उत्तराखंड के उधमसिंह नगर जिले में एक गांव है, राजपुरा. गांव में कुछ बड़े किसान हैं और बाकी बंगाली शरणार्थी या उत्तर प्रदेश से आए खेतिहर मजदूर. गदरपुर नाम के एक कस्बे के पास बसे इस गांव के कुल 800 वोटरों में से आधे भूमिहीन हैं. इसी गांव के नीलूबल्लभ को 28 सितंबर, 2005 को राज्य पुलिस ने माओवादी बताते हुए गिरफ्तार किया था. उनके साथ दो अन्य व्यक्तियों की भी गिरफ्तारी हुई थी. पुलिस के अनुसार उस दिन सात माओवादी पास के राधाकांतपुर गांव के सूदखोर कोकन गोलदार की हत्या करने आए थे जिनमें चार गोलीबारी और मुठभेड़ के बाद भाग गए थे.
नीलू अकेले नहीं थे जिन पर उस दौर में माओवादी होने का आरोप लगा था. तब इस आरोप में बहुत-से लोगों की गिरफ्तारियां हुई थीं. दरअसल उत्तराखंड का उधमसिंह नगर जिला नेपाल की सीमा से लगा है. उन दिनों नेपाल में माओवादी संघर्ष सत्ता हासिल करने के करीब था. इन गिरफ्तारियों को तब पुलिस और राज्य सरकार ने माओवाद को काबू में करने की दिशा में एक बड़ी सफलता बताया था.
लेकिन ऐसे एक मामले में बीती 14 जून को उधमसिंह नगर की एक त्वरित अदालत का जो फैसला आया है उससे पुलिस द्वारा तब किए गए बड़े दावों की पोल खुलती दिख रही है. इससे यह भी लगता है कि जिन मामलों को पुलिस राष्ट्र के खिलाफ युद्ध बता रही थी वे वास्तव में उसने अपनी पीठ थपथपाने के लिए खुद तैयार किए थे. बाकी मामलों पर भी गौर करें तो साफ लगता है कि पिछड़े इलाकों का विकास करने के बजाय सरकार सिर्फ पुलिसिया कार्रवाई करके माओवाद से लड़ना चाहती है.
50 साल के नीलूबल्लभ बंगाली भूमिहीन शरणार्थी हैं और एक अधबने घर में अपनी पत्नी, तीन बेटों और विधवा मां के साथ रहते हैं. परिवार की रोजी-रोटी बड़े किसानों के खेतों या पास की फैक्टरियों में मजदूरी से चलती है. वे बताते हैं कि पुलिस ने उन्हें 25 सितंबर को ही गदरपुर बाजार जाते हुए उठा लिया था. तीन दिन तक अलग-अलग थानों में अमानवीय यातना और पूछताछ के बाद 28 सितंबर को दिनेशपुर थाने की पुलिस ने उनकी गिरफ्तारी दिखाई. पुलिस ने इस मुठभेड़ में वांछित बताए गए माओवादियों के जोनल कमांडर, अनिल चौड़कोटी और पत्रकार जीवन चंद्र को भी पकड़ा.
पर सवाल यह है कि राज्य की कितनी सीटों पर खुद मुख्यमंत्री चुनाव लड़ेंगे और और कितनी विधानसभा सीटें सितारगंज हो पाएंगी.
नीलू बताते हैं कि गिरफ्तारी से पहले उन्हें माओवादी आंदोलन के बारे में कुछ भी पता नहीं था. वे तब तक चौड़कोटी को भी नहीं जानते थे. जीवन चंद्र बताते हैं कि वे नैनीताल जिले के रामनगर कस्बे में होने वाले एक सम्मेलन के लिए जनसमर्थन जुटाने गदरपुर गए थे जहां से उन्हें पुलिस ने हिरासत में ले लिया था. जीवन ने उधमसिंह नगर पुलिस द्वारा की जा रही अवैध उगाही पर अपने अखबार का विशेष अंक निकाला था. उनके अनुसार पुलिस इसीलिए उन्हें सबक देना चाहती थी.
तराई कहे जाने वाले उत्तराखंड के इस हिस्से में हजारों बीघा सीलिंग की भूमि ताकतवर किसानों और भूमाफियाओं के कब्जे में है. यहीं नीलू जैसे एक लाख से अधिक बंगाली शरणार्थी और अन्य भूमिहीन भी हैं. भूमिहीन मजदूर नीलू का दोष इतना था कि वे ‘मजदूर किसान संघर्ष समिति’ (एमकेएसएस) के बैनर तले 1998 से होने वाले गरीबों के हर आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते थे. इस संगठन के अध्यक्ष उनके गांव के पास के कस्बे दिनेशपुर के मास्टर प्रताप सिंह थे. 28 सितंबर की मुठभेड़ से एक दिन पहले पुलिस ने सिंह के घर पर छापा मारा था. उनके न मिलने पर उनके बेटे और पत्रकार रूपेश कुमार को हिरासत में लिया गया था. पत्रकारों के तीखे विरोध के कारण पुलिस ने रूपेश को तो छोड़ दिया था, लेकिन अन्य तीन को माओवादी बताते हुए इनकी गिरफ्तारी को बड़ी उपलब्धि बताया था.
इससे करीब एक साल पहले 29 अगस्त, 2004 को उधमसिंह नगर में थाना नानकमत्ता पुलिस ने भी रंसाली नाम के एक जंगल से पांच कथित माओवादियों को गिरफ्तार किया था. इनमें हयात राम, उनका बेटा प्रकाश और रमेश राम शामिल थे जो नैनीताल जिले में पड़ने वाले हंसपुर खत्ते के निवासी थे. खत्ता तराई के बीहड़ जंगलों में बसे छोटे-छोटे गांवों को कहते हैं. इनमें पशुपालक समुदाय रहते हैं. चौथा उनका एक रिश्तेदार कैलाश था. गिरफ्तार लोगों में पांचवां शख्स कल्याण सिंह, हंसपुर से लगे उधमसिंह नगर के सितारगंज क्षेत्र का रहने वाला था. कल्याण सिंह तराई में तब तक हुए हर भूआंदोलन में सक्रिय रहे थे. बाद में इसी मामले में नैनीताल जिले के दो युवकों हरीश राम और संतोष राम को भी गिरफ्तार किया गया. इसके बाद ईश्वर चंद्र उर्फ जूनियर और गोपाल भट्ट नाम के दो व्यक्तियों की भी गिरफ्तारी हुई. 2005 में दिनेशपुर मुठभेड़ में गिरफ्तार अनिल चौड़कोटी भी इस मामले में आरोपित बने. सुनवाई के दौरान 22 साल के कैलाश राम और 70 साल के कल्याण सिंह की मृत्यु हो गई. हंसपुर मामले में गिरफ्तार सात अभियुक्त अनुसूचित जाति के भूमिहीन और गरीब कृषि मजदूर थे.
लेकिन हंसपुर खत्ता मामले की सुनवाई के दौरान उठे बहुत-से सवालों ने पुलिस की किरकिरी करवाई. जैसे घटना स्थल तक वाहन नहीं जा सकते थे. लेकिन एफआईआर के अनुसार रंसाली के जंगल में ट्रैक्टरों की आवाज और पुलिस फोर्स को देखकर मीटिंग कर रहे पांच संदिग्ध लोग जंगल की ओर भागने लगे. इस हाईप्रोफाइल मामले में पुलिस के ‘गुड वर्क’ की पोल तब खुल गई जब जूनियर की गिरफ्तारी के समय उनके पास पकड़े गए ओर उसी दिन सील किए गए सामान को अदालत के सामने खोला गया. 20 सितंबर को गिरफ्तारी के दिन सील किए गए इस ’अपत्तिजनक और राष्ट्रद्रोही‘ साहित्य को अदालत के सामने खोलने पर पता चला कि यह सामान सील किए जाने के दो महीने बाद के यानी 23 नवंबर, 2004 के अखबारों पर लपेटा गया था. इस मामले में 23 नवंबर, 2004 को ही पुलिस ने कोर्ट में चार्जशीट दाखिल की थी. साफ है कि इस हाईप्रोफाइल मामले में सारी सावधानी बरतने का दावा करने वाली पुलिस ने चार्जशीट दाखिल करने के दिन ही यह सामग्री कहीं और से लाकर सील की. अदालत ने 20 सितंबर को हुई प्रतिबंधित और राष्ट्रद्रोही साहित्य की बरामदगी को बिल्कुल फर्जी माना. पुलिसकर्मियों ने जिरह में माना कि उन्हें पता नहीं था कि जो साहित्य जूनियर के पास मिला वह केंद्र या राज्य सरकार द्वारा प्रतिबंधित है या नहीं. नतीजा यह हुआ कि हंसपुर खत्ता मामले में अदालत ने सभी आरोपितों को बरी कर दिया.
साफ लगता है कि जिन मामलों को पुलिस राष्ट्र के खिलाफ युद्ध बता रही थी वे वास्तव में उसने अपनी पीठ थपथपाने के लिए खुद तैयार किए थे
उधर, राधाकांतपुर मुठभेड़ का मामला अदालत में गवाही के स्तर पर है. कानून के जानकार इसे भी कमजोर और पुलिस द्वारा बनाया गया मामला बता रहे हैं. इस मामले में जिस स्थान पर मुठभेड़ और गोलाबारी वाली घटना बताई गई है वह भीड़-भाड़ वाला इलाका है. लेकिन आस-पास किसी को उस मुठभेड़ का पता नहीं चला. दिन दहाड़े गोलियां चलने, आतंकियों के भागने और पुलिस के कांबिंग करने के बाद आस-पास के लोगों को घटना का पता न चले, यह बात हजम नहीं होती.
उधर, हंसपुर खत्ता मामले में शामिल भूमिहीन मजदूर-किसानों और युवकों के इन मामले में जमानत होने की संभावना बनते ही पुलिस ने इनमें से अधिकांश पर उत्तराखंड में अलग-अलग जिलों में और मुकदमे दर्ज कर दिए. आठवीं पास हरीश और उसके गांव के अनपढ़ संतोष राम दोनों गरीब भूमिहीन कृषि श्रमिक हैं. इन दोनों पर हंसपुर के अलावा अल्मोड़ा, चम्पावत और हल्द्वानी में मुकदमे दर्ज किए गए. ये दोनों गरीब लगभग साढ़े छह साल जेल में रहे. हरीश के घर में एक बूढ़े पिता और एक छोटा नाबालिग भाई है. वह बताता है, ‘हम दोनों का कोई पूछने वाला नहीं था, इसलिए हमें फंसाया गया.’ हरीश फिलहाल हल्द्वानी में एक होटल में काम करता है. उसे अब भी पता नहीं कि जिस माओवाद के कारण वह साढ़े छह साल जेल में रहा वह वास्तव में है क्या बला.
हंसपुर खत्ते मामले में 28 वर्षीय जूनियर उर्फ ईश्वर चंद्र को सबसे पहले जमानत मिली थी. वे बताते हैं कि जमानत पर छूटने के बाद पुलिस के दबाव के चलते उन्हें कई बार मकान बदलना पड़ा. उनके मुताबिक पुलिस के दबाव में उन्हें 5,000 रुपये महीने पगार वाली नौकरी से भी निकाल दिया गया. वे अब किसी तरह जिंदगी को फिर से सही ढर्रे पर लाने की कोशिश में हैं. प्रकाश राम और उसके पिता हयात राम दो साल जेल में रहे. प्रकाश अब सितारगंज में फैक्टरी मजदूर हैं.
माओवाद के नाम पर तीसरे और महत्वपूर्ण मामले में 22 दिसंबर, 2007 को पत्रकार प्रशांत राही को गिरफ्तार किया गया था. उनकी गिरफ्तारी हंसपुर खत्ते के पास से दिखाई गई थी. पुलिस का आरोप था कि उन्होंने अपने माओवादी साथियों के साथ मिलकर गिरफ्तारी के तीन महीने पहले हंसपुर खत्ता क्षेत्र में प्रशिक्षण शिविर चलाया था. लेकिन जमानत पर छूटने के बाद राही ने बताया था कि उन्हें 17 दिसंबर को राजधानी देहरादून के भीड़-भाड़ वाले इलाके धर्मपुर से गिरफ्तार किया गया था. देहरादून से पकड़ने के पांच दिन बाद पुलिस ने राही को हंसपुर खत्ते के पास से गिरफ्तार दिखाया. राही ने पुलिस पर आरोप लगाए कि उन्हें हिरासत में लेने के बाद पुलिस उन्हें गाड़ी में नकाब डाल कर अज्ञात स्थानों पर ले गई और उन्हें यातनाएं दी गईं. पत्रकार राही की उत्तराखंड में हुए कई जन आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी रही थी. बाद में उनकी पत्नी चंद्रकला को भी इसी मामले में गिरफ्तार किया गया. दोनों फिलहाल जमानत पर हैं.
इसी मामले में फरवरी, 2008 में गोपाल भट्ट और दिनेश पांडे की भी गिरफ्तारी की गई. छात्र आंदोलनों में काफी सक्रिय रहे भट्ट को हंसपुर खत्ता, दिनेशपुर और प्रशांत राही मामले के अलावा बिहार के पूर्वी चंपारण जिले में भी एक मामले में आरोपित बनाया गया है. वे भी साढ़े तीन साल जेल में रहे. दिनेश पांडे के मुताबिक उन्हें उनके एडवोकेट चाचा और भाई के चैंबर से पूछताछ के बहाने ले जाया गया और अगले दिन ध्यानपुर के जंगलों से गिरफ्तार दिखाया गया.
छात्र संगठनों में सक्रिय रहे अनिल चौड़कोटी अलग-अलग मामलों में साढ़े छह साल जेल में रहने के बाद जमानत पर छूट पाए हैं. हंसपुर खत्ता अल्मोड़ा और चंपावत मामले में बरी होने के बाद अब उन्हें पूर्वी चंपारण जिले की माओवादी घटनाओं में शामिल दिखाते हुए अभियुक्त बनाया गया है. अल्मोड़ा से साप्ताहिक अखबार निकालने वाले और चौड़कोटी के साथ गिरफ्तार किए गए जीवन चंद्र भी साढ़े तीन साल जेल में रहे. जमानत के बाद फिर अखबार निकालने पर पुलिस ने जीवन के माओवादी गतिविधियों में फिर सक्रिय होने की दलील के साथ उच्च न्यायालय से उनकी जमानत निरस्त कराने का निवेदन किया था, लेकिन अदालत ने यह तर्क नकार दिया.
आज तक उत्तराखंड में माओवादी या नक्सली हिंसा का एक भी मामला दर्ज नहीं हुआ है. लेकिन माओवाद के नाम पर छह मुकदमे दर्ज किए गए हैं. इन मुकदमों में आठ भूमिहीन कृषि मजदूरों के अलावा अन्य छह को घुमा-फिरा कर अभियुक्त बनाया गया है. इनमें से हंसपुर खत्ता, अल्मोड़ा व चंपावत मामलों में सभी अभियुक्त बरी हो गए हैं. इन सभी मामलों को न्यायालय में लड़ने वाली राजनैतिक बंदी रिहाई समिति के सदस्य पान सिंह बोरा कहते हैं, ‘किसी विचारधारा से सहमति या असहमति हो सकती है, लेकिन उससे सहमति रखने के नाम पर और उसका साहित्य पढ़ने के नाम पर किसी को गिरफ्तार करना लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं.’
देश के कई राज्य नक्सली हिंसा की चपेट में हैं. जानकार मानते हैं कि माओवाद के पनपने का कारण इन दूरस्थ क्षेत्रों का विकास न होना और वनों और प्राकृतिक संसाधनों पर उनके परंपरागत अधिकार को समाप्त होना है. केंद्रीय गृह मंत्रालय ने माओवाद से लड़ने के उपायों के तहत पुलिस बलों को सुविधासंपन्न बनाने के साथ-साथ इन क्षेत्रों के विकास के लिए समन्वित योजना बनाने की बात कही है. यह भी तय हुआ है कि इन क्षेत्रों में केंद्रीय योजनाओं की विशेष निगरानी करके इनके विकास पर ध्यान दिया जाएगा.
हंसपुर खत्ते में माओवादी प्रशिक्षण शिविर चलने की दो बहुप्रचारित घटनाओं के आठ साल बाद भी वहां विकास के नाम पर कुछ नहीं हुआ है
जानकार मानते हैं कि उत्तराखंड में भी माओवाद से निपटने के नाम पर केंद्र सरकार ने पुलिस बलों को करोड़ों रुपये दिए हैं. जिस साल प्रशांत राही की गिरफ्तारी हुई, उसी साल उत्तराखंड सरकार ने केंद्र से माओवाद से निपटने के नाम पर 208 करोड़ रुपये की मांग की थी. इस तथ्य के बावजूद कि तब तक राज्य में नक्सली हिंसा से जुड़ी कोई वारदात नहीं हुई थी. उसे इतनी रकम तो नहीं मिली पर सीमांत क्षेत्रों के आधुनिकीकरण के मद में 8.71 करोड़ रुपये मिल गए. अगले साल यह रकम बढ़कर करीब 19 करोड़ रु हो गई. लेकिन हंसपुर खत्ता में माओवादी प्रशिक्षण शिविर चलने की दो बहुप्रचारित घटनाओं के आठ साल बाद भी वहां विकास के नाम पर कुछ नहीं हुआ. होता भी कैसे? अब भी न तो यह राजस्व ग्राम है और न ही ग्राम सभा. फिर कैसे यहां राज्य और केंद्र की किसी योजना का पैसा आता? वन विभाग की कच्ची सड़क से साल के छह महीने हंसपुर नहीं पहुंचा जा सकता. खत्ते में न तो बिजली है न ही पानी. देश भर में भले ही पंचायत राज की धूम मची हो लेकिन इस खत्ते के लोगों की न कोई पंचायत है न ही प्रतिनिधि. उत्तराखंड में तराई के अन्य सैकड़ों खत्तों का हाल भी हंसपुर जैसा ही है. राज्य सरकार भले ही माओवाद के नाम पर मिले करोड़ों रुपये से अपनी पुलिस को सुविधासंपन्न कर चुकी हो लेकिन उसके अधिकारियों और नेताओं ने कभी कथित रूप से माओवादी विचारधारा के संक्रमण में आ रहे इन खत्तों की समस्या के लिए राजनीतिक हल की पहल नहीं की.
वनवासियों के बीच माओवाद का प्रसार कम करने के लिए संसद में 2007 में अनुसूचित जनजाति और वनवासी अधिकार कानून पारित हुआ. इस कानून के अनुसार तीन पीढ़ियों से अधिक वन विभाग की जमीन पर रहने वालों को वहां भूमिधरी अधिकार मिलने थे. कानून के लागू होने के पांच साल बाद भी उधमसिंहनगर, नैनीताल और हरिद्वार जिलों के तराई के खत्तों में पीढ़ियों से रह रहे हजारों परिवारों में से अभी तक किसी को भूमिधरी का अधिकार नहीं मिल पाया है.
नेपाल के माओवादी नेता प्रचंड ने हाल ही में ‘तहलका’ को दिए एक साक्षात्कार में भारत के माओवादियों से अपील की थी कि वे भी नेपाली माओवादियों की तरह हिंसा का रास्ता छोड़ कर राजनीतिक प्रक्रिया में भरोसा करें. बात एक तरह से सच भी है. भले ही बंगाली शरणार्थी नीलू को भूमिधरी के आंदोलनों में शामिल होने के चलते माओवादी होने के आरोप में जेल जाना पड़ा हो, लेकिन इन्हीं भूमिहीन बंगालियों की भूमिधरी पाने की आकांक्षा मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के विधानसभा पहुंचने में सबसे बड़ा कारक बनी. उधमसिंह नगर जिले में ही सितारगंज के विधायक किरन मंडल ने बंगालियों को भूमिधरी अधिकार दिलाने की मांग के साथ अपनी सीट विजय बहुगुणा के लिए खाली की और मुख्यमंत्री 40,000 मतों से उपचुनाव जीत गए. इसके एवज में मुख्यमंत्री ने उपचुनाव से पहले कृषि पट्टों को भूमिधरी में बदलने वाला शासनादेश जारी किया. यानी यह सब राजनीतिक प्रक्रिया से ही हुआ.
लेकिन सवाल यह है कि मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा कितनी सीटों से चुनाव लड़ेंगे और कितनी विधानसभा सीटें सितारगंज हो पाएंगी.