चाहे राहत हो या पुनर्वास या फिर विकास…उत्तराखंड में इन सभी मुद्दों को एक नई रोशनी में और समग्र सोच के साथ देखे जाने की जरूरत है, बता रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार गोविंद पंत राजू
घर-घर में बिजली, पक्की टाइल्स बिछी गलियां, सीमेंट के मजबूत खड़ंजे, गलियों में स्ट्रीट लाइट के खंभे, सिंचाई के लिए मजबूत नहरें, पीने के पानी के लिए जलसंस्थान की पक्की लाइन, सीवर लाइन से जुड़े शौचालय, मुख्य मोटर मार्ग तक पहुंचने के लिए बढ़िया सड़क, बच्चों के लिए स्कूल और 500 लोगों के बैठ सकने लायक एक खूबसूरत ऑडिटोरियम
6,000 फुट से अधिक ऊंचाई पर बसे उत्तराखंड के एक दूरदराज के गांव रैथल में यह सब चीजें एक साथ मौजूद हैं और वह भी उपयोग करने लायक सही-सलामत हालत में. उत्तरकाशी जिला मुख्यालय से गंगोत्री की ओर 45 किलोमीटर की दूरी पर बसे रैथल गांव में लगभग 200 परिवार रहते हैं और इस गांव की कुल आबादी 1,200 से अधिक है. रैथल उत्तराखंड का एक ऐसा गांव है जहां से हाल के वर्षों में कोई पलायन नहीं हुआ, उल्टे बाहर से लोग आकर वहां बस रहे हैं.
इस गांव में हो रहे इस चमत्कार की कहानी आज के जमाने में अविश्वसनीय-सी लगती है, लेकिन इसका मूलमंत्र है विकास के लिए आए धन का शत-प्रतिशत सदुपयोग और इसमें बरती जाने वाली पारदर्शिता. 1970 में अध्यापकी छोड़कर ग्राम प्रधान बने चंदन सिंह राणा ने जब पद संभाला तभी तय कर लिया कि गांव के लिए मिलने वाली एक-एक पाई का सही-सही इस्तेमाल करेंगे. एक पैसा भी बर्बाद नहीं होने देंगे. घूस और भ्रष्टाचार बिलकुल बंद.
यह काम लीक से हटकर था इसलिए उन्हें दिक्कतें भी कम नहीं आईं. अधिकारियों-अभियंताओं के कमीशन और ठेकेदारों की अंधेरगर्दी से निपटना आसान नहीं था. लेकिन उन्होंने सारे गांव को साथ लेकर एलान कर दिया कि इस गांव में यह सब बिलकुल नहीं चलेगा. कोई योजना गांव में आती तो पूरे गांव को उसकी जानकारी दी जाती, सबका हानि-लाभ देखकर उसका क्रियान्वयन होता और ठेकेदारों के एक-एक काम पर गांववालों की निगरानी रहती. कई बार नियमानुसार न हुए काम या घटिया निर्माण को तोड़ा भी गया. धीरे-धीरे एक नजीर-सी बनती चली गई. 18 वर्ष तक प्रधान रहने के बाद राणा तो ब्लॉक प्रमुख बन गए मगर गांव में उनकी स्थापित की हुई परंपरा आज तक बरकरार है. विश्व प्रसिद्व दयारा बुग्याल का आधार गांव होने के कारण इस गांव को पर्यटन योजनाओं के लिए भी पैसा मिला है और आज तक गांव में विकास कार्यों के लिए लगभग पांच करोड़ से अधिक की राशि यहां खर्च की जा चुकी है और यह सारा पैसा वास्तविक रूप से योजनाओं के काम में खर्च हुआ है. इनसे स्थानीय लोगों को रोजगार भी मिला और आज वे इनका उपयोग भी कर रहे हैं. उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय तो अब इस गांव के विकास को आधार बनाकर ग्राम्य विकास का एक पाठ्यक्रम भी शुरू करने जा रहा है.
यहां इस गांव का जिक्र इसलिए कि चंदन सिंह राणा और उनके रैथल गांव का उदाहरण सितंबर में आपदा की बारिश से तबाह हुए उत्तराखंड के लिए आज एक मॉडल बन सकता है. प्राकृतिक आपदा के बाद अब उत्तराखंड में पुनर्निर्माण का दौर शुरू हो चुका है. राज्य सरकार केंद्र से 21,000 करोड़ रु का आपदा राहत पैकेज मांग चुकी है. कुछ रकम उसे मिल भी गई है और कुछ आने वाली है. हालांकि इस मांग को लेकर तरह-तरह के विवाद भी हैं. विपक्ष का आरोप है कि यह रकम जमीनी हकीकत को जाने बिना, बढ़ा-चढ़ाकर मांगी जा रही है. राज्य सरकार कहती है जितनी क्षति हुई है उससे यह मांग कहीं कम है और इन दोनों के बीच आपदा से जूझ रहे आम आदमी के हाथ अब भी खाली ही हैं.
बहरहाल इस विवाद से इतर, यह तो तय ही है कि उत्तराखंड में आपदा राहत के लिए करोड़ों रु. केंद्र से आएंगे और यह रकम पुनर्निर्माण कार्यों मंे खर्च भी होगी ही. लेकिन आपदा राहत की इस भारी-भरकम रकम पर आंख गड़ाए बैठी भ्रष्ट अधिकारी-राजनेता और ठेकेदारों की तिकड़ी से इस रकम को बचाकर सही मायनों में पुनर्निर्माण कार्यों पर खर्च कर पाना एक बड़ी चुनौती है. वर्तमान में आदर्श स्थितियों में भी इस रकम का 30 से 40 फीसदी हिस्सा भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ना तय है.
ऐसे में क्या उपाय बचता है? क्या रैथल मॉडल एक उदाहरण बन सकता है? राज्य के आपदा राहत और पनर्वास महकमे से जुड़े एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, ‘रैथल मॉडल एक रास्ता हो सकता है, खास तौर पर ऐसे पुनर्निर्माण कार्यों में जहां पैसे का इस्तेमाल किसी विशेष इलाके या गांव के लिए किया जाना है. सड़क आदि पुनर्निर्माण कार्यों में सरकार योजना पर निगरानी रखने के लिए खुद जन निरीक्षक तैनात कर सकती है.’
बहरहाल, राज्य सरकार रैथल को उदाहरण बनाए या न बनाए मगर यह तय है कि आपदा राहत की रकम का उपयोग उत्तराखंड में 2012 के चुुनाव का परिणाम तय करने मंे महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा और उत्तराखंड की मौजूदा सरकार को अपनी कुर्सी बचाए रखने का प्रयास करने के लिए राहत पैकेज का शत प्रतिशत पारदर्शी सदुपयोग सुनिश्चित करना ही होगा.
लेकिन राहत पैकेज केे सदुपयोग से भी पीड़ितों के जख्म पूरी तरह भरने संभव नहीं. इसका कारण यह है कि राहत के मानकों के केंद्र में पीड़ित लोग हैं ही नहीं. राज्य सरकार ने केंद्र से जो राहत मांगी है उसमें आपदा से क्षतिग्रस्त हुए 2,356 स्कूलों के लिए तो प्रति स्कूल 15 लाख रु मांगे गए हैं, जबकि अपने नागरिकों को वह किसी भी स्थिति में प्रति भवन 50 हजार रु से अधिक दे नहीं सकती क्योंकि मानक ही इस तरह के बने हुए हैं. जाहिर है कि आपदा राहत के ये मानक बेहद पुराने हैं और उनके निर्धारण में उत्तराखंड की विशेष भौगोलिक परिस्थितियों को कतई ध्यान में नहीं रखा गया है. इन मानकों को बदले जाने की आवश्यकता है, मगर इस ओर कोई ध्यान नहीं दे रहा. सरकार में शामिल उत्तराखंड क्रांतिदल के युवा विधायक पुष्पेंद्र त्रिपाठी भी यह बात मानते हुए कहते हैं, ‘आपदा राहत के मानक बहुत पुराने हैं. उत्तराखंड राज्य बनने के बाद इन्हें जिस तरह बदलवाया जाना चाहिए था वह हो नहीं पाया है. पटवारी गांवों में जाकर गाइड लाइन की परिभाषाओं के मुताबिक भवनों की क्षति को आंशिक, पूर्ण और तीक्ष्ण इन तीन श्रेणियों में रखकर मुआवजा तय कर देते हैं. यह बेतुकी बात है. इसमें नियमों और गाइड लाइन से अधिक, मानवीय दृष्टिकोण पर ध्यान दिया जाना चाहिए. घरों की क्षति के लिए नया मानक होना चाहिए, जिसमें साफ-साफ दो श्रेणियां हों. रहने योग्य और रहने के अयोग्य. इसी आधार पर मुआवजा भी तय होना चाहिए.’
राहत पैकेज और पुनर्वास के मायने भी बेमानी हैं. उत्तराखंड के तीन सीमांत जिले चमोली, उत्तरकाशी और पिथौरागढ़ भूगर्भीय दृष्टिकोण से अस्थिर क्षेत्र में हैं. ताजा आपदा ने 200 से अधिक पर्वतीय गांवों को खतरनाक बना दिया है. इनका पुनर्वास होना है जो एक विकट समस्या है. राज्य के वरिष्ठ मंत्री प्रकाश पंत भी मानते हैं कि यह समस्या बहुत विकराल है. वे कहते हैं, ‘पहाड़ी क्षेत्रों में ही 200 से अधिक गांवों का अस्तित्व खतरे में है. इन सभी का भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण होना है, पुनर्स्थापन होना है और इस पुनर्स्थापन का अर्थ यह नहीं है कि उन्हें सिर्फ नए घर बनाकर दे दिए जाएं. समूचे ग्रामीण परिवेश को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना बड़ी टेढ़ी खीर है. इसके लिए बड़ी रकम की भी जरूरत है और भूमि की भी. तराई क्षेत्र में जमीन है नहीं. राज्य के वन क्षेत्र में से 22 फीसदी वन विहीन भूमि का भूउपयोग बदलकर अगर केंद्र सरकार प्रभावित गांवों को बसाने की अनुमति दे दे तो यह एक समाधान हो सकता है. लेकिन इसके लिए भी पैसे की जरूरत कम नहीं होगी.’
राज्य सरकार ने आपदा राहत में 233 गांवों को खतरनाक घोषित करके उनके पुनर्वास के लिए 12,000 करोड़ की रकम मांगी है. प्रति परिवार 38 लाख रु खर्च किए जाने की योजना है. लेकिन फिलहाल तो आपदा पीड़ितों के हाथों में दो-ढाई हजार रु ही पहुंच पाए हैं और पुनर्वास भी उनके लिए अब तक एक दिवास्वप्न ही साबित हो रहा है. हालांकि उत्तराखंड में अब हर ओर यह मांग जोर पकड़ रही है कि हिमालय क्षेत्र की विशेष परिस्थितियों को देखते हुए राष्ट्रीय आपदा कोष को ऐसे इलाकों के लिए भवन, भूमि और जीवन के मुआवजे की रकम पर पुनर्विचार करके उसे बढ़ाना चाहिए और हिमालयी राज्यों के लिए आपदा राहत के नए मानक भी बनाने चाहिए.
सितंबर की आपदा ने एक बार फिर हमें हिमालय के मिजाज को समझने की चेतावनी दे दी है. प्रसिद्ध पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा कहते हैं, ‘आज भारत ही नहीं समूचा विश्व हिमालय की रक्षा की बात कर रहा है और हिमालय तभी बचेगा जब उसको बचाने वाले स्थानीय लोगों को बचाया जाएगा.’ आज उत्तराखंड में लगभग 500 से ज्यादा छोटी-बड़ी पनबिजली परियोजनाएं निर्माणाधीन अथवा विचाराधीन हैं. बड़े पैमाने पर पहाड़ों में भूमिगत सुरंगें बनाए बिना यह पूरी नहीं हो सकतीं. यह बेहद खतरनाक काम है. इनमें से ज्यादातर योजनाओं के लिए पर्याप्त तकनीकी अध्ययन तक नहीं किया गया है. 500 करोड़ रु फूंक देने के बाद बंद की गई लोहारीनाग-पाला परियोजना इसका एक उदाहरण है.
हिमालय के पानी से चलने वाली इन सभी योजनाओं पर ग्लेशियरों के बदलते मिजाज से खुद-ब-खुद सवालिया निशान लग रहे हैं. रुड़की के नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ हाइड्रोलॉजी के वरिष्ठ वैज्ञानिक मनोहर अरोरा ने अपने ताजा शोघ पत्र ‘वाटर रिसोर्सेज पोटेंशियल ऑफ हिमालय ऐंड पॉसिबल इम्पेक्ट ऑन क्लाइमेट’ में कहा है कि पिछले 10 वर्षों में हिमालय के 67 फीसदी ग्लेशियर सिकुड़ गए हैं. साथ ही ग्रीनहाउस प्रभाव के कारण धरती का तापमान भी 0.75 सेटीग्रेड बढ़ गया है. अगले दो दशकों तक इसमें वृद्वि जारी रहेगी. अरोरा का निष्कर्ष है कि इस वृद्धि के कारण हिमालय में मौजूद ग्लेशियरों के पिघलने की गति और भी तेज हो जाएगी. जाहिर है कि इस तरह के शोध निष्कर्ष हिमालय में बड़े बांधों के औचित्य पर ही सवाल खड़े कर देते हैं. ऐसे में केंद्र सरकार और योजना आयोग को भी उत्तराखंड और दूसरे हिमालयी राज्यों के बारे में संवेदनशील, व्यापक और समग्र विकासनीति बनाने की पहल करनी चाहिए.
बांध और बिजली का सवाल सिर्फ उत्तराखंड के लोगों का ही सवाल नहीं है. यह सिर्फ पहाड़ या पर्यावरण का सवाल भी नहीं है. यह सवाल समूचे हिमालय के अस्तित्व का सवाल है और हिमालय के अस्तित्व पर पूरे देश का भविष्य निर्भर है. हिमालय का सवाल वैश्विक सवाल है क्योंकि हिमालय से होने वाली छेड़छाड़ पूरी दुनिया के पर्यावरण और ईकोसिस्टम को बदल सकती है. इसलिए इस सवाल को आज किसी युद्ध जैसी आपातस्थिति मानकर इसी नजरिए से इसका समाधान खोजा जाना चाहिए.