आप इन्हें ओमकारा के रज्जू के रूप में बेहतर जानते होंगे जो अपने आसपास के बड़े सितारों के बीच जब यह कहकर नदी में कूदता है कि उसे तैरना नहीं आता तो दरअसल ऐक्टिंग के पानी का वह खूबसूरत तैराक है. रज्जू की मंगेतर को नायक ने मंडप से उठा लिया है और दीपक डोबरियाल के अभिनय में यह दोहरी खूबी है कि उसे कुशलता से निभाते हुए भी वे किसी भी पल उस किरदार से सहानुभूति नहीं जगने देते. हां, वे अपने ‘अजी हां’ और ‘चल झुट्टा’ के साथ याद पक्का रहते हैं.
यूं तो यह फिल्मी व्याकरण की एक घिसी-पिटी कहावत है कि अच्छे अभिनेता एक सीन से भी आपको याद रह जाते हैं लेकिन बहुत सारे प्रतिभावान अभिनेताओं के साथ दीपक के लिए भी इस कहावत का इस्तेमाल जरूरी है. फिर वह चाहे ‘दिल्ली 6’ का हलवाई हो, ‘शौर्य’ का चुप्पा कैदी कैप्टेन हो, ‘ब्लू अम्ब्रेला’ के भला अंग्रेजी में भी कोई झूठ बोलता है? वाले कुछ सेकंड हों या गुलाल का एक दृश्य जिसमें पान की दुकान पर खड़े दीपक एक शब्द भी नहीं बोलते और उनकी हल्की मुस्कुराहट और आंखों की हरकत का कॉम्बिनेशन दिल जीत लेता है.
‘ वह ईमानदार भी है और स्वार्थी भी, बुद्धू भी है और समझदार भी ‘
पौड़ी गढ़वाल के काबरा गांव में जन्मे और दिल्ली में पले-बढ़े दीपक से यह पूछा जाए कि ऐक्टर बनने का खयाल पहली बार उनके दिल में कब आया तो जवाब में मिलने वाली जगह, जहां यह खयाल आया, वाकई दिलचस्प है. उनके स्कूल में प्रार्थना और राष्ट्रगान के तुरंत बाद वहीं हाजिरी ली जाती थी. दीपक सबसे आगे खड़े होकर रोल नंबर बोलते थे. शुरू में यह घबराहट का काम होता था जिसमें उनके पैर कांपते थे लेकिन बाद में उन्हें इसमें मजा आने लगा. और तो और, वे उसी दौरान इशारों और आवाज के उतार-चढ़ाव का इस्तेमाल करके अपने दोस्तों से बात भी कर लेते थे. तब उनमें पहली बार मंच का मोह जगा और उसका केंद्र बनने का इसके तुरंत बाद उन्होंने पढ़ाई को कॉरस्पोंडेंस के हवाले करके थिएटर की राह पकड़ ली और सात साल दिल्ली में नाटक करते रहे, छह साल अरविंद गौड़ के साथ ‘अस्मिता’ में और एक साल पं. एनके शर्मा के निर्देशन में. मां को उनका यह शौक जितना भाता था, पिताजी उतना ही अपने बेटे के करियर के लिए परेशान होते थे. उन्हें सरकारी नौकरी के लिए बेटे के ओवरएज हो जाने की फिक्र होती जा रही थी और बेटा मुंबई चला गया था. फिर संघर्ष के कुछ साल थे, लेकिन दीपक मानते हैं कि मुंबई में इतने लोग संघर्ष कर रहे होते हैं कि एक सामूहिक हौसला आपको आगे खींच ले जाता है. हालांकि वह संघर्ष एक अलग स्तर पर अब भी जारी है. अब ऑफर काफी मिलने लगे हैं लेकिन उन्हें ऐसी भूमिकाओं की तलाश है जिनमें वे अपनी सीमाओं से भी आगे जा सकें. उनके किरदारों का आकार भी बढ़ता जा रहा है और वैराइटी भी. जहां इसी शुक्रवार रिलीज हुई बेला नेगी की ‘दाएं या बाएं’ में वे मुख्य भूमिका निभा रहे हैं वहीं मृगदीप लांबा की कॉमेडी ‘तीन थे भाई’ में वे श्रेयस तलपड़े और ओम पुरी के साथ हैं. उनका चेहरा-मोहरा बॉलीवुड की मुख्यधारा के परंपरागत नायकों जैसा नहीं है और इस बात से वे कभी परेशान भी नहीं दिखते. शायद वे खुद भी मुख्यधारा की फॉर्मूला कहानियों के सांचे में खुद को असहज ही महसूस करते.
बेला नेगी उन्हें बेहद मासूम बताती हैं. उन्हें लगता है कि उनकी फिल्म के नायक के चरित्र की जितनी विरोधाभासी परतें हैं – वह ईमानदार भी है और स्वार्थी भी, बुद्धू भी है और समझदार भी – उन्हें दीपक हर बारीकी के साथ जी गए हैं. इसके बावजूद कि उनकी मुख्य भूमिका वाली पहली फिल्म ‘दाएं या बाएं’ का ठीक से प्रचार नहीं हो पाया या यह उत्तराखंड में ही रिलीज नहीं हो पा रही, जहां की यह कहानी है या वैसी फिल्मों का बाजार थोड़ा छोटा है जिन्हें वे करना चाहते हैं, दीपक के भीतर कोई गिला नहीं दिखता. उनमें एक स्थायी सकारात्मकता है जो खिलंदड़पने या बेफिक्री जैसी भी लगती है लेकिन उसकी जड़ें शायद उनके पहाड़ी गुणसूत्रों में हैं. वे उस बल्लेबाज की तरह हैं जो आपको विज्ञापनों में या अपने स्टाइलिश शॉट्स के गुण गाता हुआ भले ही न दिखे लेकिन बात उस पर छोड़ोगे तो वह मैच निकाल ले ही जाएगा.