…सबसे खुश हूं आज

‘महिलाओं के लिए 50 से 60 की उम्र सभी जिम्मेदारियों से मुक्ति की उम्र होती है. जिन कलाओं को वे पीछे छोड़ आईं थी, उन्हें वे फिर से नई जिंदगी दे सकती हैं’ 

इस उतरती अवस्था से सबको डर लगता है. इसलिए क्योंकि शारीरिक सौंदर्य जाने लगता है. स्त्रियों को आदत है, वे शारीरिक सौंदर्य के लिए ज्यादा फिक्रमंद रही हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि पुरुष सत्ता ने इसी को महत्व दिया है. इतिहास उठाकर देख लीजिए तमाम खूबसूरत स्त्रियां रानियां-पटरानियां बनीं. वह भी केवल अपने शारीरिक सौंदर्य के बल पर, बुद्धि में भले ही वे शून्य रही हों. यदि शकुंतला सुंदर न होती तो क्या दुष्यंत का उस पर दिल आता? अभिज्ञान शाकुंतल में केवल शकुंतला का सौंदर्य वर्णन है जबकि कुमार संभव में केवल पार्वती का सौंदर्य वर्णन किया गया है. कहने का मतलब यह कि पढ़-लिखकर जो प्रखरता आती है उसकी बात करें तो हमें पढ़ाया भी यही गया कि जो सुंदर होती हैं उन्हीं को अच्छे अवसर मिलते हैं.

तो उम्रदराज होने पर असली डर यही लगता था औरतों को कि जब सुंदर नहीं होंगे तो हमारा क्या होगा. यह डर आज भी औरतों को है, नहीं तो इतने अधिक ब्यूटी पार्लर नहीं होते. सच यह है कि ब्यूटी पार्लर से सुंदर पुस्तकालय होते हैं लेकिन वहां उतनी औरतें नहीं देखने को मिलेंगी. लेकिन जो अनुभव इस उम्र में मिलता है वह अतुलनीय है. इस उम्र को सकारात्मक सोच के साथ लेना चाहिए. हर उम्र में हम कुछ न कुछ ऐसा कर सकती हैं जो हमें उपयोगी साबित करे. 

अपनी बात करूं तो टीवी चैनलों और तमाम जगह बुलाकर हमारे मुंह पर कैमरे लगाए रहते हैं. मैं मजाक करती हूं कि जवानी में तो हमें कोई पूछता नहीं था और अब कैमरे लगाए रहते हैं. इस उम्र में जो मैंने पाया, जो मेरी उम्र की औरतों ने पाया है वह अनुभवों का खजाना है. वह युवावस्था में नहीं होता. उस वक्त अगर हम सोने जैसी थीं तो अब कुंदन जैसी हो जातीं हैं. 

इस उम्र में हम जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाती हैं. जवानी की वह उम्र तो बाल-बच्चे और परिवार में निकल जाती है. और अब हम अपने बारे में भी सोच सकते हैं. इस पर यह दलील दी जा सकती है कि नौकरीपेशा औरतें भी तो यह सब करती हैं लेकिन ऐसा नहीं है. वे दोहरी जिम्मेदारी निभा रही हैं जबकि हम 50 की उम्र में पूरी तरह मुक्त हो चुके होते हैं. जिस हुनर को हम कहीं पीछे छोड़ आए थे हम फिर से उसे नई जिंदगी दे सकते हैं. 

मैं एक उदाहरण देती हूं… मैं उन महिलाओं के बीच रही हूं जो किटी पार्टी आदि करती हैं. एक बार मुझे भी बुलाया गया. उस वक्त मैं लिखती नहीं थी. मैंने वहां लोगों से कहा कि मैं आप लोगों की तरह ताश और तंबोला नहीं खेल सकती. मुझे बताओ कि तुममें से किस-किस को क्या-क्या आता है? उनमें से सबको कुछ न कुछ आता था- कोई सितार बजाता था कोई तबला तो किसी को पेंटिंग करनी आती थी. लेकिन सब शादी के पहले की बात थी. मेरे कहने पर उन्होंने इसे रिवाइव किया. एक कार्यक्रम में उनको अपनी कला दिखाने का मौका मिला. मैं आपको बताऊं कि वे गाती और बजाती जा रही थीं और उनकी आंखों से झर-झर आंसू बहते जा रहे थे. उन सभी औरतों को 20-25 साल बाद अपनी कला दिखाने का मौका मिला. 

मैंने खुद शादी के 25 साल बाद लिखना शुरू किया. इसलिए क्योंकि इस बीच मुझे कुछ करने का मौका ही नहीं मिला. तो यह हमारी उम्र का सबसे सुनहरा समय है. इसकी हमें बाट जोहनी चाहिए कि यह कब आएगा. वह औरत कितनी भाग्यशाली है जिसके बच्चे बड़े हो गए हैं और जो पूरी जिम्मेदारी से मुक्त है. वह अपने लिए अपने तरीके से जी सकती है. 

मेरा अनुभव यही कहता है कि इस उम्र में जिसे उतरती अवस्था कहते हैं, उसमें मैंने चढ़ती उम्र जैसा उल्लास, साहस, हिम्मत और मुकाम हासिल किया है. मेरी बच्चियों के बाद मेरा क्रिएशन किताबें हैं. यह लेखन की बात हो गई लेकिन अगर हम आम महिलाओं की बात करें तो उन सभी में कोई न कोई हुनर होता है. क्या तुम सोच सकते हो कि मैंने एक-एक साल में 30-30 स्वेटर बुने हैं. मैंने खूबसूरत डलिया बनाई हैं. तो इन सारे कामों में आप तमाम तरह की खुशी और रचनात्मकता हासिल कर सकते हैं. मुद्दा केवल यह है कि हमें हतोत्साहित नहीं होना है. निराशावादी नजरिया बदलना होगा. अगर आपने यह सोच लिया कि अब क्या करना है या अब क्या सीखना है तो इसका मतलब आपने अपनी सीखने की क्षमता पर विराम लगा दिया. गांवों में औरतें ऐसी होती हैं जिनकी कोई न कोई खासियत होती है. कोई उपले बनाने में कलाकार है, कोई गीत बहुत अच्छा गाती है, कोई दादी-नानी हो गई लेकिन नाचती बहुत है. वे कोई किताब नहीं लिख रही हैं न कोई फिल्म बना रही हैं लेकिन उनकी कला का मोल अलग है. 

मेरा कहने का मतलब यह है कि उम्र के इस पड़ाव पर उनको न तो सीखने से हिचकिचाना चाहिए और न ही अपने काम को पेश करने में पीछे हटना चाहिए. इस उम्र में हमें अपनी गरिमा का भी पूरा खयाल करना चाहिए, कि हमारे किए या कहे शब्दों का लोगों पर क्या असर पड़ेगा? मैं अगर लेखिका नहीं होती तो मैं लोक नर्तकी होती और गांव-गांव नाचती. औरत कहीं भी जाकर किसी भी मुकाम पर खुद को साबित कर सकती है. ऐसे में उम्र का यह पड़ाव तो एक तरह का तोहफा है उसके लिए.

इस उम्र की एक और खासियत यह है कि इस उम्र में नैतिकता के छद्म आरोपित दबावों से पूरी तरह निजात मिल जाती है. युवावस्था में हम पर अनेक तरह के नैतिक दबाव डाले गए होते हैं जिनको हमें किसी न किसी तरह निबाहना होता है लेकिन 50 के बाद का वक्त हम पूरी तरह इन दबावों के साये से दूर अपने लिए बिता सकते हैं. उम्र के उस दौर में जहां तमाम महिलाएं जाने-अनजाने, चाहे-अनचाहे पुरुष मानसिकता की छाया तले ही जीवन बिताती हैं वहीं उम्र के इस पड़ाव पर हम अपने निर्णय लागू करने की स्थिति में होती हैं. हमें आडंबरों से पूरी तरह मुक्ति मिल चुकी होती है.