अपनी संस्कृति ठुकरा कर हम बस कैरीकेचर बन सकते हैं

समाज और संस्कृति पर लगभग 14 किताबें लिखने के बाद पवन कुमार वर्मा ने भारत में थोपी हुई औपनिवेशिक संस्कृति और भारतीयता के सवाल पर साल के शुरू में एक किताब लिखी-बिकमिंग इंडियन. हिंदी में इसका अनुवाद भारतीयता की ओर नाम से पेंगुइन से प्रकाशित हुआ है. मूलतः गाजीपुर के रहनेवाले वर्मा अभी भारतीय विदेश सेवा में हैं और एक उपन्यास लिखने की सोच रहे हैं. पेश हैं उनसे रेयाज उल हक की बातचीत के मुख्य अंशः

संस्कृति पर किताब लिखने की जरूरत कब महसूस हुई. इसके लिए सामग्री का चयन कैसे किया. इस दौरान कैसी समस्याएं सामने आईं?

मैं कई सालों से मैं बाहर रह रहा हूं. हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में उपनिवेशवाद के नतीजे बहुत दिखते हैं, भाषा, विचार, सोच और दूसरी रचनात्मक कोशिशों में इसका प्रभाव आसानी से दिखता है. खास तौर से  जब मैं लंदन के नेहरू केंद्र का निदेशक था, तब इस बात पर गंभीरता से सोचना शुरू किया. मुझे यह समझ आया कि जिनकी अपनी संस्कृति में जड़ें होती हैं, वही वैश्वीकरण के इस दौर स्वाभिमान से बराबरी पर बातचीत कर सकते हैं. विदेश सेवा में रहने के दौरान पूरी दुनिया में घूमने के बाद जो मेरी समझ में आया वह यह है कि हमारे देश में उपनिवेशवाद के राजनीतिक और आर्थिक नतीजों का विश्लेषण तो बहुत हुआ है लेकिन संस्कृति और अस्मिता पर गौर कम किया गया है. मुझे लगा कि इस पर बात करना जरूरी है क्योंकि औपनिवेशिक ताकतों का मकसद शारीरिक नियंत्रण नहीं होता. उनका उद्देश्य हमेशा मानसिकता पर नियंत्रण करना होता है. इसके बारे में मेरे मन में तब से यह बातें चल रही थीं, जब 1984 में दिल्ली के खान मार्केट में एक किताब की दुकान में खोजने पर मुझे गालिब की किताब नहीं मिली. लंदन में यह संभव नहीं है कि आपको वहां किसी दुकान पर यीट्स की किताब न मिले. तबसे मैं इसकी वजहों की तलाश कर रहा था. मैंने अपने जीवन के अनुभवों और रोजमर्रा की चीजों को देखते हुए इस पर विचार करना शुरू किया. लोगों से बातचीत के नोट्स बनाए. इसके अलावा लंदन में रहते हुए मैंने वहां की लाइब्रेरी से भी काफी मदद ली. इस पर काम कम हुआ है इसलिए दिक्कतें तो कई आईं. फिर एक डिप्लोमेट होने की व्यस्तता अलग थी. फिर भी लगातार लिखने, पढ़ने और चीजों को देखते हुए उन पर विचार करने से यह किताब मुमकिन हो पाई.

किताब पहले अंगरेजी में छप चुकी है. इस पर आपको कैसी प्रतिक्रियाएं मिलीं?

भारतीय स्तर पर बहुत से ऐसे लोगों ने मुझसे कहा कि मुद्दे बहुत अहम हैं और उन पर सोचना अनिवार्य है. पर कुछ लोगों को मेरी टिप्पणियां तीखी भी लगीं. खास तौर से अंगरेजियत में डूबे लोगों को. मुझे इससे कोई ऐतराज नहीं है क्योंकि किताब का मकसद तभी हासिल होता है जब उसे सिर्फ सराहनेवाले ही न हों, उसकी मुखालिफत करनेवाले लोग भी हों. खास तौर से भाषा को लेकर, वे लोग जो अंगरेजियत के कारण सत्ता में हैं, उन्होंने एक विरूपण (डिस्टॉर्शन) या सरलीकरण किया कि मैं अंग्रेजी के खिलाफ हूं और हिंदीवादी हूं. मेरा ऐसा मानना नहीं है. अंगरेजी एक विश्व भाषा है जिसे सीखने के अपने फायदे हैं. पर सिर्फ अंगरेजी सीखने और अपनी भाषाओं को दरकिनार करके हम अपना ही नुकसान कर रहे हैं. भाषाएं दो तरह की होती हैं. एक तो संपर्क की भाषा होती जिसमें आप किसी से संवाद करते हैं. और दूसरी आपकी संस्कृति की भाषा होती है, जिसमें आप सोचते हैं, जिसमें आपकी लोक कथाएं, गीत, मां की लोरियां और गालियां होती हैं. यह दुनिया से आपके जुड़ने की अपनी खिड़की है. अगर इस भाषा को छोड़ कर इसे आप बंद कर देंगे तो आप इनसे विहीन हो जाएंगे. अंगरेजी संपर्क की भाषा जरूर रहे, लेकिन अपनी भाषाएं भी न छोड़ी जाएं, मैं यह कह रहा हूं. लेकिन हालात ये हैं कि अंग्रेजी के साथ एक प्रभुता का भाव आता है और हिंदी के साथ हीनता का. जिस देश के पास भाषाओं की 2-3 हजार साल पुरानी विरासत है वे अपनी भाषा छोड़ कर अंग्रेजी अपना लें, यह मुझे नामंजूर है क्योंकि यह आत्मसम्मान की बात होती है. आप इसे ज्ञानपीठ के मामले में देख सकते हैं. मेरे एक कवि मित्र हैं, उन्हें ज्ञानपीठ मिला लेकिन उनकी किताब की महज 870 प्रतियां बिकीं. इन्हीं वजहों से हम कुछ मौलिक नहीं दे पा रहे हैं. आप हमारे देश के विश्वविद्यालयों में मानविकी विभागों को देख लीजिए, लाइब्रेरी, संग्रहालयों आदि सबको देख लीजिए, किस हालत में हैं वे. कहीं न कहीं सारी चीजें आत्मसम्मान, भाषा और सांस्कृतिक स्वाभिमान से जुड़ी हैं. और उस मौलिक सोच को वापस लाना होगा. विरूपण और विवेकहीन नकलचीपन हमें फिर से दुनिया में विचारों के क्षेत्र में स्थापित नहीं कर सकते. मैं सिर्फ हिंदी की सिफारिश नहीं कर रहा. लोग अपनी भाषा सीखें और एक दूसरी भारतीय भाषा सीखें. चाहें तो छठी कक्षा के बाद अंगरेजी भी सीखें. मेरा मानना है कि सारी भाषाओं के बीच मतभेद खत्म हो जाएं अगर हम अपनी समझ से काम करना शुरू कर दें. चुनौती तीव्र है, क्योंकि एक उपनिवेश होने के नाते हमारे सामने जो सांस्कृतिक चुनौतियां थीं, उनसे हम निपट भी नहीं पाए थे कि वैश्वीकरण शुरू हो गया जिसमें बड़ी तेजी से कोऑप्शन हो रहा है. मैं नई चीजों का विरोध नहीं कर रहा हूं, लेकिन हमें चुनना होगा कि हम क्या अपनाएं और क्या छोड़ें. और यह वही कर सकते हैं जो अपनी संस्कृति से जुड़े हैं. हम फोटोकॉपी नहीं बन सकते, जबकि हम यही बन रहे हैं. इससे विदेशी भले हमारे मुंह पर हमारी तारीफ कर दें, पीठ पीछे वे हंसते हैं कि ये तो हमारी फोटोकॉपी हैं या उनकी कोशिश यही बनने की है.

अपनी संस्कृति पर बात करते हुए हमेशा अतीतजीवी या प्राचीनता को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करने का खतरा रहता है, जिसका इस्तेमाल दक्षिणपंथ भी कर सकता है.

मैं ग्लोरीफाई नहीं कर रहा. मैं तो अपनी कमजोरियों को समझता हूं. इसीलिए तो मैं कहता हूं कि बिना शॉवेनिज्म के, विना उग्र और अति राष्ट्रवादी हुए हमें अपनी संस्कृति को अपनाना होगा. जो यह मानते हैं कि उनका कोई इतिहास नहीं है, वे मूर्ख हैं. क्योंकि बिना इतिहास को नजर में रखे न हम वर्तमान को समझ सकते हैं और न ही भविष्य का निर्माण कर सकते हैं.

लेकिन एक सवाल यह भी आ रहा है कि औपनिवेशिक संस्कृति के बरअक्स जिस संस्कृति की चर्चा हो रही है, वह ब्राह्मणवादी क्यों है. और उसे ऐसा क्यों होना चाहिए.

मैं कहता हूं कि आप संस्कृति को परिभाषित मत कीजिए. बस एक कसौटी रखिए कि नकलचीपन को छोड़ दीजिए, जिसे आप बिना सोचे समझे अपना लेते हैं. आप अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में इस नकलचीपन से जूझ लीजिए, यही क्रांति है. अगर दलितों-पिछड़ों का आर्थिक उत्थान अंगरेजी से होता है तो यह अच्छी बात है और अंगरेजी सीखनी चाहिए. पर क्या इसके लिए अपनी भाषा और संस्कृति छोड़ देना अनिवार्य है. यह बेहद सरलीकरण है कि अंगरेजी ही एकमात्र रास्ता है. एक दौर था जब अंगरेज थे और अंगरेजी सीखने से ऊपर ऊठने के रास्ते खुलते थे. लेकिन आज हमारे यहां लोकतंत्र है. अब हमें संतुलन बना कर रखना होगा. यह मैं अटल मान कर चलता हूं कि अपनी भाषा और संस्कृति को ठुकरा कर कोई समृद्ध नहीं हो सकता. इससे आप बस एक कैरीकेचर बन सकते हैं.