बिहार के विधानसभा चुनावों में किसकी जीत होने जा रही है? मीडिया की खबरों और चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों पर भरोसा करें तो नीतीश कुमार वहां फिर से सरकार बनाएंगे. कुछ अनुमान यहां तक बता रहे हैं कि नीतीश कुमार दो-तिहाई से ज्यादा सीटें जीतकर आएंगे.
लेकिन क्या ऐसे अनुमानों पर हमें भरोसा करना चाहिए? कम से कम अतीत इसकी इजाजत नहीं देता. चुनावी भविष्यवाणियां हमारे यहां मुंह की खाती रही हैं, इसकी मिसालें एक नहीं अनेक हैं. चाहें तो याद कर सकते हैं कि 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए चुनावों में ज्यादातर अखबारों ने राजीव गांधी और कांग्रेस की हार की भविष्यवाणी की थी. जिन्होंने नहीं की उन्होंने भी यह उम्मीद नहीं की थी कि राजीव गांधी को इतना व्यापक समर्थन मिलेगा. लेकिन राजीव गांधी को 400 से ज्यादा सीटें मिलीं, जिसकी कल्पना भी आज कोई दल नहीं कर सकता. इस चुनावी नतीजे के बाद कई अख़बारों ने अपनी गलत भविष्यवाणी के लिए पाठकों से माफी मांगी.
मान लें कि वह पुराना दौर था. आखिर 25 साल पहले पत्रकार अपने अनुमानों पर चला करते थे और उन दिनों चुनावी सर्वेक्षणों की कहीं ज्यादा वैज्ञानिक समझी जाने वाली पद्धति विकसित नहीं हुई थी. लेकिन गलत भविष्यवाणियों का इतिहास खुद को लगातार दुहराता रहा है.
2004 के लोकसभा चुनावों से पहले सारे सर्वेक्षण और एग्जिट पोल चीख-चीखकर बता रहे थे कि अटल बिहारी वाजपेयी की वापसी हो रही है. वे भारत उदय और फील गुड के गुब्बारों के दिन थे और यह अनुमान आम था कि एनडीए से जुड़े दल 300 से ज्यादा सीटें लाएंगे. कुछ उत्साही पत्रकारों और सर्वेक्षणों का आकलन 400 सीटों तक जा रहा था. जब नतीजे आए तो सारे अखबारों और टीवी चैनलों ने हैरानी से देखा कि एनडीए 200 सीटों का भी आंकड़ा छू नहीं सका.
विकास पुरुष बनने की कोशिश कर रहे नीतीश को भी मालूम है कि बिहार के सामाजिक पूर्वाग्रह उसके तथाकथित आर्थिक बदलाव पर भारी पड़ेंगे
कुछ और आगे बढ़ें. 2007 में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों के वक्त भी सर्वेक्षणों और एग्जिट पोल का खेल चला. लेकिन किसी सर्वेक्षण में यह उम्मीद नहीं जताई गई कि उत्तर प्रदेश में किसी एक दल को अपने बूते बहुमत मिलने जा रहा है. हर तरफ त्रिशंकु विधानसभा का शोर था और राजनीतिक पंडित आने वाले दिनों के समीकरण जोड़-घटा रहे थे. लेकिन बीएसपी को मिली कामयाबी ने फिर इन पंडितों को अंगूठा दिखाया और उन्हें मजबूर किया कि वे समीकरण जोड़ने की जगह यह समझने की कोशिश करें कि उनके अपने आकलन कहां और क्यों गलत हो गए.
तो इन चुनावी सर्वेक्षणों पर हम कितना भरोसा करें? क्यों मान लें कि बिहार में जेडीयू और नीतीश कुमार की वापसी हो रही है? निश्चय ही इस तर्क की यह व्याख्या नहीं होनी चाहिए कि नीतीश की वापसी संदिग्ध है या वे हार रहे हैं. अगर सर्वेक्षणों के गलत होने के उदाहरण हैं तो उनके सही साबित होने की मिसालें भी हैं. बिलकुल सही-सही भविष्यवाणी उन्होंने भले न की हो, लेकिन ऐसे मौके एकाधिक रहे हैं जब उन्होंने हवा की ठीक-ठीक थाह ली है.
लेकिन बिहार के संदर्भ में चुनावी सर्वेक्षणों पर भरोसा न करने की वजह मेरे लिए सिर्फ अतीत के अनुभव नहीं हैं, वर्तमान की हवाएं भी हैं. बिहार से छन-छन कर आ रही खबरों को ध्यान से देखें तो यह समझना मुश्किल नहीं है कि वहां लंबे अरसे तक लालू यादव के जायज-नाजायज विरोध से पैदा हुआ ध्रुवीकरण खबरों के विश्लेषण का रंग बदल रहा है. इसी का नतीजा है कि नीतीश विकास के नए नायक की तरह पेश किए जा रहे हैं और लालू-पासवान की जोड़ी में पुरानी अराजकता का डर पैदा किया जा रहा है.
बेशक, नीतीश कुमार ने बिहार में काम किए होंगे. कम से कम दो मोर्चे ऐसे हैं जिनमें नीतीश बाहर वालों की वाहवाही लूटते रहे हैं. लोगों का कहना है कि राज्य की कानून व्यवस्था पहले के मुकाबले कहीं बेहतर है और गांवों-कस्बों और शहरों में सड़कें सुधर गई हैं. बिहार जिस ठहराव को पिछले कुछ वर्षों में जीता रहा है उसके आईने में यह हलचल भी लोगों को बहुत प्रभावित कर रही है. लेकिन क्या बिहार का सच इतना सा है- साफ-सुथरी सड़कें और उन पर साइकिल चला रही स्कूल जाती लड़कियां? काश कि कम से कम इतना तो सच हो. काश कि वाकई बिहार का चुनाव सिर्फ विकास के वादों और नारों पर लड़ा जा रहा हो.
लेकिन बिहार का विकास पुरुष बनने की कोशिश कर रहे नीतीश कुमार को भी मालूम है कि बिहार के सामाजिक पूर्वाग्रह उसके तथाकथित आर्थिक बदलाव पर भारी पड़ेंगे. इसलिए वे सिर्फ सड़कों और पुलों की दुहाई नहीं दे रहे, वे सिर्फ सुधरी हुई कानून-व्यवस्था का हवाला नहीं दे रहे हैं, वे बहुत चौकन्नेपन से महादलित, अतिपिछड़ा और अल्पसंख्यक जैसी सरणियां भी तैयार कर रहे हैं. इस सीवन में उन्हें कोई झोल मंजूर नहीं, यह उन्होंने एक दूसरे विकास पुरुष गुजरात के नरेंद्र मोदी को बिहार में चुनाव प्रचार न करने देने की जिद पर अड़कर साबित किया है. अगर मोदी के खिलाफ नीतीश का गुस्सा इतना तीखा और सच्चा है तो वे उन दिनों एनडीए की सरकार में मंत्री क्यों बने रहे जब गुजरात जल रहा था और नरेंद्र मोदी क्रिया के विरुद्ध प्रतिक्रिया के वैज्ञानिक सिद्धांत का घोर अवैज्ञानिक और सांप्रदायिक भाष्य कर रहे थे?
जाहिर है, नरेंद्र मोदी से जो दूरी या वितृष्णा तब नहीं थी या कभी नहीं रही, उसे अब प्रदर्शित करने का मकसद अपने राज्य के अल्पसंख्यकों को यह संदेश देना है कि वे नीतीश कुमार पर भरोसा करें, मुसलिम लड़कियों के लिए चलाए जा रहे उनके कल्याणकारी कामकाज को सिर्फ उनकी वोटबटोरू रणनीति का हिस्सा न मानें. लेकिन अगर नीतीश का ऐसा कल्याणकारी कामकाज है तो यह वोटबटोरू हो या नहीं, उसके लाभ उनको मिलेंगे. अगर वाकई नीतीश का बिहार ऐसा दमक रहा है कि उसकी रोशनी आने वाले कल का भरोसा दिलाती हो तो बिहार की जनता इस रोशनी के साथ जाएगी, किसी सामाजिक पूर्वाग्रह के अंधेरे का दामन क्यों थामेगी?
जाहिर है, नीतीश कुमार के दावों में कोई दरार या कोई अधूरापन है. बिहार के जानकार बताते हैं कि राज्य में सड़कें तो बन गई हैं लेकिन वे अब भी लोगों को राज्य के बाहर ही पहुंचा रही हैं, राज्य में बन रहे किन्हीं कल-कारखानों तक नहीं ले जा रहीं. यानी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी जैसी राहत प्रदान करने वाली योजनाओं को छोड़ दें- जिनका असर व्यापक भ्रष्टाचार ने काफी कम कर दिया है- तो बिहार में ऐसा कुछ नहीं है जो उसके गरीब को तरक्की का भरोसा दिलाए. बिहार में सड़कें और पुल उन बाहर वालों को लुभा रहे हैं जो दूर से अपने राज्य को देख रहे हैं. इन जानकारों का यह भी कहना है कि दरअसल चीजें बदली हैं लेकिन खत्म नहीं हुई हैं. वे दूसरे रूप में बची हुई हैं. जो भ्रष्टाचार पहले बुरी तरह राजनीति केंद्रित था वह अब प्रशासन केंद्रित हो गया है. यानी थानों और सरकारी महकमों और योजनाओं में विधायकों और छुटभैये नेताओं की घुसपैठ खत्म हो गई है तो अफसरों और बाबुओं का व्यापक भ्रष्टाचार शुरू हुआ है. माफिया गिरोहों का केंद्र पहले एक अणे मार्ग- यानी लालू यादव का घर- हुआ करता था तो अब वह बदलकर दूसरे पतों तक चला गया है. अपराध खत्म करने और अपराधियों को जेल भेजने के दावे के बावजूद नीतीश बड़े अपराधियों से सांठगांठ करने और उनके सगे-संबंधियों को टिकट देने पर मजबूर हैं तो इसमें कुछ सच इस नए बिहार का भी दिखाई पड़ता ही है.
सड़कें तो बन गई हैं लेकिन वे अब भी लोगों को राज्य के बाहर ही पहुंचा रही हैं, राज्य में बन रहे किन्हीं कल-कारखानों तक नहीं ले जा रहीं
बहरहाल, मेरा मकसद यह साबित करना नहीं है कि बिहार में नीतीश कुमार ने कोई काम नहीं किया है और वे सिर्फ झूठे दावे कर रहे हैं. दरअसल, इन सारी बातों के उल्लेख का मकसद सिर्फ यह ध्यान दिलाना है कि बिहार में जो चल रहा है वह छवियों की राजनीति है. छवि की यही राजनीति कभी लालू यादव ने की थी. 20 साल पहले उन्होंने खुद को सामाजिक न्याय और पिछड़ा उभार का प्रतीक बना डाला. जिस न्यूनतम प्रयत्न से यह छवि बनी उसके अलावा लालू यादव ने और कुछ नहीं किया. लालू यादव के इसी प्रतीकवाद का नतीजा रहा कि बिहार में पिछड़ा अस्मिता कुछ और विपन्न हो गई, सामाजिक न्याय कुछ और अविश्वसनीय हो गया. भूलने की बात नहीं है कि तब उस छविवाद में लालू के साथ नीतीश भी शामिल थे.
अब छवि की दूसरी राजनीति दूसरे सिरे से नीतीश कुमार कर रहे हैं. वे खुद को विकास का प्रतीक साबित करने में लगे हैं. लेकिन बिहार के विकास का कोई ठोस नक्शा उनके पास नहीं दिख रहा. न राज्य की ठहरी हुई खेती को आगे बढ़ाने का कोई खाका उन्होंने पेश किया है और न ही नए उद्योगों की गुंजाइश दिख रही है. स्कूलों और कॉलेजों में पढ़ाई का माहौल नहीं है, छात्र बाहर भाग रहे हैं और शिक्षक वेतन की राह देख रहे हैं. निर्माण उद्योग की तेजी से राज्य की वृद्धि दर जरूर आगे दिख रही है और अकूत भ्रष्टाचार से एक छोटे-से मध्यवर्ग में आ रहा पैसा ही यह आंकड़ा तैयार कर रहा है कि धनतेरस के दिन बिहार में 500 करोड़ की गाड़ियां बिक गईं.
हो सकता है, इस फील गुड में नीतीश एक चुनाव निकाल लें. लेकिन अगर यह सफलता उन्हें मिलती है तो उसे स्थायी बनाने के लिए उन्हें वाकई ठोस कदम उठाने होंगे. वरना कभी बिहार में अपराजेय दिखने वाले लालू यादव का जो हश्र हुआ वही उनका भी होगा. उनकी स्थिति इस लिहाज से बेहतर है कि सामाजिक न्याय की जो निष्कंटक दावेदारी लालू को हासिल थी वह उन्हें नहीं है. शायद इसी स्थिति ने लालू यादव को तानाशाह भी बनाया. दूसरी तरफ नीतीश को एहसास है कि उनकी नाकामी सामाजिक न्याय का इंतजार कर रहे बिहार को दूसरे विकल्पों की तरफ भी ले जा सकती ह. यही वजह है कि वे सामाजिक समीकरणों की राजनीति कर रहे हैं और नारा विकास का देने को मजबूर हैं. लेकिन इस नारे को हकीकत में बदले बिना न नीतीश विकास पुरुष बन पाएंगे, न बिहार का उद्धार होगा. अंततः यह स्थिति बिहार के ही नहीं, नीतीश कुमार के खिलाफ भी जाएगी.
लेकिन दुर्भाग्य से उनके यशोगान में डूबा मीडिया उन्हें यह सच देखने नहीं दे रहा. वह जीत से पहले ही उनके सिर पर जीत का तिलक लगाने को बेताब है.