'अफराद-ए-किस्सा जैसे हैं वैसे दिखाई दें…'

शहरयार, फिल्म उमराव जान के अपने गीतों के लिए पहचाने जाते हैं लेकिन वे उर्दू के एक महत्वपूर्ण शायर भी हैं. उनकी शायरी में एक बेचैन समाज सवालों के एक लंबे सिलसिले के साथ मौजूद होता है. हाल ही में उन्हें प्रतिष्ठित ज्ञानपीठ सम्मान देने की घोषणा हुई है. पेश है उनसे रेयाज उल हक की बातचीत के मुख्य अंशः 

ज्ञानपीठ मिलने के बाद अपनी जिंदगी में क्या बदलाव महसूस कर रहे हैं?

यह सम्मान पाने के बाद मुझे उसी तरह खुशी हुई जैसे एक साधारण आदमी को होनी चाहिए. मेरी जिंदगी में वैसे तो ज्ञानपीठ के बाद कोई तब्दीली नहीं आई है लेकिन बहुत-सी चीजों को लोग दूसरों के कहने से मानते हैं. कुछ लोग जो मेरे बारे में पूर्वाग्रह रखते थे उन्हें भी अब लगा है कि मैं अहम चीज हूं.

आपके लेखन की शुरुआत कैसे हुई?

मेरी जिंदगी शुरू में बड़ी शायरी-विरोधी थी. मैं हॉकी खेलता था. सिनेमा देखता था. फिर एक घटना घटी मेरी जिंदगी में कि मुझे घर छोड़ना पड़ा. फिर मेरी दोस्ती आलोचक खलीलुर्रहमान आजमी के साथ हुई, मैं उनके साथ रहा और फिर मैंने शायरी शुरू की. हालांकि आज भी मैं शायरी की तकनीक से वाकिफ नहीं हूं. 1958 से मैंने लिखना शुरू किया था. 1960 के दशक में देश में बहुत कुछ हो रहा था. लोग पुरानी चीजों से ऊब चुके थे. वे कुछ नया चाहते थे. लोगों को मेरी शायरी पसंद आई. मेरे जीवन में कुछ भी पहले से तय नहीं रहा. बिना किसी योजना के चीजें घटती गईं. मैंने पहले साइकोलॉजी से एमए ज्वाइन किया था. फिर उर्दू में दाखिला लिया. तब मुझे लगा कि अब इसमें ही कैरियर बनाना है. मैं हालांकि मार्क्सवादी हूं लेकिन ऐसी ताकत में भी यकीन है जो मेरे जीवन को गाइड करती है. मैं सिनेमा में जाऊंगा, टीचर बनूंगा यह सब कभी नहीं सोचा था. लेकिन जब यह सब हासिल हुआ तो कोशिश की कि मैं सबसे अलग कुछ करूं. इत्तेफाक से फिल्मों की मकबूलियत से मेरी तरफ लोगों का ध्यान गया. मैं अपने अदब (साहित्य) की वजह से फिल्मों में गया था और लोग फिल्मों की वजह से मुझे जानकर मेरी शायरी की तरफ आए. कहा जाता है कि फिल्मों में जाकर लोग अपना स्तर खो देते हैं, लेकिन मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ. मैंने फिल्मों में जो कुछ भी लिखा उसमें भी वही गहराई है जो मेरी शायरी में है.

फिल्मों से जुड़ाव कैसे हुआ?

मुजफ्फर अली 1964 में अलीगढ़ मुसलिम यूनिवर्सिटी से बीएससी कर रहे थे. उस समय तक मेरा संग्रह आ चुका था. इसके आठ-दस साल बाद उनका एक खत आया कि वे एक फिल्म बना रहे हैं गमन, जिसमें वे मेरी दो गजलों का इस्तेमाल करना चाहते हैं. गमन के बाद जब वे उमराव जान बना रहे थे तो उसमें फिल्म की पटकथा के लिहाज से गीत लिखे गए, लेकिन वे भी फिल्मी नहीं थे. इसके बाद भी कई फिल्मों के लिए लिखा.

आपने फिल्मों के लिए भी लिखा और शायरी भी की. अपनी किस भूमिका को ज्यादा पसंद करते हैं?

पहले मुझे अच्छा नहीं लगता था कि लोग मुझे सिर्फ फिल्मों की वजह से जानें. लेकिन फिर लगा कि यह अच्छा ही है कि लोगों में उनकी वजह से मेरी चाहत पैदा हुई. फिर यह भी बात है कि अपनी तरफ से मैंने फिल्मों के लिए कुछ अलग से नहीं लिखा. मेरी कोशिश रहती है कि जो जैसा है वह हर हाल में वैसा ही दिखे –

अफराद-ए-किस्सा जैसे हैं वैसे दिखाई दें,

जाएल तमाशागाह में बीनाई क्यों न हो.

फिल्मों में लिखने और शायरी करने में बहुत फर्क नहीं है. अगर शायर दिए गए हालात को अपना ले और ठीक उसी ढंग से उसे जीने की कोशिश करे तो वह उन पर लिख सकता है.

आप अपनी शायरी के विषय कहां से हासिल करते हैं?

दुनिया से. मैं खुली आंख से दुनिया को देखता हूं और किसी हादसे से उतना ही प्रभावित होता हूं जितना वे लोग जिन पर हादसा गुजरा है. वैसे लिखने की प्रक्रिया रहस्यमय होती है. कोई भी यह दावा नहीं कर सकता कि वह जो चाहे जब चाहे लिख सकता है. रिटायर होने के बाद मैंने कम लिखा है और बहुत दिनों से कुछ नहीं लिखा है. हो सकता है कि मैं कुछ ऐसा लिखूं जो लोगों को हैरान कर दे, हालांकि मैं कोई दावा नहीं कर रहा. वैसे मैं कोशिश करता हूं कि अगर अच्छा न लिखूं तो अच्छा पढ़ूं.