दरभंगा जिले के कुशेश्वरस्थान प्रखंड से चलने वाली नाव दो घंटे में 12 किमी दूर समोरा घाट पहुंचाती है. यहां से हमें रामचंद्र सदा के घर जाना है. आशंका के विपरीत हमें उनका घर ढूंढ़ने में कोई दिक्कत नहीं होती क्योंकि इस इलाके में लगभग हर कोई उन्हें जानता है. कुछ देर पैदल चलकर हम मुसहरटोला पहुंचते हैं, यहीं एक किनारे पर अपनी फूस की झोपड़ी के आगे रामचंद्र से हमारी मुलाकात होती है. बीमारी से दुबले हो गए शरीर पर बैठ रही मक्खियों को भगाते हुए वे हमें बैठने को कहते हैं.
बैठते ही हमें पता चल जाता है कि हम एक ऐसे इलाके में हैं जहां गीदड़ के काटने और गोली लगने में कोई फर्क नहीं किया जाता. रामचंद्र हमें अपने 12 वर्षीय बेटे पंकज की पोस्टमार्टम रिपोर्ट दिखाते हैं. रिपोर्ट बताती है कि पंकज सदा की मौत गोली लगने से हुई थी. लेकिन दरभंगा मेडिकल कॉलेज व अस्पताल की इस रिपोर्ट और पंकज के अंतिम इलाज में कोई समानता नहीं है. कुशेश्वरस्थान प्रखंड के प्राथमिक चिकित्सा केंद्र में इस 12 वर्षीय किशोर को लगाया गया अंतिम इंजेक्शन उस दवा का था जिसे गीदड़ के काटने पर लगाया जाता है. चिकित्सा केंद्र के डॉक्टर सहित सारे गांववालों को पता था कि पंकज को गीदड़ ने नहीं काटा है बल्कि उसे गांव के एक भूस्वामी नारायण यादव के बेटे ने गोली मारी है. लेकिन इससे डॉक्टर को कोई फर्क नहीं पड़ा. उसने गीदड़ के काटने का ही इलाज किया क्योंकि उसे इलाके के प्रभावशाली लोगों से दुश्मनी मोल नहीं लेनी थी. आखिरकार इलाज के दौरान ही पंकज की मौत हो गई. इससे नाराज गांववाले लाश को लेकर दरभंगा मेडिकल कॉलेज एवं हॉस्पिटल ले गए, जहां से यह पोस्टमार्टम रिपोर्ट आई. लोगों के काफी दबाव के बाद किसी तरह प्राथमिकी तो दर्ज हुई लेकिन पुलिस अभी तक आरोपित हत्यारे को नहीं पकड़ सकी है. पंकज ही रामचंद्र के घर में आमदनी का एकमात्र जरिया था. वह इसी गांव के नारायण यादव के यहां काम करता था, जिनके यहां उसकी तीन साल की मजदूरी भी बाकी थी. इस साल मई में जब उसने बकाया मजदूरी मांगी तो उसे गोली मार दी गई.
यह परियोजना 2.14 लाख हेक्टेयर जमीन को बाढ़ से बचाने के लिए शुरू की गई थी, लेकिन आधी सदी से अधिक समय बीत जाने के बाद इसके कारण 4.26 लाख हेक्टेयर जमीन पानी में डूबी रहती है
इसके पहले रामचंद्र के घर में एक और मौत हो चुकी है. एक ही साल पहले उन्होंने अपनी पत्नी को भी खोया है. वे समझ भी नहीं पाए कि उनकी पत्नी को कौन-सी बीमारी हुई थी. इलाज कराने के लिए पर्याप्त पैसे नहीं थे. वह कमजोर होती जा रही थी और फिर एक दिन उसकी मौत हो गई. आप चाहें तो रामचंद्र सदा के साथ घटी इन घटनाओं के लिए कई वजहें गिना सकते हैं. लेकिन इलाके में ऐसी नियति वाले वे अकेले नहीं हैं. 46 साल के रामचंद्र सदा वास्तव में इतनी ही साल पुरानी एक परियोजना की कीमत चुका रहे करीब 12 लाख लोगों में से एक हैं.
दरअस्ल पिछली कई सदियों से बिहार में बाढ़ की तबाही ला रही कोसी नदी को नियंत्रित करने के लिए 1955 में कोसी परियोजना शुरू की गई थी. इसके तहत कोसी के पूर्वी और पश्चिमी, दो तटबंधों का निर्माण किया गया था. इसका 125 किलोमीटर लंबा पूर्वी तटबंध वीरपुर से कोपड़िया तक फैला हुआ है और 126 किलोमीटर लंबा दूसरा पश्चिमी तटबंध नेपाल के भारदह से सहरसा के घोंघेपुर तक है. इन परियोजनाओं से 10 लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई की योजना भी बनाई गई और साथ में सुपौल के कटैया में एक जल विद्युत परियोजना स्थापित करके 16 मेगावाट बिजली पैदा करने के सपने भी देखे गए. लेकिन कोसी को नियंत्रित नहीं किया जा सका.
1893 में कोसी में आने वाली बाढ़ और तबाही का अध्ययन करने आए बंगाल के तत्कालीन मुख्य इंजीनियर डब्ल्यूए इंग्लिश का कहा पूरा हुआ. इंग्लिश ने कोसी पर किसी भी निर्माण कार्य से मना किया था, क्योंकि उसके अनुसार ये तटबंध इन नदियों की प्रकृति को देखते हुए तबाही लाने वाले साबित होंगे. इंग्लिश को सही ठहराते हुए बनने के बाद से इन तटबंधों ने जितनी तबाही को रोका है, उससे कहीं अधिक तबाही ये इन इलाकों में लेकर आए हैं. तटबंधों के ऊपरी इलाकों में बाढ़ और कटाव की भयानक समस्या न सिर्फ आज भी मौजूद है बल्कि यह साल दर साल बढ़ती ही जा रही है. बिहार के लोग 2008 की प्रलयंकारी बाढ़ को अब भी नहीं भूले हैं. दूसरी ओर तटबंधों के निचले इलाके में जलजमाव शुरुआत से ही एक बड़ी समस्या के रूप में उभरा. यह परियोजना 2.14 लाख हेक्टेयर जमीन को बाढ़ से बचाने के लिए शुरू की गई थी, लेकिन आधी सदी से अधिक समय बीत जाने के बाद इसके कारण 4.26 लाख हेक्टेयर जमीन पानी में डूबी रहती है. कोसी परियोजना के दूसरे फायदों की बात ही क्या की जाए. परियोजना की दोनों नहरें ही बमुश्किल अपने लक्ष्य की 6 से 10 फीसदी जमीन ही सिंचित कर पाती हैं. कोसी की धारा के साथ आने वाली गाद के कारण जलविद्युत परियोजना भी ठप पड़ी हुई है. हम इसमें पुनर्वास के उन वादों को भी शामिल नहीं करेंगे जो इस योजना से विस्थापित हुए लोगों से किए गए और कभी पूरे नहीं हुए. इन वादों में जो कुछ पूरा हुआ उसमें मुआवजे के रूप में मिली जमीन थी, लेकिन वह दशकों से जलजमाव में डूबी हुई है.
कुशेश्वरस्थान भी उन जगहों में से एक है जहां साल भर पानी जमा रहता है. और इसके लिए अकेले कोसी जिम्मेदार नहीं है. इस इलाके में तीन नदियां मिलती हैं- कोसी, कमला और बागमती. पहले कोसी पर तटबंध बना और इसके बाद 1968 में आई बाढ़ के बाद कमला पर. तीसरा तटबंध बागमती पर बना है जिसमें लगभग 8 मील तक तटबंध को खुला छोड़ दिया गया है. बाढ़-सूखे से जुड़े मामलों के जानकार दिनेश कुमार मिश्र इसे परियोजना से जुड़े अध्ययनकर्ताओं और इंजीनियरों की नाकामी का नतीजा बताते हैं. वे कहते हैं, ‘तीन नदियों के संगम स्थल पर तटबंधों का जाल बिछा दिया गया और इस पर जरा भी ध्यान नहीं दिया गया कि पानी की निकासी कैसे होगी.’
कोसी का तटबंध कुशेश्वरस्थान से 4 कोस दक्षिण में खत्म हो जाता है. इसके बाद नदी की मुक्त हुई धारा आसपास के इलाकों में फैल जाती है. पास ही में कमला नदी की धारा कोसी में मिलती है और इसका पानी भी इलाके में फैल जाता है. बागमती के तटबंध के खुले बांध से निकली गाद और पानी भी इसी इलाके में जमा होता है. बिहार राज्य खेल प्राधिकरण के पूर्व महानिदेशक और सामाजिक कार्यकर्ता रामचंद्र खां इसी इलाके के हैं. वे भी इस परियोजना के पीड़ितों में से हैं. वे बताते हैं, ‘कोसी, कमला, बलान और बागमती आदि सात नदियों को कुशेश्वरस्थान में लाकर छोड़ दिया गया है. 1956 के बाद एक-एक कर बने तटबंधों के जरिए पूर्णिया, सहरसा से डायवर्ट करके इन्हें कुशेश्वरस्थान के माथे पर छोड़ दिया गया है. कोसी, कुरसेला में गंगा से जाकर मिलती थी. पर फरक्का में बांध बनने के बाद कोसी के गंगा में जाकर मिलने का रास्ता बंद हो गया. कोसी के गंगा में मिलने के सात रास्ते पूर्णिया और भागलपुर में थे. लेकिन उसका जो मुख्य रास्ता था वह फरक्का बांध के कारण बंद हो गया. अब यह पानी खगड़िया से उत्तर घूमता रहता है. इसकी वजह से 400 वर्ग किमी इलाका डूबा हुआ है.’
जब लोगों के संसाधन जलजमाव के कारण खत्म हुए तो लोग बाहर चले गए. सरकार के लिए भी यह सुविधाजनक स्थिति थी कि लोग इस हालत के खिलाफ लड़े नहीं
इस डूबे हुए इलाके में फैले सैकड़ों गांवों में से अधिकतर नदियों के घाट पर ही बसे हुए हैं. और रामचंद्र सदा का गांव समोरा घाट इन सैकड़ों गांवों में से एक है. टापू की तरह दिखने वाले इस गांव को बाकी दुनिया से सिर्फ एक नाव ही जोड़ती है. रामचंद्र के पास अपनी कोई जमीन नहीं है. परंपरागत रूप से वे बंटाई या अधिया पर खेती करके आजीविका कमाते थे. लेकिन जब से इलाके में पानी भरना शुरू हुआ तो खेती करने की संभावनाएं कम होती गईं. जिनके पास अधिक जमीन थी और जो सामर्थ्यवान थे वे किसी तरह अपनी जमीन आदि बेच कर दूसरी जगह चले गए. लेकिन रामचंद्र सदा जैसे हजारों परिवारों के पास एक धुर जमीन भी नहीं थी. वे कहीं और जाकर कैसे बसते? इसलिए उनके घर यहीं बने रहे और उन्होंने मजदूरी के लिए दूसरी जगहों पर पलायन शुरू कर दिया. रामचंद्र सदा भी पंजाब चले गए. दिनेश कुमार मिश्र के अनुसार इस इलाके में 1958 में जब नदियों का पानी खेतों में जमा होना शुरू हुआ, पलायन तब से शुरू हो गया था. वे कहते हैं, ‘जब लोगों के संसाधन जलजमाव के कारण खत्म हुए तो लोग बाहर चले गए. सरकार के लिए भी यह सुविधाजनक स्थिति थी कि लोग इस हालत के खिलाफ लड़े नहीं. इसके साथ ही सामाजिक संतुलन चरमराने के साथ असामाजिक तत्वों का बोलबाला भी बढ़ा.’
हालांकि परियोजना की शुरुआत में सरकार ने पुनर्वास और मुआवजे के वादे किए थे, लेकिन जब वे जमीन पर उतरे तो लोगों को उनकी निरर्थकता का एहसास हुआ. सरकार ने उन इलाकों को पुनर्वास कार्यक्रम से बाहर रखा जिनमें सिर्फ तीन महीनों तक पानी जमा रहता था. सरकार का तर्क था कि बाकी महीनों में उन पर खेती की जा सकती है. इस प्रकार परियोजना से प्रभावितों की एक बहुत बड़ी संख्या को किसी भी तरह की राहत से वंचित कर दिया गया. बाकी जिन पीड़ितों को दो किस्तों में मुआवजा मिलने की घोषणा हुई उन्हें मुआवजे की एक ही किस्त मिली. जिनके घर पानी में डूब गए थे उन्हें घर के लिए दूसरी जमीन मिली जो उनके खेतों से कई किलोमीटर दूर थी और इतनी दूर से खेती संभव न होने के कारण लोगों को अपने खेत बेच देने पड़े.
यह लगभग चार दशक पुरानी बातें हैं. अब तो लोग साल भर ही पानी से घिरे रहते हैं. बाढ़ के दिनों में नाव ही 12 लाख लोगों की सवारी होती है. पानी से घिरे लोग किसी ऊंचे टीले या तटबंध पर शरण लेते हैं. बाढ़ आए या न आए, उन्हें इससे फर्क नहीं पड़ता. उनकी स्थिति में कोई सुधार नहीं होता. लंबे समय से यह स्थिति बनी रहने के कारण इलाके का आर्थिक-सामाजिक तानाबाना तबाह हो चुका है. रोजगार के जो थोड़े-बहुत साधन थे वे भी अब खत्म हो गए हैं. यही नहीं, सरकारी सुविधाएं और सेवाएं भी इस इलाके से लगभग नदारद हैं.
लेकिन विडंबना यह है कि सरकार कुशेश्वरस्थान के गांवों को कोसी से पीड़ित गांवों में शुमार नहीं करती है. बल्कि वह तो कई गांवों के अस्तित्व तक को स्वीकार नहीं करती है. सरकार के मुताबिक सिर्फ 380 गांव ही दोनों तटबंधों के भीतर हैं जबकि तटबंध के भीतर और बाहर जलजमाव से पीड़ित गांवों की संख्या लगभग 950 है.
समोरा घाट के अलावा कुशेश्वरस्थान प्रखंड में 40 और गांव हैं जो बदहाली और तबाही लाने वाली सरकारी परियोजनाओं की कीमत चुका रहे हैं. उनमें कोई अंतर नहीं है, यहां तक कि उनके नाम भी एक जैसे हैं- कोलाघाट, टोकाघाट, तेगछाघाट, महादेवमठ घाट, कुंजभवनघाट, फुलझारीघाट, गईजोरीघाट…
उजवा घाट की दूरी समोरा घाट से दस किलोमीटर है. यहां पहुंचने के लिए एक बार फिर पैदल चलना पड़ता है. इसी पंचायत के तहत ये 40 गांव आते हैं. सात बजे शाम में ही उजवा में श्मशान जैसी शांति पसरी हुई है. हमारी मुलाकात यहां जनता दल (यू) के महादलित प्रकोष्ठ के उपाध्यक्ष रघुनाथ सदा से होती है. रघुनाथ के पास इलाके के दलितों की जमीनी जानकारी है. वे बताते हैं, ‘कुशेश्वरस्थान में दलित मुसहरों की आबादी पचास हजार के करीब है. सब भूमिहीन हैं. उनके घर भी मालिक के खेत में या सरकारी गैरमजरूआ जमीन पर बने हुए हैं. इलाके में मजदूर तो हैं लेकिन उन्हें कोई काम नहीं मिलता है. इसलिए दिल्ली, पंजाब जाने वालों की संख्या इलाके में बहुत ज्यादा है.’ रघुनाथ सदा के पास एक और खास जानकारी है. उनके अनुसार कोसी तटबंध के भीतर सैकड़ों ऐसे गांव हैं जिनका कोई नाम ही नहीं है. ऐसे गांव को नवटोला कहा जाता है. बाढ़ के दिनों में बांध पर या ऊंचे स्थान पर नवटोले बस जाते हैं. उजड़ने और बसने का सिलसिला चलता रहता है.
कोसी तटबंध के भीतर सैकड़ों ऐसे गांव हैं जिनका कोई नाम नहीं है. इन नवटोलों के उजड़ने और बसने का सिलसिला साल भर चलता रहता है
महेंद्र सदा भी उजवा में रहते हैं. सूद ने इलाके के जीवन को दीमक की तरह चाटकर किस तरह खोखला कर दिया है, महेंद्र उसके बारे में बताते हैं, ‘हमलोगों के पास न बसने की जमीन है और न खेत-पथार. मालिक से सूद लेकर घर चलाते हैं. उस सूद को चुकाने के लिए महाजन से कर्ज लेकर बाहर कमाने जाना पड़ता है. फिर कमाते रहते हैं और सूद चुकाते रहते हैं.’ और जैसा कि उजवा के ही एक बुजुर्ग रामसेवक सदा का अनुभव है, ‘मालिक का सूद जिनगी भर नहीं चुकता है.’
इन इलाकों में लंबे समय से जलजमाव ने समाज के सबसे निचले तबके के लोगों से उनके रहे-सहे संसाधन और जीविका के परंपरागत तरीके छीन लिए हैं. खेती चौपट है और बड़े पैमाने पर पलायन ने गांवों के पुराने संबंधों और संगठनों को ध्वस्त कर दिया है. लोग प्रायः बाहर रहते हैं जिनके लिए संभव नहीं होता कि वे अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों का विरोध कर पाएं. वे संगठित होकर अपने अधिकारों और योजनाओं में हिस्सेदारी की मांग भी नहीं कर पाते.
धान और दलहन इस इलाके की सबसे प्रमुख फसलें थीं. लेकिन अब वे सपना हो गई हैं. कभी पानी उतरा तो मक्के की फसल हो जाती है वरना वह भी नहीं. बहुसंख्यक आबादी मछली बेचकर जीवन गुजारती है. पहले जिनके पास खेत नहीं होते वे मवेशी पालकर इसकी भरपाई कर लेते थे. लेकिन जलजमाव ने चरागाहों और घास के मैदानों को तबाह करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी है. अब पशुपालन से होने वाली आय की संभावना भी खत्म हो गई है. यहां निश्चितता सिर्फ घोंघों को लेकर है, जो भरपूर मिलते हैं और लोगों के भोजन में वे लगभग नियमित जगह पा गए हैं. घोंघों के अलावा यहां लगभग हर घर में एक जैसा ही भोजन बनता है, मक्के की रोटी और नमक के साथ लाल मिर्च.
लेकिन इस जलजमाव में एक फसल खूब लहलहा रही है. वह है कालाजार की फसल. पानी जमा होने के कारण मच्छर इस इलाके में भरपूर संख्या में मिलते हैं. अर्जुन सदा पास के दिघिया घाट के हैं. उनके अपने 10 परिजनों की मौत कालाजार से हुई है- पांच भाई, पत्नी, दो बेटियां, भाभी और पिता धनिक सदा. अकेले इस गांव में पिछले एक साल में 40 से अधिक मौतें कालाजार से हुई हैं. 90 परिवारों वाले दलितों के इस गांव में कोई भी परिवार ऐसा नहीं है जिसके किसी न किसी सदस्य की मौत हाल के कुछ वर्षों में कालाजार से नहीं हुई हो. लेकिन इन गांवों में कालाजार से मरने वाले लोगों का कोई लेखा-जोखा सरकार के पास नहीं है. प्रखंड का प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र ऐसी मौतों को दर्ज नहीं करता. इसी तरह डूबकर मरने, सांप के काटने से मौत और बीमारी से होने वाली मौतें भी कहीं दर्ज ही नहीं हैं. उनके ब्योरे सिर्फ गांव के लोगों को याद हैं.
दूसरे राज्यों में गए लोगों की बीमारी या दुर्घटना से जब मौत हो जाती है तो इसकी खबर तक उनके गांव नहीं पहुंच पाती. दिघिया के महेंद्र सदा बताते हैं, ‘पंजाब, हरियाणा से जब पुलिस लावारिश लाशों की सूची लेकर आती है तो वह पटना से ही लौट जाती है. ढाई सौ किलोमीटर दूर रह रहे गांववालों को जिंदगी भर अपनों की मौत की पक्की खबर नहीं मिल पाती.’ जाहिर है कि लापता लोगों की संख्या भी इस इलाके में बहुत अधिक है. रघुनाथ सदा कहते हैं, ‘असमय मौत इस इलाके में एक रूटीन खबर की तरह है.’
उजवा से बारह किलोमीटर पैदल चलने पर आता है घोंघेपुर गांव. कोसी पर बना पश्चिमी तटबंध यहीं खत्म होता है. यह घोंघेपुर दरभंगा जिले के कीरतपुर प्रखंड में पड़ता है. यहां तीन जिलों सहरसा, मधुबनी और दरभंगा की सीमाएं आकर मिलती हैं. मुसलमानों और मुसहर महादलितों का गांव भुभोल शेख भी यहीं है. तटबंध और नदियों के पानी को यहां पहुंचे आधी सदी हो चुकी है, लेकिन कोई सरकारी योजना अब तक इस गांव में नहीं पहुंची है. भूमिहीनों के इस गांव में पलायन और सूद पर लिए गए कर्जे ही जिंदगी को आगे बढ़ाते हैं. यहां की निवासी गुलशन परवीन का परिवार दस लोगों का है. उनके पति बाहर रहते हैं और वहां से कमाकर जो वे भेजते हैं वह सारी रकम इलाज और लिए गए कर्ज का सूद चुकाने में चली जाती है. यहां की रहीमा खातून बताती हैं, ‘गांव के 11 आदमियों से पाली गांव के पंचायत सेवक गंगा पासवान ने इंदिरा आवास के नाम पर दो-दो हजार रुपए लिए. लेकिन किसी को अब तक घर नहीं मिला.’ जिन लोगों ने कर्ज लेकर पंचायत सेवक को रिश्वत दी थी वे अब पंजाब-हरियाणा में मजदूरी करते उसका सूद चुका रहे हैं.
गांव में मुसहरों के 70 परिवार हैं. भूखे, निर्धन और फटेहाल परिवार. यही हालत कीरतपुर में भी है. कीरतपुर, 1967 से विधायक और मंत्री रहे महावीर प्रसाद यादव का गांव है. लेकिन इसमें और दूसरे गांवों में कोई फर्क नहीं. यहां भी नाव से ही पहुंचा जा सकता है. बेघरों और बेरोजगारों की संख्या यहां भी उतनी ही है. पलायन और कुपोषण यहां भी है. बीमारियों का इलाज यहां भी दैवी ताकतों और जंगली जड़ी-बूटियों पर अधिक निर्भर है.
जिस इलाके में सामाजिक संगठनों का अभाव हो वहां भ्रष्टाचार का हदें पार कर जाना सामान्य बात है. इन इलाकों में चल रही सभी सरकारी योजनाएं भ्रष्टाचार के चलते दम तोड़ चुकी हैं.
इसी प्रखंड में बूढ़ी इनायतपुर पंचायत के मुखिया सुधीर कुमार के प्रति लोगों में काफी रोष है. ग्रामीणों का आरोप है कि इतनी बदहाली के बावजूद उन्हें किसी योजना का लाभ नहीं मिलता. सभी योजनाओं की राशि, अनाज और राहत सामग्री प्रखंड अधिकारी और मुखिया मिलकर आपस में बांट लेते हैं. हालांकि सुधीर कुमार इन आरोपों को खारिज करते हुए कहते हैं, ‘इलाके में इतनी गरीबी है कि सबको भरपेट भोजन रिलीफ फंड से नहीं दिया जा सकता है.’ वे महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) में राशि गबन करने के आरोपों को भी खारिज करते हैं. लेकिन इस पंचायत में मनरेगा के तहत 100 से अधिक लोगों के दो लाख सतहत्तर हजार रुपए की राशि को अवैध ढंग से निकाल लेने की सूची तहलका के पास है. यहां 97 महिलाओं ने आरोप लगाया है कि उनसे काम करवा लिया गया और पैसा नहीं दिया गया. दूसरी सरकारी योजनाओं अंत्योदय अनाज योजना, इंदिरा आवास योजना, वृद्धावस्था पेंशन योजना, फसल क्षति पूर्ति योजना, विधवा पेंशन योजनाओं आदि का जमीन पर पता नहीं है. बूढ़े इनायतपुर पंचायत के 120 लोगों ने वृद्धावस्थापेंशन के लिए 2007 में ही आवेदन प्रखंड विकास पदाधिकारी को दिया गया था, लेकिन पेंशन आज तक नहीं मिली है जबकि आवेदन देने वालों में से कम से कम आठ लोगों की इस दौरान मृत्यु ही हो गई. लोगों की बदहाली को थोड़ा कम किया जा सकता था, अगर योजनाएं ढंग से काम करतीं. लेकिन कोसी तटबंध के गांवों में सरकारी योजनाओं में लूट के हजारों किस्से हैं.
90 परिवारों वाले दलितों के इस गांव में कोई भी परिवार ऐसा नहीं है जिसके किसी न किसी सदस्य की मौत हाल के कुछ वर्षों में कालाजार से नहीं हुई हो
ऐसी बदहाली परिवारों को तोड़ रही है, रिश्तों को कमजोर कर रही है. कुशेश्वरस्थान से बनारस और भदोही के लिए सीधी बसें चलती हैं. इन बसों में भरकर बच्चे कालीन उद्योगों और दियासलाई के कारखानों में काम करने के लिए भेजे जाते हैं. फैक्टरी के दलाल कर्ज में गले तक डूबे माता-पिताओं के हाथ में कुछ सौ रुपए थमाकर बच्चों को ले जाते हैं. कुशेश्वरस्थान में बालमुक्ति अभियान के कार्यकर्ता घुरन सदा के अनुसार यहां बच्चों को बेचने के सैकड़ों मामले भी सामने आए हैं.
जलजमाव के इस संकट पर लगभग हर विधानसभा सत्र में चर्चा होती है लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकलता. दो दशक पहले राज्य सरकार ने इस इलाके को बर्ड सेंक्चुरी बनाने की घोषणा की थी, जिसके तहत यहां पर्यटन को भी बढ़ावा दिया जाना था. लेकिन दिनेश कुमार मिश्र इससे सहमत नहीं हैं. वे कहते हैं, ‘पीसा की मीनार का टेढ़ा होना ढांचागत नाकामी थी. यह इंजीनियरों की गलती थी. लेकिन इस पर शर्म करने की बजाय गर्व किया गया. इससे पैसा बनाया जाने लगा. इसी तरह यह जलजमाव एक बड़ी ढांचागत नाकामी है, जिस पर शर्म की जानी चाहिए. सरकार इसे भी पीसा की मीनार बनाना चाहती है. इसके नतीजे बहुत बुरे होंगे. पर्यटन के साथ फैलने वाली बुराइयां भी फैलेगी जैसे- वेश्यावृत्ति.
इसके एक समाधान के रूप में पिछले कुछ समय से मांग की जा रही है कि खगड़िया के अलौली प्रखंड के फुहिया गांव में तीनों नदियों पर तटबंध बनाकर उन्हें वहां पहुंचा दिया जाए. लेकिन मिश्र इसके और भी बुरे नतीजों की ओर इशारा करते हैं, ‘यह समस्या का कोई समाधान नहीं है. बल्कि भविष्य में यह संकट को और बढ़ाएगा क्योंकि तब वर्षा के पानी को निकलने के लिए रास्ता नहीं मिलेगा और फिर नया जलजमाव शुरू हो जाएगा.’
इस यातना से भरे त्रासद जीवन से निजात दिलाने की जिनसे उम्मीद की जाती है वे पूरी तरह संवेदनहीन हो चुके हैं. उन्हेंे गेंद को एक-दूसरे के पाले में फेंकने के सिवा कोई रास्ता नहीं दिखता. झंझारपुर से जदयू के विधान पार्षद विनोद सिंह इस त्रासदी के लिए केंद्र सरकार को जिम्मेदार मानते हैं. वे कहते हैं, ‘तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने परियोजना का विरोध कर रहे लोगों को आश्वासन दिया था कि तटबंध के भीतर और कछार पर पड़ने वाले गांवों को पुनर्वासित किया जाएगा. कुछ गांवों को पुनर्वासित किया गया लेकिन सैकड़ों गांव आज तक पुनर्वासित नहीं हो सके. जिसके कारण इस क्षेत्र की स्थिति विकराल बनी हुई है.’
वहीं कोसी प्रभावित सिंघिया विधानसभा क्षेत्र के विधायक व कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अशोक कुमार इससे सहमत नहीं हैं. उनका कहना है, ‘कोसी क्षेत्र के लोग बिहार सरकार के भरोसे नहीं बल्कि भगवान के भरोसे जीते हैं. लालू और नीतीश सरकारों ने तो इनका बेड़ा गर्क कर दिया है. केंद्र पोषित कोई भी योजना तटबंध के भीतर लागू नहीं हो पाई है. स्कूल, स्वास्थ्य केंद्र और थाने सब कागज पर चलते हैं.’
और इन सबके बीच रामचंद्र सदा हमेशा के लिए पंजाब से लौट आए हैं. वे अब कोई काम नहीं कर पाते. पत्नी की ही तरह उन्हें भी एक अनजान-सी बीमारी है. उनके पास उतने पैसे नहीं हैं कि वे डॉक्टर को दिखा सकें. दिन ब दिन बढ़ती जा रही कमजोरी उन्हें उनकी पत्नी की मौत की याद दिलाती है.
रामचंद्र दलितों के उस तबके से आते हैं जिसे सरकार ने महादलित घोषित कर रखा है. पटना में बैठे विशेषज्ञ मान रहे हैं कि विधानसभा चुनाव में जीत-हार का दारोमदार महादलितों के वोटों के झुकाव पर भी निर्भर करेगा. लेकिन शायद रामचंद्र सदा के लिए इसका कोई मतलब नहीं है. उनके साथ ही कोसी क्षेत्र के उन 12 लाख दूसरे लोगों के लिए भी, जो इस बार का वोट भी नाव पर चढ़कर देने जाएंगे या हो सकता है न भी जाएं.