जनवरी की वह सुबह ठीक-ठीक कैसी थी-याद नहीं आ रहा बेशक उस दिन बड़ी ठंढ रही होगी.मगर कुहासा ज्यादा ना रहा होगा क्योंकि हम बहुत पहले तैयार हो गए थे. अब्बा लखनऊ जा रहे थे, शायद चेक-अप के लिए. कार से अम्मी और मैं उनके साथ जा रहे थे. अब्बा की खिदमत के लिए बुद्धू नाम का एक नौकर था. उसे ड्राइविंग आती थी और अब्बा हमेशा उसे अपने साथ ले जाते थे लेकिन अब्बा को खुद कार चलाना पसंद था. पड़ोस में एक पेट्रोल-पंप था, कहीं जाने से पहले वे उस पेट्रोल-पंप पर जरुर जाते . लेकिन उस दिन पहुंचे तो पेट्रोल-पंप बंद मिला.मालिक अभी तक वहीं था, वह कार तक आया और उसी ने खबर सुनायी- किसी ने गांधीजी की हत्या कर दी है.
इससे ज्यादा उसे पता नहीं था.
अब्बा ने कार वापस घुमा ली. चेहरा तन गया, मैंने इससे पहले उनको इतना गुमसुम नहीं देखा था.जितनी देर घर पहुंचने में लगे,कार में उन चंद लम्हों तक एकदम चुप्पी रही.उतरते ही शायद उस दिन कार गैराज में रख दी गई.उस दिन सबकुछ बड़ा अटपटा हो रहा था.घर में दाखिल होते ही अब्बा ने बाहर के सारे दरवाजे बंद करके कुंडी चढ़ा दी. उन्होंने सबको घर के अंदर रहने का हुक्म सुनाया- घर के एकदम बीच वाले कमरों में. हाजत से फारिग ना होना हो तो हमें भीतर की दोनों अंगनाइयों में भी आने की इजाजत नहीं थी. घर में सिर्फ अब्बा की आवाज सुनाई दे रही थी- बाकी लोग कुछ कहना हो तो फुसफुसा के बोल रहे थे.
अब्बा शिकार के बड़े शौकीन थे, खासकर जाड़ों में जल-मुर्गाबियों के. उनके पास तीन शॉटगन थे और एक राइफल, एक रिवाल्वर भी था. बरसों पहले पुश्तनी जायदाद के मामले में जान पर बन आई थी तभी खरीदा था उन्होंने वह रिवाल्वर. उन्होंने तीनों हथियारों को पेटी से निकालकर तख्त पर रखा, अपने हाथों से जांच के देखा और गोली भर दी.एक बंदूक बुद्धू को दे गई. तबतक बंदूकों को लेकर मेरा कोई तजुर्बा नहीं था- मुर्गाबियों के शिकार पर मैं अब्बा के साथ जाता तो वे मुझे इतना होशियार नहीं मानते कि हाथों में बंदूक थमा दें. इसलिए, मैं इस वक्त उनके किसी काम का नहीं था.
अब्बा और बुद्धू हाथों में बंदूक लेकर घर की औरतों के साथ थे–अम्मा, दादी, दाइयां (इनमें बुद्धू की बीवी भी थी) और फिर बच्चे- मेरी तीन बहनें और बुद्धू के ढेर सारे बच्चे. अब्बा शाह दरवाजे पर मुस्तैद थे, बुद्धू भीतर की अंगनाई में किसी शिकारी के से चौकन्नेपन के साथ टहल लगा रहा था. बाहर, पिछवाड़े की तरफ हमारा चौकीदार भगवानदीन, तेल चुपड़ी और लोहे की टोप वाली लाठी लेकर दरवाजे के नजदीक के एक पेड़ के पास मोर्चा लेने को तैयार था. ओसारे की तरफ हमारा खानसामा सज्जाद एकदम इसी तैयारी के साथ दूसरे दरवाजे के पास एक झाड़ी में घात लगाये बैठा था.
पेट्रोल-पंप पर पहली बार जब खबर मिली तो मैं भी लगभग उतना ही भयभीत था जितना मेरे अब्बा-अम्मी. लेकिन अब, घर में, मेरी बदहवाशी की बड़ी वजह थी उनके चेहरे से झांकने वाली दहशतIमैंने पहले कभी अब्बा को ऐसी सूरत में ना देखा था.मैं कभी सोच भी नहीं सकता था कि बात-बात पर तुनक उठने वाले मेरे अब्बा जो अपने ऊंचे ओहदे और उस ओहदे से जुड़ी ताकत को लेकर एकदम निश्चिंत रहते थे, अचानक इतने असहाय और भयभीत हो उठेंगे. आखिर, उनके पास तीन गांवों की जमींदारी थी, खान साहब का ओहदा भी मिला हुआ था, फिर वे ऑनरेरी मैजिस्ट्रेट और स्पेशल रेलवे मैजिस्ट्रेट भी थे. बंद दरवाजों के पीछे पसरे नीम-अंधेरे में अपने आप को टोहता मैं दहशत में था. यही हालत, अम्मा, बहनों और बाकी सबकी थी यहां तक कि दादी को भी अंदर बुला लिया गया था- अमूमन जाड़े के दिनों में वे रसोई से लगते बरामदे में रहती थीं. कुछ देर बाद उन्होंने मुझे अपने बगल में बैठा लिया, मैं उनका दुलरुआ था- खुद को साधे हुए वे लगातार प्रार्थनाएं बुदबुदा रही थीं.
कोई दो घंटे का अरसा गुजरा होगा (क्या सचमुच ही इतना वक्त बीत गया था?) तभी हमें सुना कि लाऊडस्पीकर पर कुछ ऐलान किया जा रहा है. आवाज लगातार पास आते जा रही थी लेकिन दरवाजों के अंदर शब्द साफ सुनाई नहीं पड़ रहे थे. अपने कानों से टोह लेते हम भय से सिकुड़े जा रहे थे. आखिर को अब्बा ने एक दरवाजा खोला और बाहर निकले. वे बारजे पर खड़े होकर ऐलान सुनने लगे, खुले हुए हिस्से से हमारी फिक्रमंद आंखे उनपर टिकी हुई थीं.अचानक वे गाली बकने लगे- पहले कभी हमने उन्हें इतने जोर से और इतनी भद्दी गालियां देते ना सुना था. वे बारजे पर धूप में पूरे तैश के साथ खड़े थे. उनको पुराने अंदाज में देखकर हमारे हवाश थोड़े दुरुस्त हुए. साहस बटारकर मैंने बगल का एक दरवाजा खोला और बरामदे में आ गया. मेरे पीछे, दरवाजे के पास अम्मा और बहनें आ जुटीं. पुलिस या फिर फौज की कोई जीप या ट्रक रहा होगा.लाऊडस्पीकर इसी पर लगा था और कोई बार-बार ऐलान सुना रहा था. काश, मुझे ठीक-ठीक वही शब्द अब याद होते,लेकिन याद नहीं आ रहा. लेकिन उन लफ्जों का असर मुझे याद रह गया है – तुरंत भीतर तक उतर जाने वाली राहत का भाव. उन लफ्जों को सुनकर हमने चोरी-छिपे एक-दूसरे को मुस्करा कर देखा क्योंकि उन्हीं लफ्जों से हमने जाना कि (गांधी की) हत्या करने वाला एक हिन्दू है- कोई मुसलमान नहीं, बल्कि एक हिन्दू. जकड़ लेने वाली उस दहशत को अब हम पहचान सकते थे और राहत की वजह को भी. उस वक्त मेरी दादी ने बिल्कुल यही किया था. हमने सुना वह अल्लाह का शुक्रिया कर रही थी कि गांधी का हत्यारा एक हिन्दू निकला, अल्लाह की मेहर कि हत्यारा कोई मुसलमान नहीं था.
जल्दी ही हमारी जिन्दगी रोज के ढर्रे पर आ गई. अचानक चंद रोज तक बंद रहने के बाद स्कूल फिर से खुल गया. एक अबूझ अंतर यही दीख रहा था कि हमारे भूगोल के शिक्षक नहीं आ रहे. वे आरएसएस की स्थानीय शाखा के नेता थे. उन्हें कुछ हफ्तों के लिए हिरासत में रखा गया, फिर छोड़ दिया गया. अब्बा का मर्ज जल्दी ही जाहिर हो उठा और फिर अक्तूबर की एक रात इसी मर्ज ने उनकी जान ली. उनकी मौत से मेरी खुद की जिन्दगी भी बुनियादी तौर पर बदल गई. घर में अब अकेला मर्द मैं ही था,अम्मा पर्दे में रहती थीं, इसलिए अब घर में मुझे ही मुखिया के रुप में देखा जाने लगा, लेकिन यही चलन था और इसी की उम्मीद की जा रही थी. कुछ साल बाद सरकार ने जमींदारी खत्म कर दी और हमारी जीविका का बड़ा जरिया जाता रहा- लेकिन यही भी अपेक्षित था. चाहे थोड़े छोटे पैमाने पर मगर हम अब भी अपनी सफेदपोशी बरकरार रख पा रहे थे. मुकामी तौर पर रसूखदारों के बीच चली आ रही छोटाई-बड़ाई में फर्क पडा था लेकिन अब भी हमारी उनसे जान-पहचान थी और इससे भी बड़ी बात यह कि वे भी हमें अपना मान रहे थे.
नई बात यह हुई कि धीरे-धीरे हमने जाना कि जनवरी के उस दिन जो दहशत हमारी हड्डियों में उतर गयी थी और लगा कि जल्दी खत्म भी हो गयी है, दरअसल हमें छोड़कर कभी नहीं गयी.
(उपर्युक्त सामग्री का चयन और अनुवाद चंदन श्रीवास्तव ने किया है. वे सीएसडीएस की एक परियोजना www.im4change.org के लिए काम करते हैं और उनके आलेख समय-समय पर पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहते हैं)