नोयर(अपराध) फिल्म शैली में बनी और राजस्थान के एक काल्पनिक शहर लखोट की सुस्त जिंदगी को दिखाती ‘मनोरमा सिक्स फीट अंडर’ ने अपनी रिलीज के वक्त कोई बड़ी हलचल नहीं मचाई थी. मगर धीरे-धीरे इसे पसंद करने वालों की संख्या बढ़ती गई. एक साल बाद अब भी लोग अपने दोस्तों को इसे देखने की सलाह दे रहे हैं. इसलिए हैरानी नहीं कि आज ये उन फिल्मों की लिस्ट में शुमार है जिनकी डीवीडी सबसे ज्यादा बिक रही हैं.
हालांकि इसके निर्देशक नवदीप सिंह मानते हैं कि मनोरमा…एक अलग सी मगर साधारण शुरुआत थी. नवदीप का इरादा बारी-बारी से एक मुख्यधारा की और एक मनमुताबिक फिल्म बनाने का है. उन्हें उम्मीद है कि इस तरह वे आखिरकार उन कल्पनाओं को पर्दे पर उतारने में कामयाब होंगे जो बरसों से उनके दिमाग में उमड़ती-घुमड़ती रही हैं. अब वे विज्ञापन फिल्मों, जिनके लिए उन्हें जाना जाता है, पर ध्यान देना कम कर रहे हैं और अपनी मनमुताबिक फिल्म बनाने के बाद मुख्यधारा की एक बड़ी फिल्म ‘बसरा’ बनाने में जुटे हैं. ये एक जासूसी थ्रिलर है जिसकी कहानी रॉ के एक एजेंट के इर्दगिर्द घूमती है.
मनोरमा….जैसी फिल्म बनाने वाले शख्स के बारे में जिज्ञासा स्वाभाविक ही है. आखिर पहली ही फिल्म में लीक से हटकर काम करने का जोखिम कितने फिल्मकार उठा पाते हैं. हिंदी फिल्मों में हीरो को आमतौर पर नैतिकता से ओतप्रोत दिखाया जाता है. ऐसे में सामान्य हीरो की जगह घूस लेने के आरोप में निलंबित सिंचाई विभाग के जूनियर इंजीनियर सत्यवीर को फिल्म का नायक बनाने में क्या उन्हें ज़रा भी अजीब नहीं लगा? जवाब में नवदीप कहते हैं, “मैं किसी मुद्दे पर आधारित फिल्म नहीं बना रहा था. और वैसे भी हमारे लिए नैतिकता का मतलब सेक्स और मांसाहार से दूर रहना भर रह गया है. अगर आप शाकाहारी और ब्रह्मचारी हैं तो आपका कोई भी काम अनैतिक नहीं हो सकता. भले ही आप पैसा कमाने के लिए कितने ही क्रूर क्यों न बन जाते हों, किसी इंसान का कत्ल तक कर देते हों, मगर आप अनैतिक तब तक नहीं है जब तक कि आप उस इंसान का मांस नहीं खा रहे हों.”
नवदीप की एक दूसरी थ्योरी भी बेहद दिलचस्प है, वो कहते हैं, “हमारी संस्कृति के बनियाकरण ने हमारी फिल्मों को बर्बाद करके रख दिया है. मैं अपनी छत पर खडे़ रहकर सुन सकता हूं कि पड़ोसियों के यहां झगड़ा हो रहा है और सब एक दूसरे को मां-बहन की गालियां दे रहे हैं. आज की वास्तविकता यही है पर निर्माता मुझसे कहते हैं कि पिता-पुत्र के संबंध पर जिस फिल्म के बारे में मैं सोच रहा हूं उसमें पश्चिम की झलक बहुत ज्यादा है क्योंकि इसमें बेटा, बाप को उलटा जवाब देता है. शायद हमारे यहां के अभिजात्य संयुक्त परिवारों में ऐसा न होता हो मगर निश्चित रूप से कई जगहों पर ऐसा ही होता है.” हालांकि तुरंत ही पलटने की कोशिश करते हुए नवदीप कहते हैं कि शायद वो कुछ ज्यादा ही रुखा बोल रहे हैं.
बॉलीवुड की तरफ रुख करने से पहले विज्ञापन फिल्मों की दुनिया में सक्रिय रहे नवदीप को उपभोक्तावाद का अतिरेक नहीं सुहाता. वो कहते हैं, “अमीर और गरीब तो हमेशा से थे. मगर अब दिखावा पहले से कहीं ज्यादा है. इसलिए जल्द ही एक स्थिति ऐसी आएगी जब कोई सोचेगा कि अपनी कमाई से तीन गुना महंगे जूते खरीदने का सपना देखने से अच्छा है कि ऐसा जूता पहने किसी शख्स को गिरा दो और उसके जूते लेकर चंपत हो जाओ.”
खुद का ही मजाक बनाते हुए नवदीप आपको उन स्क्रिप्ट्स के बारे में बताते हैं जो उन्होंने लिखीं और अमेरिका से बॉलीवुड पहुंचते ही रद्दी की टोकरी में डाल दीं. वे कहते हैं, “मेरी एक कहानी में एक रूसी गैंगस्टर, पोर्न फिल्मों की स्टार उसकी प्रेमिका और उसके प्रेम में गिरफ्तार एक पोर्न फिल्म निर्देशक था. मैंने सोचा कि मैं इस कहानी को भारत के हिसाब से ढाल लूंगा. मुझे लगता था कि मुंबई, न्यूयॉर्क जैसा ही होगा, बस यहां भारतीय वहां से ज्यादा होंगे.”
दिल्ली से ग्रेजुएशन करने के बाद नवदीप और उनके एक मित्र ने एक एनिमेशन स्टूडियो शुरू किया जो देश में अपनी तरह का पहला स्टूडियो था. वो बताते हैं, “हमने खुद ही सब कुछ सीखा था मगर काम बढ़िया चला.” 27 की उम्र में उन्होंने डिजाइन के क्षेत्र में आगे अध्ययन करने की सोची. मगर फिर अचानक ही उन पर न जाने क्या धुन सवार हो गई कि उन्होंने एक फिल्म स्कूल में दाखिला लेने का फैसला कर लिया. उन दिनों को याद करते हुए नवदीप बताते हैं, “मैं शादीशुदा था, मेरी पत्नी गर्भवती थी और मेरे सास-ससुर बहुत चिंतित थे. मगर ये सोचकर कि आपको सिर्फ उन्हीं चीजों का अफसोस होता है जो आप कर नहीं पाते. उन चीजों का नहीं जिन्हें आप करते हैं, मैंने आगे कदम बढ़ा दिए.”
नवदीप ने कैलिफोर्निया स्थित आर्ट सेंटर स्कूल ऑफ डिजाइन में दाखिला लिया. ये एक ऐसी जगह है जहां से दिलीप छाबड़िया जैसे मशहूर कार डिजाइनर भी निकले हैं और जैक स्नाइडर जैसे जाने-माने फिल्मकार भी. इसके बाद एक दशक तक लॉस एंजल्स में काम करने के बाद नवदीप फिल्में बनाने के लिए 1999 में भारत लौटे. ये वो वक्त था जब सत्या और हैदराबाद ब्लूज जैसी फिल्मों के साथ बॉलीवुड में परिवर्तन की एक हल्की सी बयार शुरू हुई थी. लोग दिलचस्पी के साथ वैकल्पिक सिनेमा की संभावित वापसी को देख रहे थे. मुंबई पहुंचते ही नवदीप को ये देखकर बड़ी हैरानी हुई कि वहां की दुनिया अपने आप में ही सिमटी हुई थी. वो कहते हैं, “मुझे एड फिल्में तुरंत ही मिल गई मगर बॉलीवुड का रुख मेरे प्रति दोस्ताना नहीं था. कला के क्षेत्र में सभी क्रांतियां सृजनशील व्यक्तियों द्वारा उनके काम और विचारों के आदान-प्रदान से पैदा हुई हैं. मगर यहां तो लगता है कि कोई इस बात को समझता ही नहीं.”
आज के दौर में जब बॉलीवुड की आलोचना को देशद्रोह सरीखा समझा जाता हो, नवदीप, फिल्म उद्योग और इसकी संस्कृति को लेकर क्षुब्ध नजर आते हैं. वो कहते हैं, “मुझे उन शहरों से नफरत है जो बॉलीवुड के अतिरिक्त किसी और संस्कृति से कटे हुए से लगते हैं. विदेश में रहने के दौरान मैं जिन चीज़ों को सबसे ज्यादा याद करता था वो हैं पुस्तकालय, संग्रहालय और संगीत. निश्चित रूप से सांस्कृतिक और बौद्धिक गतिविधियों तक मेरे बच्चों की पहुंच उससे कहीं कम है जितनी मेरी तब हुआ करती थी जब मैं उनकी उम्र का था. गुड़गांव जैसी नई जगहें संस्कृति नामक चीज से दूर-दूर तक महरूम है. अगर हमें पश्चिम से कुछ लेना ही है तो हम सबसे बेहतर क्यों न लें? क्यों नहीं हम चीन की तरह कई संस्कृतियों से मिलकर बनी एक महान संस्कृति पैदा करते? कला को तो भूल ही जाइये हमारे पास एक लोकप्रिय संस्कृति तक नहीं है. इसीलिए हमारे पास धूम जैसी फिल्में हैं. जरा बताइये तो भारत में कहां इस तरह के मोटरसाइकिल गैंग देखने को मिलते हैं?”
नवदीप के पिता सेना में थे और इस वजह से उनके बचपन का एक हिस्सा कई छोटे कस्बों में भी बीता. शायद यही वजह है कि वो इन कस्बों के जीवन को अच्छी तरह समझते हैं. मनोरमा…के निर्माण के दौरान वो अड़े रहे कि इसकी शूटिंग मुंबई में बने सेट्स की बजाय किसी असली जगह पर हो. अंधेरी स्थित उनके अपार्टमेंट में छोटे कस्बों में दिखने वाले, हाथ से पेंट किए गए कई साइनबोर्ड नजर आते हैं जिन्हें उन्होंने ही इकट्ठा किया है. नवदीप कहते हैं, “कस्बों में कई रंग देखने को मिलते हैं. ज्यादातर बड़े शहर तो एक जैसे ही लगते हैं.”
नवदीप को ये देखकर भी काफी गुस्सा आता है कि बॉलीवुड के पास लोकेशंस के नाम पर गिनी चुनी जगहें ही हैं. वो कहते हैं, “ज्यादातर फिल्मों में या तो विदेश दिखता है या फिर ऐसी कोई जगह जो हमने देखी ही नहीं होती. आप एक फिल्म के चरित्रों पर नजर डालते हैं और बताना मुश्किल होता है कि वो कौन हैं या कहां हैं या फिर कहां के हैं. उदाहरण के लिए अगर आप एक तमिल फिल्म देख रहे हों तो इसका एक सुपरिभाषित देश, काल और वातावरण होता है इसलिए इसमें लोकेशन, पात्र वगैरह जैसी तमाम चीजें साफ समझ में आ जाती हैं. बॉलीवुड के साथ यही दिक्कत है. इसके स्वाभाविक दर्शक कौन से हैं? कौन ऐसी हिंदी बोलता है? कोई नहीं. मनोरमा…में एक जगह पर ऐसी हिंदी बोली गई है जैसी राजस्थान के किसी कस्बे में बोली जाती है. लोगों की शिकायत थी कि ये तो एक बोली है और ये उनकी समझ में नहीं आ रही. इसलिए हमारे पास ऐसी फिल्में हैं जो न जाने कहां के बारे में हैं और इन्हें ऐसे दर्शकों के लिए बनाया गया है जो न जाने कहां के हैं.”
तो फिर नवदीप यहां क्यों रुके रहे? क्यों वो दोबारा लंदन या लॉस एंजल्स नहीं लौट गए? इन सवालों के जवाब में वो आपको झटका देते हुए कहते हैं, “ऐसी कामचलाऊ काबिलियत के साथ मेरा गुजारा भला और कहां होता?” उनकी ये बात सुनकर लगता है जैसे वो साबित करना चाहते हों कि बॉलीवुड में यथार्थवाद या अच्छे सिनेमा की बात करने का कोई फायदा नहीं. मगर फिर दूसरी ही सांस में वो ये भी कह जाते हैं, “एक वक्त आता है जब आप घटिया काम और कॉमेडी से ऊब जाते हैं. और तब ऐसी फिल्में बनना शुरू होती हैं जिन्हें हम देखना चाहते हैं. मैं आशावान हूं.”
निशा सूज़न