1999 के अगस्त माह का वो रविवार मुझे आज भी याद है। वो शायद मेरी ज़िंदगी का सबसे अहम लम्हा था। उस वक्त मुझे इसका अहसास नहीं था लेकिन उस क्षण ने मेरी ज़िंदगी बदल दी या मुझे कहना चाहिए कि मेरी उस असलियत से मेरा परिचय करवाया जो 25 सालों से कहीं छुपी हुई थी। इसने मुझे हमेशा के लिए ज़िंदगी में एक मकसद दे दिया।
बचपन में मुझे मार्टी स्टॉफर्स का टेलीविज़न कार्यक्रम “अवर लिविंग प्लैनेट” देखना बेहद पसंद था। मैं हमेशा उन सुंदर जंगलों, शानदार जानवरों और पक्षियों के बारे में सोचती रहती थी जिन तक सिर्फ मार्टी ही पहुंच सकता था और हमें उन्हें टीवी पर देखकर ही संतोष करना पड़ता था। मुझे मार्टी से ईर्ष्या होती थी और मैं कम से कम एक बार मैं उनसे मिलना चाहती थी। तभी एक दिन, जब मैं करीब 15 बरस की थी, एक पत्रिका में मैंने भरतपुर के केवलादेव पक्षी अभ्यारण्य के बारे में एक लेख देखा जिसके साथ कुछ खूबसूरत फोटो भी थे। उस वक्त मेरी खुशी की कोई सीमा नहीं रही जब मैंने पाया कि इतने सालों से मार्टी मुझे जो कुछ टीवी पर दिखाता रहा है कम से उनमें से एक जगह भारत में भी है। मैंने उस पत्रिका को सहेज कर रख दिया और फैसला किया कि एक दिन मैं वहां जरूर जाऊंगी।
ज़िंदगी गुज़रती रही। मैंने मेडिकल कॉलेज में दाखिला ले लिया लेकिन मार्टी, उनकी टीवी श्रंखला और भरतपुर का सपना ज़िंदा रहा। मेडिकल कॉलेज में मैं शनिवार को अक्सर अपने प्रोफेसर, जो कि मेरे मार्दर्शक भी थे, से क्लास छोड़ने की अनुमति ले लेती ताकि मैं मार्टी का कार्यक्रम देख सकूं। दिलचस्प बात ये है कि प्रोफेसर ने कभी भी मुझे रोका नहीं। हम अक्सर देखते थे कि वो लेक्चर देते-देते बीच में चुप्पी साध लेते थे, मानो वो कुछ सुनने की कोशिश कर रहे हों। इस पर हम लोग हंस देते थे। मुझे बड़ी जिज्ञासा होती थी कि वो ऐसा क्यों करते हैं? लेकिन ये रहस्य बना ही रहा।
मैंने अपनी मेडिकल डिग्री हासिल कर प्रैक्टिस शुरू कर दी और ज़िंदगी ठीक-ठाक चलने लगी। लेकिन दो साल बाद मैं बीमार पड़ गई, और मुझे अपना ऑपरेशन कराना पड़ा। 15 दिन बाद ऑपरेशन फिर से करना पड़ा क्योंकि पहले ऑपरेशन के दौरान लापरवाही बरती गई थी। बहरहाल घाव जल्द ही भर गया। मगर इसके बाद मैं बार-बार बीमार पड़ने लगी और दो सालों के भीतर ही मुझे तीन-चार ऑपरेशन करवाने पड़े। बार-बार की पीड़ा ने मुझे अवसाद में पहुंचा दिया। दवाओं की वजह से मुझे भूख लगनी बंद हो गई और मैं बहुत दुबली हो गई। मेरी बीमारी ने मेरी प्रैक्टिस को भी बुरी तरह से प्रभावित किया। मैंने पाया कि मैं अब कभी भी उस तरह की सफलता नहीं पा सकती जैसी मैंने शुरुआती दो सालों में पायी थी। मुझे बहुत झुंझलाहट होती, एक तरह से कहें तो मैं बहुत चिड़चिड़ी हो गई थी।
इन सालों के दौरान मैं लगातार अपने प्रोफेसर के संपर्क में बनी रही। उन्हें मेरी बीमारी औऱ उसकी वजह से पैदा हुए अवसाद की जानकारी थी। एक दिन उन्होंने कहा, “तुम इस रविवार को मेरे साथ क्यों नहीं चलतीं?” “कहां?”, मैंने पूछा. उन्होंने कहा, “तुम बस चलो”।
मैंने ऐसा ही किया। हम दोनों, बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी (बीएनएचएस) के साथ उनके जंगल की सैर पर गए। यहां आकर उनकी उन चुप्पियों का राज़ खुला जो वो लेक्चर के बीच में अक्सर साध लेते थे—वो चिड़ियों की आवाज़े सुनने और उन्हें पहचानने की कोशिश किया करते थे। कोई आश्चर्य नहीं कि मुझे मार्टी के कार्यक्रम के लिए छुट्टी बड़ी आसानी से मिल जाती थी। बहरहाल मैंने सैर का जमकर लुत्फ उठाया। घर लौटने पर मैं अच्छा महसूस कर रही थी और जल्द ही ज़िंदगी फिर से पटरी पर आ गई।
इसके बाद 1999 के अगस्त माह में अख़बार के पहले पन्ने पर खिले हुए खूबसूरत कर्वी के फूल छपे थे। उसके नीचे लिखा था, “ये फूल आठ साल में एक बार खिलते हैं और ये खिलने का साल है। वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड ने इसे देखने के लिए संजय गांधी राष्ट्रीय उद्यान की प्राकृतिक यात्रा का आयोजन किया है।” मेरे अंदर एक हलचल सी मच गई। मैंने प्रोफेसर साहब से इस यात्रा पर चलने के बारे में पूछा और रजिस्ट्रेशन करवा दिया। जब हम उद्यान के भीतरी हिस्से में पहुंचे तो मेरा दिल जोर जोर से धड़कने लगा। यही तो वो चीज़ थी जिसे देखने की मैं सालों से कल्पना करती रहती थी, इस बात से बेखबर कि ये मेरे पास में ही था, या कहें कि ठीक मेरे पीठ पीछे। पूरा उद्यान बिल्कुल उसी तरह का था जैसा मैं मार्टी के कार्यक्रमों में देखा करती थी और जहां मैं रहती थी उसके इतने करीब भी। मुझे इसे खोजने में इतनी देर कैसे लगी?
मेरा मन किया कि मैं बच्चों जैसी उछलूं और ज़ोर-ज़ोर से हंसू—ये ऐसा था जैसे मुझे लंबे समय से बिछड़ा हुआ कोई प्यारा या फिर कोई खजाना मिल गया हो। कर्वी के फूल, जंगल के बीच मानसून की फुहारें, चारो तरफ फैली हरियाली, चिड़ियां और तितलियां—ये सारी चीज़ों ने मुझे बेसुध सा कर दिया और मैं एक नई दुनिया में विचरण करने लगी।
इसके बाद मैं अक्सर ऐसी यात्राओं पर जाने लगी, जहां तक मेरा स्वास्थ्य मुझे इजाजत देता। दो महीने में एक बार, महीने में एक बार, और फिर दो हफ्ते में एक बार। मेरा स्वास्थ्य सुधरने लगा। इससे भी बड़ी बात ये थी कि कुछ समय के बाद एकाकी और शांत रहने वाली मैं काफी बिंदास हो गई। मैंने कई दोस्त बनाए, मेरे आत्मविश्वास में वृद्धि हो गई और मैं काफी दृढ़ हो गई। क्या मैं वही थी? इतने सालों तक मैं कहां छुपी हुई थी? मैंने फोटोग्राफी भी शुरू कर दी और अलग अलग अभ्यारण्यों और राष्ट्रीय उद्यानों में जाने लगी। मैं संरक्षण और जागरुकता जैसे कामों में शामिल हो गई।
आज, मैं हर हफ्ते कुछ घंटे बाहर प्रकृति की छांव में जरूर बिताती हूं। आदत के रूप में जो चीज़ शुरू हुई थी वो धीरे-धीरे जुनून, मकसद और फिर जीवन की गति बन गई। आज यही वो चीज़ है जिसके लिए मैं जी रही हूं और यही मुझे हर तूफान का सामना करने और मुस्कराने की ताकत देती है।
डॉ. संगीता धानुका
(36 वर्षीय डॉ. धानुका, मुंबई की एक फार्मास्युटिकल कंपनी में मैनेजर हैं।)
आप भी इस वर्ग के लिए अपनी रचनाएं (संक्षिप्त परिचय और हो सके तो फोटो के साथ) hindi@tehelka.com पर ईमेल कर सकते हैं या फिर नीचे लिखे पते पर भेज सकते हैं.
तहलका हिंदी, एम-76, एम ब्लॉक मार्केट, ग्रेटर कैलाश-2, नई दिल्ली-48