अब सवाल ये उठता है कि इस पूरे घटनाक्रम का भाजपा, एनडीए और सबसे अहम, जनमानस पर क्या असर पड़ने वाला है?
आडवाणी की चिंता के कारण समझे जा सकते हैं. वोटिंग के तीन दिनों पहले से ही राजनीतिक पंडितों और मीडिया में चर्चाएं होना शुरू हो गईं थीं कि सरकार बचाने के लिए भाजपा ने अपनी अप्रत्यक्ष सहमति दे दी है. मीडिया का ये विश्वास कपोल-कल्पना पर आधारित नहीं था. भाजपा में हर कोई इस बात को जानता है कि पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ऐसी किसी भी स्थिति के सख्त खिलाफ थे जो इस साल आम चुनाव का कारण बने. उनके इस रुख का ठीक-ठीक कारण क्या है कहा नहीं जा सकता. हालांकि पार्टी की शीर्ष निर्णय इकाई में अध्यक्ष का वजन ज्यादा नहीं है फिर भी सिंह का विरोध पार्टी की एकराय में बाधा बन गया. पिछले सोमवार को पूरे दिन सिंह के करीबी पार्टी के एक नेता संसद के केंद्रीय हॉल में बैठकर मीडिया से ऑफ द रिकॉर्ड फुसफुसाते रहे कि यूपीए सरकार का तत्काल पतन भाजपा के हित में नहीं है.
शीर्ष स्तर पर इस तरह की बगावत की अहमियत कम करके नहीं आंकी जानी चाहिए. पहले तो ऐसे समय पर, जब तत्काल निर्णय जरूरी थे, इसने भाजपा की निर्णय लेने की पहले से ही धीमी रफ्तार को और भी सुस्त कर दिया. लंबे समय तक रही ये अनिश्चितता भी एक कारण रही कि झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) ने यूपीए के साथ रहने का फैसला किया. हालांकि झामुमो को सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण सहयोगी तो नहीं कहा जा सकता मगर अगले लोकसभा चुनाव में झारखंड में भाजपा-जद(यू)-झामुमो का गठबंधन बहुत शक्तिशाली साबित होता. दूसरा, धारणा ये बन गई थी कि भाजपा सरकार गिराने के प्रति गंभीर नहीं है. इससे यूपीए के संकटमोचकों को भाजपा के पाले में सेंध लगाने का उत्साह मिल गया जिससे आखिरकार सरकार बच गई.
उधर, आडवाणी सरकार को गिराने के लिए कृतसंकल्प थे. यहां तक कि ऐसा करने के लिए उन्होंने नेपथ्य में वाममोर्चे और बसपा के साथ अनौपचारिक तालमेल का इंतजाम भी कर लिया था. उनका ये संकल्प भारत-अमेरिका परमाणु करार पर पार्टी के विरोध के कारण नहीं था. इसकी मुख्य वजह था आडवाणी का विश्वास. आडवाणी को यकीन था कि मनमोहन सिंह सरकार के गिरने से कांग्रेस में हर स्तर पर हताशा की एक लहर पैदा हो जाएगी जिसका आगे चलकर चुनाव परिणामों पर सीधा असर होगा. आडवाणी ये भी मान रहे थे कि राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, दिल्ली और उड़ीसा में लोकसभा और विधानसभा चुनावों के साथ-साथ होने से यूपीए के खिलाफ सत्ता विरोधी राष्ट्रीय लहर स्थानीय सत्ताविरोधी लहर पर भारी पड़ जाएगी. आडवाणी सरकार को गिराने के लिए कृतसंकल्प थे. यहां तक कि ऐसा करने के लिए उन्होंने नेपथ्य में वाममोर्चे और बसपा के साथ अनौपचारिक तालमेल का इंतजाम भी कर लिया था.
अगर यूपीए के लिए सबकुछ ठीक हुआ होता तो विश्वास मत पर इसकी आसान जीत से भाजपा में काफी हताशा पैदा हुई होती. पार्टी के इतने सारे सांसदों के बागी होने को आडवाणी की अकुशलता के उदाहरण के रूप में पेश किया गया होता. मनमोहन ने जिस तरह से अपनी शैली के विपरीत आडवाणी पर हमला करते हुए उनकी खिल्ली उड़ाई उससे इस संदेह को बल मिलता है कि विश्वास मत की जीत को और मज़बूत करने के लिए बीजेपी को तोड़ने की सुनियोजित तैयारी की गई थी.
मगर ये तैयारी अगर पूरी तरह कामयाब नहीं हो पाई तो इसका कारण ऐन वक्त पर लोकसभा में भाजपा सांसदों का नोटों के बंडल लहराना रहा. इस घटना को भाजपा नियोजित ऑपरेशन मानने वाले लोग आंशिक रूप से सही हैं. भाजपा ने अंतिम क्षणों में यूपीए के लापरवाह रवैये का फायदा उठा, सरकार बचाने के लिए अपनाए जा रहे अनैतिक तरीकों को रोशनी में लाने की कोशिश की थी. पार्टी नेतृत्व को साफ तौर पर मालूम था कि यूपीए द्वारा सांसदों की खरीद-फरोख्त का खुलासा करने के लिए एक स्टिंग ऑपरेशन किया जा रहा है. पहले योजना ये थी कि जिस चैनल के साथ मिलकर इसे अंजाम दिया जा रहा है वो मंगलवार की दोपहर फोन पर हुई बातचीत और कैमरे पर दर्ज तस्वीरों का प्रसारण करेगा. दुर्भाग्यवश संबंधित चैनल ने आखिरी वक्त पर अपने हाथ पीछे खींच लिए. इसके बाद तीन सांसदों के पास चारा यही था कि वे सरकार के संकटमोचकों द्वारा अपनाए जा रहे भ्रष्ट तरीकों का खुलासा करने के लिए कोई दूसरा विकल्प खोजें. संसद में दिखे नाटकीय दृश्य इसी का परिणाम थे.
इसमें कोई शक नहीं है कि उस दिन संसद में जो हुआ, और जिसके गवाह करोड़ों लोग बने, उससे सरकार के कई इरादों को धक्का लग सकता है. इस घटनाक्रम ने सरकार की जीत को दागदार बना दिया. हार से निराश विपक्ष यही सोचकर तसल्ली कर रहा है कि यूपीए की नैतिक हार हुई है. एनडीए में हताशा की लहर पैदा करने की बजाय रिश्वत पर हुए हंगामे ने उसे एक नया औऱ शक्तिशाली मुद्दा दे दिया है.
यहां पर ये याद रखना अहम है कि आडवाणी के लिए विश्वास मत का ये अनुभव किसी हमले में बाल-बाल बचने जैसा रहा है. सरकार के सबसे चतुर संकट प्रबंधकों की योजना तो ये थी कि विश्वास मत पर जीत को आडवाणी के नेतृत्व पर हमले के साथ जोड़कर दोहरी चोट की जाए. अगर संसद में तीन सांसदों ने विरोध प्रदर्शन नहीं किया होता तो ये योजना सफल भी हो चुकी होती. आडवाणी को एक ऐसा अप्रेरणादायी नेता मान लिया जाता जो अपने झुंड को भी इकट्ठा नहीं रख सकता. इससे उनकी पकड़ कमजोर होती और बगावत का एक नया दौर शुरू हो जाता. इसके अलावा ऐसे में तीसरे मोर्चे को ये दावा करने का मौका मिल जाता कि वही असली विपक्ष है. कांग्रेस भी ऐसा ही चाहती थी क्योंकि ऐसे में दिग्भ्रमित एनडीए समर्थकों का लाभ स्वाभाविक रूप से उसे ही मिलता. इस तरह देखा जाए तो मंगलवार की शाम को आडवाणी ने एक नजदीकी तख्तापलट को टाल दिया.
कोई कम तजुर्बेकार नेता इस तरह के खतरे पर बिना सोचे प्रतिक्रिया कर सकता था. मगर आडवाणी खतरे से निपटने की कोशिशों के साथ ऐसा दिखने की कोशिश भी करेंगे मानो कुछ हुआ ही न हो. इसके अपने लाभ हैं क्योंकि इससे उन लोगों का कद कम हो जाता है जिनकी जिंदगी ही साजिशों के इर्द-गिर्द घूमती है. मगर इससे एक नुकसान भी हो सकता है वो ये कि निश्चिंतता का ये आवरण पार्टी को सबक सीखने से वंचित कर सकता है.
इस अनुभव का सबसे अहम सबक ये है कि चुनावी जोड़-तोड़ को लेकर भाजपा अब तक ऐसी कोई सुनियोजित रणनीति नहीं बना पाई है जिसके बल पर वह यूपीए को पटखनी दे सके. 1996 में केंद्र में पहली बार बनी अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार 13 दिनों में ही इसी वजह से गिर गई थी क्योंकि भाजपा अकाली दल के अलावा दूसरे नए साथी ढूंढने में नाकामयाब रही थी. इस असफलता के कई कारण थे. इनमें से प्रमुख ये था कि पार्टी अपनी परंपरागत छवि से ऊपर नहीं उठ पाई थी. 1998 से 2004 तक सफलता से गठबंधन सरकार चलाने के बावजूद भाजपा अब भी राजनीतिक अस्पृश्यता से संबंधित कठिनाइयों का सामना कर रही है. गठबंधन राजनीति और लचीलेपन की जरूरत की बाध्यताओं को लेकर आडवाणी संवेदनशील जरूर हैं(ये बात उन्होंने संसद में दिए गए अपने भाषण में भी जोर देकर कही है) मगर कांग्रेस के मुकाबले, नए दोस्त बनाने के खेल में भाजपा नेता काफी अनुभवहीन हैं. जहां इसकी स्थिति मजबूत है वहां तो फिर भी ठीक है मगर जहां मुकाबला बराबर का हो या स्थितियां विपरीत हों तो वहां पार्टी फिसल जाती है जैसे गोवा और झारखंड में देखने को मिला. विश्वास मत पर इसकी उद्देश्यहीन तैयारियों का अतिरेक भी इस बात की पुष्टि करता है. आदर्श स्थिति में भाजपा को यूएनपीए में मची अस्थाई उलट-पुलट का लाभ उठाकर इसका इस्तेमाल एनडीए का दायरा बढ़ाने में करना चाहिए था. मगर असमंजस में खड़ी ये उस शून्य को काफी समय तक देखती रही जो सपा के यूएनपीए छोड़ने से पैदा हुआ था. इससे मायावती को नाटकीय रूप से इस जगह को कब्जाने का मौका मिल गया. योजना तो ये थी कि विश्वास मत पर जीत को आडवाणी के नेतृत्व पर हमले के साथ जोड़कर दोहरी चोट की जाए. अगर संसद में तीन सांसदों ने विरोध प्रदर्शन नहीं किया होता तो ये योजना सफल भी हो चुकी होती.
आडवाणी के लिए विश्वास मत का दूसरा सबक ये है कि किसी नीति पर असमंजस को लंबे समय तक बनाए रखने का कोई फायदा नहीं होता. ये जगजाहिर है कि भारत-अमेरिका परमाणु करार पर अपनी नीति को लेकर भाजपा पूरे समय असमंजस में रही. पार्टी के एक धड़े ने इसे वाजपेयी सरकार द्वारा की गई पहल की तर्कसंगत अगली कड़ी के तौर पर देखा वहीं दूसरे गुट ने इसे चीन और इस्लामी आतंकवाद के खिलाफ आड़ की तरह काम आने वाला रणनीतिक गठजोड़ माना. तीसरा धड़ा मान रहा था कि ये कदम अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में भारत को चंद गिने-चुने देशों की श्रेणी में ले आएगा. इसके अलग-अलग कारण हो सकते हैं मगर इनमें और वामदलों और दूसरे लोगों के करार विरोधी विचारों में दूर-दूर तक कोई समानता नहीं है.
आडवाणी को काफी समय से इस बात का एहसास रहा है कि परमाणु करार का ज़्यादा विरोध करने पर पार्टी के मज़बूत मध्यवर्गीय वोटबैंक के खिसकने का खतरा पैदा हो सकता है. इसीलिए आडवाणी ने एक घरेलू कानून के माध्यम से हाइड एक्ट के नकारात्मक प्रभावों को खत्म करने की बात कर करार के दोनों तरफ खड़े लोगों के बीच एक पुल बनाने की कोशिश की थी. ये एक ऐसा सुझाव था जिसे सरकार भी मानने के लिए तैयार है या यूं कहें कि विश्वास मत से पहले तैयार थी. दुर्भाग्यवश, आडवाणी के ऐसे प्रयासों को कट्टरवादियों ने खारिज कर दिया और उन्होंने ऐसी कोई नीति नहीं बनाई जो कि पार्टी के इस परंपरागत मतदाता के विचारों के मुताबिक हो. कोई आश्चर्य नहीं कि करार पर यूपीए के हमले के जवाब में पार्टी को बगलें झांकनी पड़ जाती हैं.
भले ही बीजेपी का ये अनुमान कि परमाणु करार आगामी चुनावों में कोई बड़ा मुद्दा नहीं होगा, सही हो मगर अनुभव ये बताता है कि भाजपा किसी भी नीतिगत मुद्दे पर संशय की स्थिति को झेलने की स्थिति में नहीं है. भाजपा और इसके एनडीए के सहयोगियों के बीच कई मुद्दों पर लगातार मतभेद रहे हैं. ये महत्वपूर्ण हो सकते हैं अगर कांग्रेस खुद को राष्ट्रीय हितों का अलंबरदार दिखाने का और राहुल गांधी के माध्यम से एक नये भारत की बात देश के सामने रखने का प्रयास करती है.
एक स्तर पर कांग्रेस और भाजपा के मतदाता बिल्कुल अलग हैं. कांग्रेस अभी भी गरीबों, दलितों, आदिवासियों और मुसलमानों पर निर्भर है वहीं भाजपा मध्यवर्गीय—ज़्यादातर अगड़ी जातियों वाले—और पिछड़े वर्ग के एक हिस्से पर अपना अधिकार समझती है. आने वाले चुनावों में कांग्रेस के दलित-मुस्लिम मतवर्गों का मायावती और वामदलों की ओर खिसक जाने का खतरा है. ये कांग्रेस को उत्तर प्रदेश से आगे पूरे उत्तरी और मध्य भारत में नुकसान पहुंचा सकता है. उधर कांग्रेस इस नुकसान से बचने और बढ़ी मुद्रास्फीति के चुनावी प्रभावों को नकारने के लिए युवा राहुल गांधी को प्रधानमंत्री के रूप में पेश कर भाजपा के मध्यवर्गीय वोटबैंक को लुभाने का प्रयास कर सकती है.
कांग्रेस के दलित-मुस्लिम वोट बैंक के कांग्रेस और बीएसपी नीत यूएनपीए के बीच बंट जाने से सबसे बड़ा फायदा भाजपा को ही होने वाला है मगर यदि कांग्रेस भाजपा के दुर्ग में सेंध लगा देती है तो इस फायदे का कोई फायदा नहीं.
आडवाणी को ये जानना चाहिए कि असल फायदा तब होगा जब वो ‘पहले राष्ट्र’ के नारे को कांग्रेस के हाथों में न जाने दे. इसके बजाय इसे कांग्रेस के मतदाताओं को भी अपने पाले में खींचना होगा. अब तक भाजपा सत्ताविरोधी रुझान का फायदा उठाती रही है. मगर अब इसे एक सकारात्मक एजेंडा विकसित करना होगा जो कि अनूठा और मौजूं हो और वैचारिक स्तर पर लोगों को उद्वेलित कर सके. आडवाणी के लिए यूपीए सरकार को सत्ताच्युत करने में असफल होना भले ही बड़ा झटका हो मगर कांग्रेस और सपा के काले-पीले कारनामों ने इसे एक आपदा में तब्दील होने से रोक लिया. ये अनुभव बताता है कि भाजपा को एक उद्देश्यपरक टीम, विचारधारा में लचीलेपन और आने वाली चुनौतियों के प्रति जागरूक होने की आवश्यकता है. आडवाणी ने अब तक पार्टी को एक नरम नेतृत्व दिया है मगर जिस तरह से परिस्थितियां मुश्किल हो रही हैं, इसे बदलना होगा. समय की मांग है कि जनरल आगे बढ़कर नेतृत्व करे और एक जुझारू (न कि दिखाऊ) टुकड़ी उसके सहयोग के लिए पीछे खड़ी हो. आडवाणी के लिए आने वाले कुछ महीने उनकी उतार-चढ़ाव भरी जिंदगी का सबसे चुनौतीभरा समय लाने वाले हैं.
स्वपन दासगुप्ता