सिंह बने शेर, विरोधी हुए ढेर

इसीलिए कहते हैं कि राजनीति में भविष्यवाणी करना मूर्खों का खेल है. छह महीने पहले तक भाजपा अनिश्चय और ऊहापोह में फंसी एक पार्टी नजर आ रही थी मगर कर्नाटक के चुनावों के बाद से स्थितियां बदल गईं. इस के बाद यही स्थिति कांग्रेस की हो गई. न कोई नेतृत्व दिख रहा था और न ही ऐसा कोई विचार जो पार्टी में आने वाले आम चुनावों के लिए नई जान फूंक सकता हो. उधर वाममोर्चे ने अलग से जीना दूभर कर रखा था. दूसरी तरफ इन चार सालों में केंद्रीय सत्ता के गलियारों में अमर सिंह नाम के शख्स की कोई पूछ ही नहीं थी. इन्हीं चार सालों के दौरान मनमोहन सिंह ऐसे प्रधानमंत्री नजर आते थे जिसके पास कुर्सी तो हो मगर अपना फैसला करने की आजादी नहीं. एक महीने पहले तक लालकृष्ण आडवाणी अगले प्रधानमंत्री की दौड़ में सबसे आगे नजर आ रहे थे. एक हफ्ते पहले तक यूपीए सरकार लड़खड़ाती दिख रही थी. तीन दिनों पहले तक मायावती प्रधानमंत्री पद पर ताजपोशी की तैयारी में थीं. और दो दिन पहले तक चुनाव अवश्यंभावी लग रहे थे. 

और अब देखिए. बड़े ही नाटकीय एक घटनाक्रम में भाजपा ने खुद ही अपनी स्थिति कमजोर कर ली और खुद पर थोपा गया विश्वास मत हासिल करके मनमोहन सिंह ने देश का राजनीतिक माहौल पूरी तरह से बदल दिया. आज कांग्रेस मजबूत स्थिति में है और अब पार्टी भारत-अमेरिका परमाणु करार को ये कहकर एक चुनावी मुद्दा बना सकती है कि वह देशहित के लिए सरकार का बलिदान देने को भी तैयार थी. उधर, अपने लक्ष्य से चूके वाममोर्चे को समझ ही नहीं आ रहा कि वह क्या करे. क्रॉसवोटिंग के लिए सांसदों को घूस देने का मुद्दा उछालने के बावजूद भी भाजपा किसी पिटे हुए खिलाड़ी की तरह नजर आ रही है और पिछले हफ्ते के दौरान लगातार हमलावर रहीं मायावती अब टक्कर देने वाले से ज्यादा किसी अवसरवादी नेता जैसी नजर आ रही हैं.जुनून से भरे इस भाषण में मनमोहन ने पिछले चार सालों से उनके भीतर उबलती रही सारी भड़ास निकाल दी थी. इस बात से कम ही लोग इनकार करेंगे कि तंज और हमला उनकी शैली नहीं है मगर इस भाषण में ये दोनों तत्व मौजूद थे.

राजनीतिक नजरिये से देखा जाए तो मंगलवार जिन लोगों के लिए सबसे ज्यादा फायदेमंद रहा उनमें से एक प्रधानमंत्री भी हैं. पिछले पांच सालों से सरकार के इस मुखिया पर चौतरफा हमले किए गए. किसी के लिए वह कठपुतली थे, किसी के लिए सोनिया की छाया तो किसी के लिए अदृश्य प्रधानमंत्री. वोटिंग के दिन प्रधानमंत्री को संसद में भाषण देना था जिसे वे अपने साथ लिखकर लाए थे. मगर हंगामा इतना था कि वे ऐसा नहीं कर पाए. मगर उनके भाषण की समाप्ति दिलचस्प थी. शब्दों पर गौर करें, मैं कई बार कह चुका हूं कि मेरा राजनीतिज्ञ होना एक संयोग है….अपने कार्यकाल के दौरान हर दिन मैंने ये याद रखने की कोशिश की है कि मेरी जिंदगी के शुरुआती दस वर्ष एक ऐसे गांव में गुजरे जहां न बिजली थी, न सड़क, न अस्पताल और न ही ऐसी कोई चीज जिसे हम आधुनिक रहन-सहन से जोड़ सकें. स्कूल के लिए मुझे मीलों पैदल चलना पड़ता था और पढ़ाई मिट्टी के तेल के लैंप की मद्धम रोशनी में करनी पड़ती थी…इस ऊंचे पद पर रहते हुए मैंने जो भी किया है वह स्वच्छ अंतरात्मा के साथ और दिल में अपने देश व इसके लोगों के भले को सोचकर किया है. मुझे और कोई दावा नहीं करना है.” 

जुनून से भरे इस भाषण में मनमोहन ने पिछले चार सालों से उनके भीतर उबलती रही सारी भड़ास निकाल दी थी. इस बात से कम ही लोग इनकार करेंगे कि तंज और हमला उनकी शैली नहीं है मगर इस भाषण में ये दोनों तत्व मौजूद थे. प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार संजय बारू ने तहलका को बताया कि मनमोहन ने खुद ही ये भाषण तैयार किया था. वाममोर्चे पर निशाना साधते हुए उनके शब्द थे, वे चाहते थे कि मैं उनके बंधुआ मजदूर की तरह व्यवहार करूं.उन्होंने आडवाणी को भी नहीं बख्शा,क्या हमारा देश एक ऐसे गृहमंत्री को माफ कर सकता है जो संसद पर आतंकी हमले के वक्त सो रहा था? क्या हमारा देश एक ऐसे गृहमंत्री को माफ कर सकता है जे बाबरी मस्जिद ढहने और उसके बाद बाद जो कुछ हुआ, उसका प्रेरणा स्रोत था? क्या हमारा देश उस गृहमंत्री के व्यवहार को उचित कह सकता है जो उन गुजरात दंगों के समय सो रहा था जिनमें हजारों बेगुनाहों की जानें गईं? वाममोर्चे के हमारे मित्रों को सोचना चाहिए कि अपने महासचिव (सीधा निशाना प्रकाश करात की तरफ था ) की चूक के परिणामस्वरूप वे किसके पाले में खड़े हैं. 

भारतीय राजनीति के निर्विवादित मिस्टर क्लीन इस बात से अवगत होंगे कि भले ही विश्वासमत पर फैसला उनके लिए सुखकारी रहा हो लेकिन इसकी चमक उस समय थोड़ी धुंधली पड़ गई जब भाजपा के तीन सांसदों ने ये कहते हुए संसद में नोटों के बंडल लहराने शुरू कर दिए कि उन्हें क्रॉसवोटिंग के लिए एक करोड़ रुपये की अग्रिम धनराशि का भुगतान किया गया है. किसी भी जीत के साथ चुनौतियां भी आती हैं और ये चुनौती तो तब आई जब वोटिंग में थोड़ा ही वक्त बाकी रह गया था. पिछली शाम को ही मनमोहन ने खुली चुनौती के अंदाज में कहा था कि अगर किसी के पास सांसदों की खरीद-फरोख्त का सबूत हो तो हो वह उसे सबके सामने लाए. अगले ही दिन सबूत नोटों की शक्ल में पूरे देश के सामने था और खुद को खरीदे जाने की कोशिश का आरोप लगाते ये सांसद सीधे-सीधे सपा महासचिव अमर सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल का नाम ले रहे थे. 

इसकी प्रतिक्रिया में अमर सिंह ने मानहानि का आरोप लगाते हुए भाजपा पर जबर्दस्त जवाबी हमला करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. कांग्रेस ने भी तीखे तेवर अपनाए. भ्रष्टाचार का सहारा लेने के विपक्षी दलों के आरोप पर पार्टी प्रवक्ता अभिषेक सिंघवी कहते हैं, क्षेत्रीय दलों खासकर उत्तर प्रदेश की किसी पार्टी का हमें राजनैतिक नैतिकता का उपदेश देना किसी राक्षस द्वारा वेदों के श्लोकों को उद्धृत करने से भी बुरा है. हालांकि यही सवाल कांग्रेस के एक दूसरे प्रवक्ता के सामने उठाने पर ऑफ द रिकार्ड एक अलग जवाब मिलता है, अब इसे मान भी लेना चाहिए. ये एक धब्बा है और ये तो बस शुरुआत है. बहुत कुछ इस पर निर्भर करेगा कि क्या हम निष्पक्ष जांच की इजाजत देते हैं और अगर अपराध सिद्ध हो जाता है तो क्या हम उस फैसले का सम्मान करते हैं. कल तक विपक्ष हम पर महंगाई और राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर हमला कर रहा था. अब चुनाव में भ्रष्टाचार का मुद्दा भी जुड़ गया है. ऑफ द रिकॉर्ड किसी कांग्रेसी से अमर सिंह के बारे में पूछिए तो रूखा सा जवाब आता है: चुनाव में अमर सिंह का साथ महंगाई से भी ज्यादा खतरनाक है. अगर वामदलों ने समर्थन खींचकर फिर से रफ्तार पकड़ने में कांग्रेस की मदद की है तो अमर सिंह ने यूपीए की इस जीत में अधूरापन पैदा कर दिया है. 

हालांकि दूसरी तरफ प्रबल संभावना इस बात की भी है कि कांग्रेस-सपा चुनावी गठबंधन हकीकत में बदल सकता है. आखिर दोनों ही पार्टियां समाजवाद का चोला ओढ़ने के बावजूद पूंजीवाद के प्रति सहज रही हैं. मुस्लिम वोटों के प्रति लगाव और मायावती, वामदलों और भाजपा के प्रति दुश्मनी भी दोनों के एक मंच पर आने का आधार बनाती है. उत्तर प्रदेश में उनका गठबंधन आने वाले चुनावों में अहम भूमिका निभा सकता है. जैसा कि विज्ञान और तकनीकी मामलों के मंत्री कपिल सिब्बल कहते हैं,उत्तर प्रदेश में हमें गठबंधन के साथ चुनाव लड़ने की आवश्यकता है क्योंकि जब हम अकेले मैदान में उतरे तो हमें हार का मुंह देखना पड़ा. कम से कम हमारे पास जीत की संभावनाओं वाला एक गठबंधन होगा.” 

कम ही लोग जानते हैं कि कांग्रेस ने करीब एक साल पहले से ही सपा को दोस्ती के संकेत भेजने शुरू कर दिये थे. मायावती के हाथों अपमानजनक हार के बाद अपने घाव सहला रही सपा के लिए ये संकेत ऐसे समय पर आए थे जब वह इस बात पर विचार कर रही थी कि उसे भी एक चुनावी गठबंधन की जरूरत है. भाजपा के साथ जाने का तो सवाल ही नहीं था ऐसे में इसके लिए कांग्रेस ही एकमात्र विकल्प थी. जैसा कि सपा के एक वरिष्ठ सांसद कहते हैं,हमें ये समझ में आ रहा था कि हम एक ही समय पर भाजपा और कांग्रेस दोनों के विरोधी नहीं हो सकते.” इस गठबंधन की संभावनाओं पर पहले पानी तब पड़ा जब ये प्रस्ताव लेकर लखनऊ पहुंचे कांग्रेसी ने अमर सिंह के बिना समाजवादी पार्टी से तालमेल की पेशकश की. मुलायम सिंह यादव ने इसे ठुकरा दिया. अमर सिंह को जब पता चला कि पार्टी कांग्रेस से गठबंधन की संभावना पर विचार कर रही है तो उन्होंने इस्तीफे की धमकी तक दे डाली. दोनों दलों के साथ आने का रास्ता औपचारिक रूप से तभी प्रशस्त हुआ जब कांग्रेस अमर सिंह को मध्यस्थ बनाने के लिए सहमत हो गई. बहरहाल सीधी सी बात ये है कि दोनों पार्टियों को ही एक दूसरे की जरूरत थी और कांग्रेस को ये भी अहसास होगा कि अमर सिंह की मांगें उनके उस कॉर्पोरेट एजेंडे से भी आगे जाएंगी जिसके बारे में हर कोई जानता है. कांग्रेस ने करीब एक साल पहले से ही सपा को दोस्ती के संकेत भेजने शुरू कर दिये थे. मायावती के हाथों अपमानजनक हार के बाद अपने घाव सहला रही सपा के लिए ये संकेत ऐसे समय पर आए थे जब वह इस बात पर विचार कर रही थी कि उसे भी एक चुनावी गठबंधन की जरूरत है.

विश्वासमत की लड़ाई जीतने के बाद फिलहाल तो अब कांग्रेस इस बात पर ध्यान केंद्रित कर रही है कि वह सूचना के अधिकार और राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना जैसी अपनी उपलब्धियों को किस तरह वापस केंद्रीय मंच पर लाए. पार्टी में भले ही उत्साह का माहौल हो मगर वो जानती है कि गठबंधन और खासकर वह खुद आगामी चुनावों के लिए पूरी तरह से तैयार नहीं है. सवाल कई हैं. मसलन देश में कितने लोग जानते हैं कि परमाणु समझौते से उन्हें क्या फायदा होगा?  परमाणु ऊर्जा के वादे से क्या आम आदमी बढ़ती महंगाई की मुश्किलें भूल जाएगा?  कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, हमें परमाणु समझौते को बिजली के संदर्भ में समझाना होगा. मगर उससे पहले हमें ये समझाना होगा कि परमाणु शक्ति का मतलब क्या है. 22 जून को अपने भाषण में राहुल गांधी ने विदर्भ की एक विधवा कलावती का जिक्र किया था जिसके बच्चों को मिट्टी के तेल के लैंप की रोशनी में पढ़ाई करनी पड़ती है. ये इस बात का संकेत हो सकता है कि कांग्रेस अपनी इस उपलब्धि को ग्रामीण इलाकों में किस तरह प्रचारित करेगी.  

मगर क्या बिजली इतनी महत्वपूर्ण है कि रोटी, कपड़ा और मकान को भूल जाया जाए? पार्टी प्रवक्ता मनीष तिवारी कहते हैं,मुद्रास्फीति की दर स्थिर होना शुरू हो गई है. वामदलों से मुक्ति मिलने के बाद सुधारात्मक उपायों को सख्ती से लागू किया जाएगा. हम ये सुनिश्चित करेंगे कि जब हम चुनाव में उतरें तो महंगाई कोई मुद्दा ही न हो.” 

आम चुनाव के लिए अपनी रणनीति बनाने से पहले कांग्रेस को राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, मिजोरम और जम्मू एवं कश्मीर में हो रहे चुनाव की लड़ाई में उतरना है. पार्टी में इस बात पर विचार चल रहा है कि इन चुनावों में परमाणु करार और संसद में विश्वास मत पर मिली जीत के जरिये छलांग लगाई जाए. कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता बताते हैं, हम मनमोहन सिंह को एक ऐसे सख्त प्रधानमंत्री के तौर पर पेश करेंगे जो देशहित में सख्त फैसले लेने से पीछे नहीं हटा. उन्हें एक ऐसे नेता के रूप में प्रस्तुत किया जाएगा जो कुर्सी से चिपके रहने के लिए दबाव के आगे नहीं झुका. अभिषेक सिंघवी जोड़ते हैं,ये मत भूलिए कि विश्वास मत सिर्फ परमाणु करार पर नहीं था. इसके दायरे में सरकार की काबिलियत से लेकर इसका अब तक का प्रदर्शन जैसे सभी कारक शामिल थे. देश जल्द ही देखेगा कि सरकार के बंधे हाथों के खुल जाने का अर्थव्यवस्था पर कितना जीवनदायी असर पड़ता है.” 

कई मायनों में सोच भले ही स्पष्ट हो मगर स्थितियां चिंताजनक भी हैं. जैसाकि कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता बताते हैं, निश्चित रूप से करार को विकास के नजरिये से पेश किए जाने की जरूरत है. मगर ऐसा करने वाले कहां हैं? कांग्रेस एक सर्कुलर संगठन बन चुका है. एआईसीसी यानी आल इंडिया कांग्रेस कमेटी से एक सर्कुलर पीसीसी यानी प्रदेश कांग्रेस कमेटी को जाता है. यहां से ये सर्कुलर डिस्ट्रिक्ट कमेटी और फिर ब्लॉक कमेटी के पास जाता है और उसके बाद ये किसी फाइल में रख दिया जाता है. उनकी चिंता अतिश्योक्ति नहीं है. वास्तव में देखा जाए तो 250 जिले ऐसे हैं जहां कांग्रेस के पास जिला कमेटी ही नहीं है. एक दूसरा उदाहरण देखिए. राजिंदर कौर भट्टल को साल भर पहले पंजाब प्रदेश कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष बनाया गया था मगर अब तक उनके पास कोई कमेटी नहीं है. ऐसे में समस्या दोहरी है, पहली, कांग्रेस के प्रबंधक इस समझौते को किस तरह चुनावी लाभ में तब्दील करने की योजना बनाएंगे और दूसरी, इस योजना को अमली जामा किस तरह पहनाया जाएगा. 

शायद इसका जवाब राहुल का संसद में दिया गया भाषण दे सकता है. वह भाषण जिसमें राष्ट्रवाद का वह मुद्दा छिपा है जिसे भाजपा पिछले एक दशक से भुनाने की कोशिश कर रही है. कम से कम कागज पर ही सही, कांग्रेस के पास एक ब्लूप्रिंट तैयार है. वह सांप्रदायिकता का मुकाबला राष्ट्रवाद से और वाममोर्चे का सामना इस बात पर जोर देकर कर सकती है कि देशवासियों के लिए प्रधानमंत्री अपनी सरकार तक कुर्बान करने के लिए तैयार थे. नौजवान भारत को लुभाने के लिए युवा राहुल गांधी को इस्तेमाल किया जा सकता है और हर दिन अपना नेता बदलने के लिए तीसरे मोर्चे की खिल्ली उड़ाई जा सकती है. ये एक ऐसी लड़ाई है जो निश्चित तौर पर व्यक्तिगत दायरे में आ जाएगी. प्रधानमंत्री कार्यालय के सूत्रों की मानें तो मनमोहन सिंह, लालकृष्ण आडवाणी और प्रकाश करात से आने वाले दिनों में सीधे भिड़ने की भी तैयारी में हैं.  

और लगता भी है कि मनमोहन ने इसके लिए खुद को तैयार कर लिया है. अपने नए अवतार में वे सीधी बात करते हैं. विश्वास प्रस्ताव पर वोटिंग से पहले उनके भाषण के शब्दों पर गौर करें, जब मैं अपने सामने बैठे अवसरवादी समूहों को देखता हूं तो मुझे साफ तौर पर ये अहसास हो जाता है कि आज लड़ाई भारत के भविष्य के दो अलग-अलग सपनों के बीच है. पहला सपना यूपीए का है जो भारत को आत्मविश्वास से भरपूर एक राष्ट्र के रूप में आगे बढ़ते हुए और वैश्वीकरण के इस दौर में मिलने वाले अवसरों को भुनाकर अंतरराष्ट्रीय समुदाय में अपना जायज मुकाम हासिल करते हुए देखना चाहता है…इसके उलट एक सपना हमारे सामने बैठी भीड़ का है जो अपने  पृथकतावादी, गुटीय और संकीर्ण हितों के लिए सत्ता पाने हेतु साथ में हैं. हमारे वामपंथी साथी हमें बताएं कि क्या उन्हें प्रधानमंत्री उम्मीदवार के रूप में श्री लालकृष्ण आडवाणी स्वीकार्य हैं.  श्री आडवाणी हमें बताएं कि क्या वे तीसरे मोर्चे के उम्मीदवार के पक्ष में प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी उम्मीदवारी छोड़ देंगे. उन्हें इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर देश को विश्वास में लेना चाहिए…” 

जल्द ही एक विश्वासमत पर फिर से वोट होगा और इस बार परीक्षा जनता की अदालत में होगी. इस सवाल का जवाब ज्यादा दूर नहीं है कि कांग्रेस का ये आभामंडल कब तक और कितना टिकाऊ रह पाएगा. साफ-साफ कहें तो अक्टूबर तक जवाब मिल जाना चाहिए.