‘उनकी मौत का शोक कैसे मनाएंगे’

काबुल स्थित भारतीय दूतावास में दूसरे नंबर के अधिकारी(डेप्युटी चीफ ऑफ मिशन) संदीप कुमार याद कर रहे हैं कि किस तरह वे एक जोखिम भरे अनुभव का रोमांच महसूस करने काबुल आए थे. मगर जब ऐसा अनुभव हुआ तो वो अपने साथ रोमांच की बजाय उनके साथियों की जुदाई का शोक लेकर आया.

सात जुलाई को काबुल में भारतीय दूतावास पर आत्मघाती बम हमले के दौरान मेरे सहकर्मी वेंकट के कमरे की घड़ी आठ बजकर 27 मिनट पर रुक गई. इमारत के ज्यादातर कमरों की तरह वेंकट के कमरे में भी हर तरफ शीशे और मलबे के टुकड़े बिखरे पड़े थे. मगर तबाही के इस मंजर में ये घड़ी उनकी मौत का लम्हा दर्ज करते हुए किसी तरह सलामत बची रह गई. तालिबान के पतन के बाद राजधानी में हुआ ये सबसे भयानक हमला है. धमाके का वक्त एक दूसरी घड़ी में भी दर्ज है जो दूतावास में सुरक्षा सलाहकार ब्रिगेडियर मेहता के शव से बरामद हुई है. उनके शरीर के तो चीथड़े उड़ गए मगर घड़ी को खरोंच तक नहीं आई.

धमाके के कुछ मिनट बाद ही मैं पुलिस बैरीकेड्स के बीच से किसी तरह रास्ता बनाते हुए दूतावास की इमारत में दाखिल होता हूं. हर तरफ खून, शरीर के टुकड़े, मलबा और बुरी तरह क्षतिग्रस्त कारों के अवशेष नजर आ रहे हैं. ये बर्बादी उस 100-125 किलो विस्फोटक ने मचाई जिसे एक टोयोटा कोरोला कार में सवार हमलावर ने इमारत के गेट से टकरा दिया था. सामने मुझे एक जानी-पहचानी कार के कुछ बचे-खुचे हिस्से नजर आते हैं. “ये कौन सी कार है?” मैं पूछता हूं. “आपकी, सफेद लैंड क्रूज़र.”, जवाब मिलता है. इसे कौन चला रहा था या इसमें और कौन लोग सवार थे जैसे सवालों का जवाब तत्काल मिलना मुश्किल है क्योंकि अभी तो यही पता नहीं है कि कितने लोग हताहत हुए हैं.

खबर फैलते ही सभी स्टाफर्स को उनके आवास से हटाकर एक छोटे से कमरे में इकट्ठा किया जाता है. एकजुटता की भावना में हम सभी एक दूसरे के हाथ पकड़कर एक गोल घेरा बना लेते हैं. हमें पता है कि ये हम सभी की मिलीजुली त्रासदी है. रात को हम राजदूत के आवास में बैठे हैं. दिन की घटना को याद कर मेरे बदन में झुरझुरी दौड़ जाती है. हममें से कोई भी उस हादसे का शिकार हो सकता था. मैं या कोई भी दूसरा. सभी चीजें ठीक ऐसी ही रहतीं, बस हताहतों के नाम बदल जाते. मैं कल्पना करता हूं कि अगर कभी मेरे साथ इस तरह की दुर्घटना होगी तो किस तरह एक विशेष विमान मेरे शव को लेने आएगा, किस तरह शव को सुरक्षित रखने के लिए उस पर रसायनों का लेप किया जाएगा, मेरे साथियों की क्या प्रतिक्रिया होगी, कैसे वे मुझे याद करेंगे और किस तरह वेंकट के कमरे के पास ही स्थित मेरे ऑफिस की घड़ी में मेरी मौत का लम्हा दर्ज होगा.

• • •

आप अपने साथियों, जिनके साथ आपने एक दूसरे से सटे ऑफिसों में कई दिन बिताए हो, की मौत का शोक कैसे मनाएंगे?  ऐसे साथी जिनके साथ आपने काबुल जैसी अपरिचित जगह पर जिंदगी की छोटी-बड़ी मुश्किलें साझा की हों?

जवाब है उस विरासत पर दृढ़ रहकर जो उन्होंने छोड़ी है, उस देश के पुनर्निमाण में जुटे रहकर जिसे वे चाहते थे, इन बर्बर हमलों से न डरने का संकल्प लेकर और अपने पति का शव लेने आई वेंकट की पत्नी के इन प्रेरणादायी शब्दों पर अमल कर—“मैं काबुल में नहीं रोऊंगी क्योंकि मैं नहीं चाहती कि आतंक के सौदागर मुझे रोता हुआ देखें. वो हम पर हावी नहीं हो सकते. हम उन्हें उनके इरादों में कामयाब नहीं होने देंगे.”

आप उन 60 अफगानियों के लिए किस तरह शोक व्यक्त करेंगे जिन्हें धमाके में जान गंवानी पड़ी? जिनके परिवारों के लिए दुनिया एक सेकेंड में बदल गई? टीवी पर इस घटना से जुड़ी खबरें देखते हुए मैं ये सोचकर हैरान होता हूं कि ज्यादातर लोग आघात से उबरने की सामर्थ्य, वीरता और हौसले का जज्बा दिखा रहे हैं.

और आप अपने कर्तव्य के लिए समर्पित स्थानीय ड्राइवर नियामत के लिए किस तरह शोक व्यक्त करेंगे? वह काबुल में मेरा मार्गदर्शक था. मुझे याद है कि 15 दिसंबर 2007 की सर्द दोपहर जब मैं इस मुल्क में पहुंचा था तो हवाई अड्डे पर वो ही मुझे लेने आया था. तब से सात जुलाई तक नियामत लगातार मेरा साथी रहा. मैं कहां जाता हूं, किससे मिलता हूं, क्या करता हूं, सब कुछ उसे मालूम होता था. मैं भी उससे कुछ नहीं छिपाता था. नियामत मेरा विश्वासपात्र, मित्र और भाई हो गया था. अगर किसी दिन काबुल में कोई हादसा होता था तो हालात की जानकारी लेने के लिए मैं सबसे पहले उसे फोन करता था. उस दुर्भाग्यपूर्ण दिन मैं उसके गाड़ी लेकर आने का इंतजार कर रहा था. दहला देने वाले धमाके के बाद दूतावास वाली दिशा में धुआं उठते देख मैंने सबसे पहले उसे ही फोन किया. मगर जब फोन पर ‘नो नेटवर्क’ का संदेश आया तो मुझे किसी अपशकुन की आशंका हो गई थी.

मैं सबसे कहा करता था कि नियामत उन लोगों में से है जो हमारी सुरक्षा के लिए अपनी जान तक दे सकते हैं. और यही हुआ. बाद में जब मैं दूतावास पहुंचा तो मैंने पाया कि उसकी लाश बुरी तरह जल गई थी. लोगों की नजरें बचाकर मैंने उसे सैल्यूट किया और मृतक को सम्मान देने की अफगानी परंपरा के मुताबिक अपना हाथ छाती पर रख लिया.

मेरे होटल के बाहर जावेद नाम का एक बच्चा खड़ा रहता है जो च्यूइंग गम बेचता है. आजकल वो हैरान है. उसे समझ में नहीं आ रहा कि सफेद लैंडक्रूज़र अब मुझे लेने क्यों नहीं आती. उसकी आंखें नियामत को भी खोजती हैं. वह मुझसे पूछता है कि नियामत को क्या हुआ. मैं उसका हाथ पकड़े सिर्फ चुपचाप उसके पास खड़ा रहता हूं. मैं नहीं चाहता कि वो दर्द उस तक भी पहुंचे. 

इसी समय मुझे ये भी अहसास होता है कि नियामत, वेंकट या ब्रिगेडियर मेहता के बच्चों के लिए ये सोचना कितना मुश्किल है कि उनके पिता के साथ क्या हुआ और क्यों हुआ. ये बात दुनिया के उन दूसरे बच्चों के लिए भी उतनी ही सच है जिन्हें अपने पिता को इस तरह खोना पड़ता है.

अफगान अपनी मेहमाननवाज़ी के लिए जाने जाते हैं और कई मौकों पर नियामत मुझे अपने घर आने का निमंत्रण दिया करता था. मगर मैं कभी वक्त नहीं निकाल पाया. अब वो इस दुनिया में नहीं है तो मैं उसके घर जा रहा हूं. अब ये मेरे लिए एक तीर्थयात्रा है. काबुल के बाहरी इलाके में स्थित ईंटों से बने घर में घुसते हुए मुझे नियामत की मौजूदगी का अहसास होता है. ऐसा लगता है जैसे उसकी रूह यहां की हवा में तैर रही हो. चार से 15 साल की उम्र के उसके आठ बच्चे एक दूसरे से सटे जमीन पर बिछे कालीनों पर बैठे हुए हैं. मैं उनकी असाधारण खूबसूरती देखकर हैरान हो जाता हूं. लगता है जैसे सबमें नियामत का अक्स उतर आया हो—शानदार हरी आंखें, भूरे बाल, लंबी और तीखी नाक और धनुषाकार भंवें. मैंने कभी भी ऐसा कोई परिवार नहीं देखा जिसके सदस्य शक्लोसूरत में एक-दूसरे से इतना मिलते हों. ऐसा लगता है हर कोई एक दूसरे का बड़ा या छोटा रूप है. मेरे बदन में सिहरन दौड़ जाती है. मैं चुपचाप बच्चों के साथ बैठ जाता हूं. वे रो रहे हैं मगर कोई आवाज नहीं आ रही. घर पर कोई आया है और उन्हें गरिमा बनाए रखनी है इसलिए वे चुपचाप आंसू बहा रहे हैं. बच्चे ऐसे नहीं रोते. मगर जिंदगी में आए इस अप्रत्याशित बदलाव ने उन्हें अनजाने में ही वयस्कों जैसा बना दिया है. वे एक-एक कर मेरे पास आते हैं. मैं उन्हें चूमता हूं और फिर उन सबको गले लगा लेता हूं.

नियामत की सबसे छोटी बेटी को अपनी गोद में उठाए मैं बाहर आता हूं. दोपहर के सूरज की चमक उसके भूरे बालों के साथ मिलकर एक सुनहरा आभामंडल बना रही है. मुझे अहसास होता है कि नियामत की आत्मा अब मेरे आसपास नहीं बल्कि मेरे भीतर ही है और मैं जब तक इस मुल्क में रहूंगा वो किसी फरिश्ते की तरह मेरी हिफाजत करेगी. ठीक वैसे ही जैसे नियामत किया करता था.

• • •

उस रात मैं खुद को याद दिलाता हूं कि मैं जोखिम भरे अनुभवों का आनंद लेने के लिए अफगानिस्तान आया था. ब्रिगेडियर मेहता से मैं कई बार मजाक में कहता था कि अगर कोई खतरनाक अनुभव नहीं हुआ तो अफगानिस्तान में पोस्टिंग बेकार हो जाएगी. अगवा करने की कोई घटना या कोई विमान अपहरण, जिसमें कुछ दिन के बाद सुरक्षित रिहाई हो जाए, रोमांच पैदा करने के लिए काफी होगी. बस उसमें कोई खून-खराबा न हो. और देखिए मुझे क्या मिला. इतना भयंकर और घातक बम धमाका. अपनी कल्पना में हमेशा मैं ऐसी घटनाओं के केंद्र में खुद को रखा करता था. मगर वास्तविक जिंदगी में इस घटना का केंद्रीय पात्र और लोग बन गए.