तीसरे गियर में वाम राजनीति

मीडिया में इस तरह की प्रवृत्ति मैं देख रहा हूं, लेकिन सिर्फ इसलिए वामपंथियों की श्रद्धांजलि लिख डालना अभी जल्दबाजी होगी कि उनके समर्थन वापस ले लेने के बावजूद यूपीए सरकार लोकसभा में विश्वासमत हासिल कर चुकी है। 

मई 2007 में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में मायावती के हाथों बुरी तरह पिटने के बाद समाजवादी पार्टी बेसब्री से कांग्रेस से रिश्ते सुधारने की ताक में थी। और बाद में पांच विधानसभाओं के उपचुनाव में मायावती की एकतरफा जीत के बाद कठोर रुख दिखाने वाले अमर सिंह भी नरम पड़ने लगे थे। उनकी निगाहें उचित अवसर की तलाश में थीं और तमाम राजनीतिक पंडितों के उलट अमर सिंह को इसका भान काफी पहले उसी वक्त हो गया था जब कांग्रेस ने सलमान खुर्शीद को उत्तर प्रदेश से हटा दिया था। खुर्शीद अकेले व्यक्ति थे जो कांग्रेस-सपा गठजोड़ के खिलाफ थे। और उनकी पार्टी को उनकी इस ज़िद का काफी खामियाजा भी उठाना पड़ा। 

उत्तर प्रदेश में बीजेपी को नियंत्रित करने के लिए वाममोर्चा मुलायम का समर्थन कर रहा था विशेषकर बाबरी मस्जिद ध्वंस के दौरान पीवी नरसिंहा राव की कुंभकर्णी निद्रा के बाद से। यहां तक कि 2004 के पहले भी वामपंथियों की कोशिश थी कि उत्तर प्रदेश में सपा-कांग्रेस का गठजोड़ बन जाए। मगर कांग्रेस की अपने दम पर खड़े होने की इच्छा इसके आड़े आ गई। मुलायम 39 सीटें जीतने में सफल रहे जबकि मायावती 17 और कांग्रेस सिर्फ 9। एक भी सीट जीते बिना वाममोर्चा उत्तर प्रदेश की जाति आधारित लड़ाई में वर्ग आधारित संघर्ष के विचार को जीवित रखने की कोशिश कर रहा था। 

सत्ता से बेदखल मायावती को मुलायम सिंह और अमर सिंह शायद उत्तर प्रदेश में खुद को ज़िंदा रखने के पासपोर्ट के तौर पर देख रहे हैं। लेकिन कुछ वामपंथी रणनीतिकार इस पर अलग नज़रिया रखते हैं

राम मनोहर लोहिया ने बिल्कुल सही निष्कर्ष निकाला था कि भारत में जाति और वर्ग बहुधा एक ही नज़र से देखे जाते हैं। मुलायम के उभार में इसकी अहम भूमिका रही। उन्होंने काफी सावधानी से अपनी जातिवादी राजनीति को विचारधारा का चोला पहनाने की कोशिश की। जबकि मायावती के जबर्दस्त उदय के पीछे केवल एक विचारधारा रही—“दलित को सत्ता में लाने के लिए जो भी करना होगा मैं करूंगी। 

इस कोशिश में वो लगातार लगी रहीं बिना पूर्वाग्रह और अपनी सोच को सीमित किए हुए। उन्हें अहसास हो गया था कि अपने पक्ष में जातियों का दायरा फैलाए बिना वो ज़्यादा आगे तक नहीं जा सकतीं। उनके रुख में आए इस लचीलेपन ने वामपंथियों को भी ये भरोसा दिलाया कि वो अपनी शुरुआती राजनीतिक छवि से बाहर निकल चुकी हैं। अब दोनों पार्टियां एक पाले में खड़ी हैं। दोनो मिलकर किसी विमर्श तंत्र की स्थापना कर नए राजनीतिक समीकरणों को मजबूत कर सकते हैं। इसके लिए मायावती को कुछ लोगों को नामांकित करना पड़ेगा जो कि उनकी खुद को हर चीज़ के केंद्र में रखने की प्रवृत्ति के उलट होगा।

उत्तर प्रदेश के सियासी गुणा भाग में वाममोर्चे के पास मायावती को देने के लिए ज्यादा कुछ नहीं है। लेकिन मायावती सीपीआई को एक-दो सीटें जरूर दिलवा सकती हैं। वाममोर्चे से जुड़ाव में मायावती को भी फायदा होगा। इससे हाल में जातिवाद का चोला उतार फेंकने वाली उनकी छवि और पुख्ता हो जाएगी। इसके अलावा अमर सिंह द्वारा केंद्र सरकार पर मायावती के खिलाफ जांच का दबाव पड़ने की हालत में वाममोर्चा देश भर में इसके खिलाफ विरोध प्रदर्शन के जरिए उनकी सहायता करेगा।

सत्ता से बेदखल मायावती को मुलायम सिंह और अमर सिंह शायद उत्तर प्रदेश में खुद को ज़िंदा रखने के पासपोर्ट के तौर पर देख रहे हैं। लेकिन कुछ वामपंथी रणनीतिकार इस पर अलग नज़रिया रखते हैंइससे एक दलित महिला को शहीद का तमगा मिल जाएगा। ऐसी हालत में मायावती अपने सबसे करीबी मंत्री नसीमुद्दीन को मुख्यमंत्री बना सकती हैं। उत्तर प्रदेश का पहला मुसलमान मुख्यमंत्री। उस राजनीतिक परिदृश्य की कल्पना कीजिए।

वर्तमान परिदृश्य में सबसे बड़ी परेशानी ये है कि वाममोर्चे को मायावती की संगत में रहने की आदत नहीं है। इनके बीच सामंजस्य की रूपरेखा उभरनी अभी बाकी है। जबकि दूसरी तरफ सपा के साथ उनके पुराने अनुभवों को देखते हुए सहजता कहीं ज्यादा थी। सीपीआई के लिए एक बाध्यता ये भी है कि वो यादवों को नाराज़ नहीं कर सकती। सीपीआई को बिहार में अपनी तीन विधानसभा सीटों को बरकरार रखने के लिए लालू यादव के सहयोग की जरूरत पड़ेगी।

लोगों को उन वामपंथी नेताओं की बहुत याद आएगी, विशेषकर एबी बर्धन की, जो 80 साल की उम्र में भी मीडिया के बीच छाए हुए थे। सीपीएम और सीपीआई को जल्दी ही इसका एहसास हो जाएगा कि मीडिया में उनकी उपस्थिति और हिंदी बेल्ट में उनका असर दो बिल्कुल अलग-अलग चीज़ें थीं। उनकी ताकत पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा है। पूरे हिंदी इलाके से सिर्फ एक ही वामपंथी सांसद है, जिसने झारखंड में भाजपा के दिग्गज यशवंत सिन्हा को मात दी है। 

मेरा मानना है कि संसद में नोट लहराने का जनता के बीच ग़लत संदेश जाएगा। सांसदों द्वारा संसद भवन में नोट लहराना निहायत ही शर्मनाक था और जिन लोगों ने इस नाटक की भूमिका रची है उन्हें ही ये भारी पड़ेगा। फिलहाल तीन समीकरण दिख रहे हैंबीजेपी के नेतृत्व वाला एनडीए, कांग्रेस के नेतृत्व वाला यूपीए और तीसरा मोर्चा…. ?  चुनाव तक तो इसकी अगुवाई वाममोर्चा करेगा। चुनावों के बाद सांसदों की संख्या इस बात का फैसला करेगी कि यूएनपीए को यूपीए का साथ देना चाहिए या नहीं। इसकी वजह बिल्कुल साफ होगीभाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए को रोकना है।

सईद नक़वी

सईद नक़वी वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं।