मृत व्यक्तियों से कोई संबंध नहीं है, पर दरअसल ये सब जीवित हैं, हमारे आस-पास हैं.