आपकी पसंदीदा विधा कौन-सी है ?
मुझे लगता है कि कविता अधिकांश रचनाकारों की प्रथम प्रेयसी होती है किन्तु कविता का विधागत रूप एक ही साथ सरल है तो अत्यन्त सूक्ष्म-जटिल-दुरूह भी. दूसरी ओर विषयों का आत्यान्तिक-आन्तरिक दवाब अपने अनुरूप विधा और शिल्प की तलाश कर लेता है. इन्हीं कारणों से मैं भी कविता से उपन्यास लेखन तक पहुँचा हूँ किन्तु पहले प्यार को कौन भूलता है.
इन दिनों क्या पढ़ रहे हैं ?
शताब्दी वर्ष के महाकवियों में केदारनाथ अग्रवाल उपेक्षित से रहे हैं. उन पर सामग्री खोज-खोज कर पढ़ रहा हूँ. फेलिक्स पैडल की दोनों किताबें ‘सेक्रिफाइसिंग पीपुल’ और ‘आउट ऑफ दिस अर्थः ईस्ट इन्डिया आदिवासिज एड द अल्युमिनियम कार्टेल’ अभी मेरे सामने हैं. मेरे नये उपन्यास का नायक मुण्डा जनजाति का है इसीलिए फादर हॉफमैन की ‘एन्साक्लोपीडिया मुन्डारिका’ में भी रह-रह कर डुबकी लगा रहा हूँ. साहित्य अकादमी से पुरस्कृत मैथिल कवि विवेकानन्द ठाकुर की अद्भुत काव्य रचना ‘अकेला खड़ा’ अभी खत्म की है.
आपके पसंदीदा रचनाकार कौन से हैं ?
पूर्वज, वरिष्ठ, वरीय और समकालीन सभी रचनाकारों की सुकृतियाँ मन को छूती रही हैं अतएव किन्ही का नाम लूँ किन्ही को छोड़ दूँ यह उचित नहीं है. सच कहूँ तो हिन्दी ही क्यों अन्य भारतीय भाषाओं, अंग्रेजी, रूसी, स्पेनिस, तुर्की आदि के भी सर्वकालिक महान रचनाकारों ने मेरे अभ्यान्तर को गढ़ने में जो भूमिका निभाई है उनसे उऋण नहीं हुआ जा सकता.
किन्तु देश के जिस खनिज-वन क्षेत्र में जिन आदिवासी जनों के बीच साँसे लेता हूँ उनकी पीड़ा को शब्द देने वाले रचनाकार महाश्वेता, अरुंधति, संजीव, मैत्रेयी पुष्पा और समकालीन पंकज मित्र थोड़े ज्यादा नजदीक लगते हैं.
बेवजह मशहूर हो गई कोई रचना या लेखक ?
यह वाद-ववाद-संवाद प्रिय लोगों का प्रियतम प्रश्न है. मुझे लगता है कि विषयगत या शिल्पगत नवीनता किसी रचना को चर्चा में लाती है किन्तु उसकी गहराई ही उम्र तय करती है. लेकिन यह भी सत्य है कि केदारनाथ अग्रवाल , राही मासूम रजा, अमृतलाल नागर जैसे अनेक रचनाकार भिन्न-भिन्न कारणों से किनारे खिसका दिए गए. इनके पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता है.
हिन्दी में पढ़ने की रवायत कायम रहे इसके लिए क्या किया जाए ?
मेरे मित्र प्रसन्न कुमार चौधरी ठीक ही कहते हैं कि प्रकाशकों ने हिन्दी के बाजार की ताकत को अभी समझा ही नहीं है. छोटे शहरों-कस्बों में जो लाखो पाठक हैं उन तक निरन्तर और सहज पहुँच बनाने की कोई कोशिश नहीं की गई. हिन्दी पट्टी के हजारो कस्बों में हिन्दी साहित्य का जुनूनी पाठक है, इनके सर्वेक्षण, पाठ्य पुस्तकों की दूकानों में साहित्यिक पुस्तकों के लिए स्थायी जगह, आपूर्ति की निरन्तर प्रवाह, आक्रमक प्रचार-प्रसार चन्द वर्षों में ही पाँच सौ प्रतियों के संस्करण को लाख प्रतियों तक पहुँचा सकता है. पूँजी की कमी नहीं, बल्कि सरकारी खरीद से मोटे मुनाफे की दृष्टि हिन्दी प्रकाशकों को ‘उद्यमी’ बनने से रोके हुए है. यह एक साथ पढ़ने की रवायत, पाठक, रचना और रचनाकार के साथ किया जा रहा अक्षम्य अपराध है.
रेयाज़ उल हक़