सालों पहले की बात है किसी अखबार में पढ़ा था कि जब एक आठवीं क्लास की बच्ची से निबंध प्रतियोगिता में सुखमय जीवन पर निबंध लिखने के लिए कहा गया तो उसने अपनी कॉपी में लिखा – 24 घंटे बिजली और प्रतिदिन दो घंटे बिना नागा पानी. उस बालिका को यह एक पंक्ति लिखने पर ही प्रतियोगिता का प्रथम पुरस्कार दे दिया गया था. आश्चर्य होता है कि सुखमय जीवन का यह अर्थ एक 12-13 साल की बच्ची और सामान्य से ज्ञान वाले उस प्रतियोगिता के निर्णायकों की तो समझ में आता है मगर उनसे कहीं ज्यादा पढ़े और गुने बिहार चुनाव के विश्लेषक इसे ठीक से समझ या समझा नहीं पाते.
बुनियादी चीजों से ऊपर वाला विकास सबका नहीं होता. वह टुकड़ों-टुकड़ों में लोगों पर असर डालता है
आठवीं की वह बच्ची महानगरीय थी, सड़कों का उसके चारों ओर जाल सा बिछा था, ठीक-ठाक स्कूल में पढ़ती थी और सर्दियों की शुरुआत में मौसम बदलने से जुकाम होने जैसे मामूली संक्रमण के लिए भी उत्तम इलाज की आदी रही होगी. अगर इनमें से कुछ कमी और होती तो शायद वह सुखमय जीवन पर निबंध में ऐसा भी लिख सकती थी – पीने का साफ पानी, सुरक्षित जीवन, ठीक से प्रतिदिन पढ़ाने वाले टीचर, चोट लगने पर सिर्फ मां की फूंक के स्थान पर दवा देकर उसे कम करने वाले डॉक्टर और बरसात में खेत और सड़क के बीच भेद मिटाती कच्ची के स्थान पर पक्की डामर वाली सड़क जिससे हर मौसम में वह अपने स्कूल जा सके.
नीतीश ने बिहार को सबसे पहले ये ही बुनियादी चीजें देने की कोशिश की है. ऐसी चीजें जो सबको आकर्षित करती हैं. ऐसा विकास जो ऊपर से नीचे, पूरब से पश्चिम तक सबका साझा होता है. जो दिखता है, जिसकी कमी खलती है और जिसकी उपस्थिति कदम-कदम पर जिंदगी आसान होने का एहसास दिलाती है. इन बुनियादी चीजों से ऊपर वाला विकास सबका नहीं होता. वह टुकड़ों-टुकड़ों में लोगों पर असर डालता है. आगे आने वाले समय में इसी तरह के विकास की बारी है और वही नीतीश की असल परीक्षा भी होगी.
एक फटेहाल व्यक्ति को कहीं कहते सुना था कि गरीबी बुरी नहीं लगती सर जी लेकिन इससे जो कदम-कदम पर अपने स्वाभिमान की दुर्गति होती है वह खाए जाती है. बिना असुरक्षित हुए कहा जा सकता है कि बिहार के लोगों में भी स्वाभिमान की कोई कमी नहीं. मगर पिछले दिनों शिवसेना से लेकर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना और शीला दीक्षित से लेकर दिल्ली के उपराज्यपाल तक ने बिहारियों के आत्मसम्मान के साथ खुलकर खिलवाड़ किया है. ऐसे में नीतीश ने जिस प्रकार से हर तरह की संभावनाओं की बारिश से एक आम बिहारी को सराबोर किया है उसका कुछ-न-कुछ ईनाम तो उन्हें मिलना ही था.
कहा जा रहा है कि इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में बीसवीं सदी के आखिरी चतुर्थांश के उलट सत्ता विरोधी लहर का प्रभाव कम हो रहा है. गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, बिहार आदि उदाहरण के रूप में पेश किए जा रहे हैं. इस मामले में भाजपा कांग्रेस से आगे निकलती लग रही है. ध्यान से देखें तो समझ आएगा कि ऐसा कुछ क्षेत्रीय नेताओं की करनी का नतीजा है. मसलन नरेंद्र मोदी, शिवराज सिंह चौहान, रमन सिंह, नीतीश कुमार, वाईएसआर इत्यादि. कांग्रेस पिछड़ती लग रही है क्योंकि उसके पास मजबूत क्षेत्रीय नेताओं का अभाव है या उन्हें केंद्र की राजनीति का चस्का लग चुका है. जबकि भाजपा में इसके उलट मजबूत केंद्रीय नेताओं का अभाव है. मगर यह कोई आज की बात नहीं है. बीते कल में भी जिन भी प्रदेशों में कद्दावर और परिवर्तन की संभावनाओं से भरे-पूरे राजनेता रहे वहां सत्ता विरोधी लहर उतनी असरकारी कभी नहीं रही. उदाहरण बंगाल के साथ खुद बिहार का भी है जहां आज के धूल-धूसरित लालू लगातार 15 साल तक ‘राजशाही’ भोग चुके हैं.
कहीं से यह भी आवाज आ रही है कि पिछली बार की तरह यह मत भी विकास के पक्ष में कम और लालू प्रसाद के विरोध का ज्यादा है. ऐसा भी तो हो सकता है कि जिन लोगों ने लालू के विरोध में मत दिया हो उन्होंने उनकी विकास विरोधी छवि के लिए ऐसा किया हो और जिन्होंने लालू को मत दिया हो उनमें से कुछ ने उनकी रेलवे मंत्रालय वाली विकास समर्थक छवि के चलते ऐसा किया हो. तो फिर यह विकास के पक्ष वाला मत कैसे नहीं हुआ? क्यों हम हर राजनीतिक दल या उसके नेताओं को तो तरह-तरह के मौके देने के लिए तैयार रहते हैं लेकिन जनता, जो सही मायनों में परिपक्व है, को ऐसा कोई मौका नहीं देना चाहते. अगर पिछले तीन दशकों ने कमंडल की राजनीति को निस्तेज किया है तो पहचान पर आधारित राजनीति को लेकर भी तो लोगों में परिपक्वता आ सकती है.
संजय दुबे
वरिष्ठ संपादक