खुद भी सीखें सिखाने वाले

सामाजिक न्याय की बड़ी-बड़ी बातें करने वाले दिल्ली विश्व विद्यालय के 77 महाविद्यालयों में से किसी में भी दलित प्रधानाध्यापक नहीं है और प्राध्यापकों को गिनने के लिए एक हाथ की उंगलियां भी ज़्यादा होंगी…

देश के सबसे पुराने और प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में से एक दिल्ली विश्वविद्यालय ये दावा कर सकता है कि उसने अपने यहां कर्मचारियों की नियुक्ति में आरक्षण का प्रावधान 1997 में ही लागू कर दिया था। लेकिन धरातल पर इसका शायद ही कोई प्रभाव नज़र आता हो। कुछ अहम तथ्यों पर नज़र डालें तो डीयू के 77 कॉलेजों में से किसी एक में भी अनुसूचित जाति या जनजाति का प्रधानाध्यापक नहीं है और न ही इसके 80 विभागाध्यक्षों में से ही कोई भी इन समुदायों का प्रतिनिधित्व करता है। 2006 में प्रोफेसर आर के काले द्वारा किए गए एक अध्ययन में ये बात भी सामने आई थी कि डीयू के 719 फैकल्टी सदस्यों में से मात्र 2 अनुसूचित जाति और जनजाति से थे।

सूचना के अधिकार क़ानून के तहत हासिल किए गए आकड़ों से पता चलता है कि डीयू के तमाम विभागों में कार्यरत 300 रीडर्स में से मात्र 4 एससी और 1 एसटी समुदाय से हैं। विश्वविद्यालय के विभिन्न कॉलेजों में दलित और जनजातीय समुदाय के लेक्चरर्स की संख्या भी आरक्षण व्यवस्था के मानकों के लिहाज से काफी कम है।

आंकड़ों के मुताबिक प्रथम श्रेणी की नौकरियों में जहां सिर्फ 11.5 फीसदी एससी और 4.5 फीसदी एसटी समुदाय के हैं वहीं सबसे निचली श्रेणी यानी कि सफाई कर्मचारियों में इनका हिस्सा 59.2 और 4.9 फीसदी है।

हिंदू कॉलेज के इतिहास विभाग में दलित वर्ग से ताल्लुक रखने वाले सीनियर लेक्चरर रतन लाल कहते हैं कि उनके जैसे लोगों के लिए बिना आरक्षण के विश्वविद्यालयों में शिक्षक की नौकरी पाना लगभग असंभव होता है। “आरक्षित वर्ग के उम्मीदवार अक्सर सामान्य वर्ग के प्रत्याशियों जितनी योग्यता के बावजूद शिक्षा संबंधित नौकरियों में पिछड़ जाते हैं क्योंकि अक्सर साक्षात्कार बोर्ड ही पूर्वाग्रह का शिकार होता है”, लाल कहते है।

इस वजह से उच्च शैक्षिक योग्यता के बावजूद ज्यादातर दलित शिक्षक आज भी अपनी जातिगत पहचान छुपाने की कोशिश करते हैं। हाल फिलहाल में अगर डीयू में आरक्षण के प्रावधानों को सही तरीके से लागू करने की आवाज़े उठ रहीं हैं तो इसकी एक वजह ये भी है कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के वर्तमान अध्यक्ष सुखदेव थोरात खुद भी दलित हैं।

दिल्ली विश्वविद्यालय में ये हालत तब है जब प्रो. काले के अध्ययन के मुताबिक यहां लेक्चरर्स के करीब आधे पद रिक्त पड़े हुए हैं। इसमें कोई हैरत नहीं कि रिज़र्वेशन के विरोधी, दलितों की कम संख्या को ये कह कर जायज ठहराते हैं कि वो या तो अनुपलब्ध होते हैं या अयोग्य। लेकिन अयोग्यता का फार्मूला ज्यादातर अर्थशास्त्र, इंग्लिश और कॉमर्स जैसे विषयों में ही लागू होता है, जहां आरक्षित वर्ग के प्रत्याशियों को अंग्रेज़ी भाषा में प्रवीण न होने पर आसानी से अयोग्य करार दिया जा सकता है। दूसरे तमाम विषयों के शिक्षकों और नॉन टीचिंग स्टाफ पर अयोग्यता का ये तर्क आसानी से लागू नहीं होता, जबकि इन क्षेत्रों में भी हालात कुछ ज्यादा अलग नहीं हैं।

कार्मिक, जन शिकायत एवं पेंशन मंत्रालय के 2005 के आंकड़ों के मुताबिक प्रथम श्रेणी की नौकरियों में जहां सिर्फ 11.5 फीसदी एससी और 4.5 फीसदी एसटी श्रेणी के हैं वहीं सबसे निचली श्रेणी यानी कि सफाई कर्मचारियों में इनका हिस्सा 59.2 और 4.9 फीसदी है। इस असंतुलन की वजह देश की निर्णय करने वाली इकाइयों पर प्रभावशाली जातियों का वर्चस्व होना है। उदाहरण के तौर पर डीयू की कार्यकारी परिषद और अकादमिक परिषद को ही लीजिए इनमें एससी और एसटी के लिए कोई आरक्षण नहीं है, जबकि ये विश्वविद्यालय की निर्णय करने वाली मुख्य इकाई है।

जिस तरह से देश में आरक्षण का तंत्र काम करता है उसे देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि आरक्षित जातियों की अयोग्यता का तर्क निचली जातियों को नियुक्ति से दूर रखने के लिए कृत्रिम रूप से गढ़ा गया है। देश के सबसे प्रतिष्ठित केंद्रीय विश्वविद्यालय के ये चौंकाने वाले आंकड़े तमाम जिम्मेदार लोगों की आंखें खोलने के लिए काफी होने चाहिए। देश भर के तमाम दूसरे विश्वविद्यालयों में परिस्थितियां इससे भिन्न होने की बजाय और भी बदतर हैं। विडंबना ये है कि दिन-रात सामाजिक न्याय और समतामूलक समाज की बातें करने वाला बौद्धिक वर्ग इस दिशा में बनाए गए नियमों और सिद्धातों का खुद ही धड़ल्ले से लगातार उल्लंघन कर रहा है।

अमित चमड़िया