बिहार विधानसभा का मध्यांतर हो चुका है. छह चरणों में होने वाले चुनाव के चार चरण पूरे हो चुके हैं, दो अभी बाकी हैं और सरकार बनाने की राह के दो अहम चरण भी पार किए जाने हैं – पहला, चुनाव के बाद मतों की गणना और दूसरा, सरकार बनने की प्रक्रिया की जोड़-तोड़. इंटरवल तक और बाद के बिहार चुनाव पर निराला की रिपोर्ट
इसे समय का फेर भी कह सकते हैं. इस बार के बिहार विधानसभा चुनाव में दो खेमों में बंटे जिन चार नेताओं के नाम बार-बार दोहराए जा रहे हैं वे उलटी हुई स्थिति में हैं. 1974 के आंदोलन के समय रामविलास पासवान लालू प्रसाद से सीनियर नेता के तौर पर स्थापित थे, अब लालू प्रसाद यादव उनके अगुआ हैं. रामविलास छाया युग में हैं. सुशील मोदी बतौर छात्र संगठन सचिव, नीतीश से आगे हुआ करते थे, अब नीतीश कुमार फ्रंट पर हैं, मोदी पीछे. ठीक किसी परछाई की तरह. दोनों ही खेमों के कप्तान खुद को खांटी समाजवादी के साथ लोहिया-जेपी के चेले कहना-कहलाना पसंद करते हैं, एक ही राजनीतिक स्कूल से निकले हुए हैं. कभी राजनीतिक दोस्ती इतनी गहरी थी कि अब जिसे लालू प्रसाद का 15 वर्षों का जंगल राज कहा जाता है, उसमें से चार-पांच साल नीतीश कुमार उनके साथ रहे थे. लेकिन यह सब अब पुराने जमाने की बात हुई. नए जमाने का सच यही है कि दोनों दोस्त फिलहाल आपस में चुनावी गुत्थमगुत्थी कर रहे हैं. मकसद एक है, सत्ता पाना. संयोग देखिए कि कुछ चरणों के चुनावी इंटरवल के बाद दोनों के मंजिल पाने का रास्ता भी करीब-करीब एक-सा ही होता जा रहा है.
वाम फैक्टर करेगा काम |
बिहार की चुनावी जंग में दो दिग्गजों और दो मजबूत गठबंधनों के बीच छिड़ी जंग में तीसरे की बात उस तरह नहीं की जा रही जितने की गुंजाइश बनती है. लेकिन तीसरे खेमे के रूप में इस बार वाम दलों का गठजोड़ नए रूप में और नई ऊर्जा के साथ आमने-सामने की लड़ाई लड़ रहा है. इस गठजोड़ की दावेदारी 190 सीटों के लिए है. फिलहाल बिहार में वाम दलों का मात्र नौ सीटों पर ही कब्जा है, लेकिन औरंगाबाद, बेगूसराय, सासाराम आदि जिलों में कई सीटें ऐसी रही हैं जहां वाम दलों की आपसी टकराहट ही उनका नुकसान करती रही है. इस बार उनके साथ होने से उन्हें फिर से बढ़त मिल सकती है. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के यूएन मिश्र कहते हैं, ‘आप उदाहरण के तौर पर बेगूसराय जिले की बात कर सकते हैं. यहां हम जिले की सात में से पांच सीटों पर चुनाव लड़ रहे हैं. पांचों सीटें ऐसी हैं जिन पर कभी न कभी हमारे प्रत्याशी विजयी रहे हैं. उम्मीद है, हम बेहतर करेंगे.’ मिश्र बताते हैं कि 24 ऐसी सीटें हैं, जहां उनका कैडर वोट किसी भी किस्म की चुनावी आंधी में इधर से उधर नहीं होता. वे कहते हैं, ‘करीब 20 हजार से ज्यादा वोट हम इन सीटों पर पाते रहे हैं. इस बार के चुनाव में चूंकि किसी की लहर नहीं है और न ही कास्ट उस तरह का फैक्टर रह गया है तो हम उन सीटों पर मजबूत होंगे.’ बिहार के चुनावी इतिहास को देखें तो यहां वाम दल भी कभी मजबूत स्थिति में रहे हैं. 1972-77 तक एक तरीके से 35 विधायकों के साथ भाकपा ही यहां मुख्य विपक्षी पार्टी की भूमिका में थी. लेकिन बाद के दिनों में धीरे-धीरे इनके वोट बिखरते गए. वाम दलों में यहां भाकपा माले का प्रभाव अच्छा-खासा है, जिसके खाते में फिलहाल पांच ही सीटें हैं. इससे पहले इस पार्टी के सात विधायक थे. इस बार के वाम दलों के पास ठोस बात यह भी है कि वे एकला चलो की तर्ज पर भूमि सुधार को ही अपना चुनावी मुद्दा बनाए हुए हैं, जो निस्संदेह बिहार के सामने सबसे बड़ा सवाल है. बिहार के पूर्व डीजीपी और चर्चित आईपीएस अधिकारी डीएन गौतम कहते हैं कि बिहार के चुनाव में वोटिंग का मुख्य आधार प्रत्याशी होगा. उसी के आधार पर वोटिंग होगी. यदि गौतम अपने अनुभव के आधार पर ऐसी बातें कर रहे हैं तो यह वाम दलों के लिए खुश होने वाली बात है क्योंकि ज्यादातर सीटों पर उनके प्रत्याशी चर्चित दलों के प्रत्याशियों से ज्यादा स्वच्छ छवि वाले और जनता के बीच रहने वाले हैं. |
चुनाव शुरू होने के पहले जिस तरह का माहौल बनाने की पैंतरेबाजी हुई थी, वह चौथे चरण का चुनाव आते-आते असली धरातल पर आ चुका है. विकास, रेल-रोड वार में सिमटता जा रहा है. नीतीश कुमार जब विकास के पैमाने के तौर पर सड़कों को अपनी उपलब्धि बताते हैं तो लालू प्रसाद कहते हैं कि हमने रेल को चमकाया. नीतीश जब अतिपिछड़ा और महादलित की बात करते हैं तो लालू प्रसाद कहते हैं सबका कंठ हमने ही खुलवाया. नीतीश जब लॉ ऐंड ऑर्डर की बात करते हैं तो लालू प्रसाद पिछले पांच साल में बिहार में फैले नक्सलवाद के जाल का जिलावार आंकड़ा सामने रखने लगते हैं और उनके साथ रामविलास पासवान राज्य में दर्ज हुए आपराधिक मामलों का हवाला देते हैं. वर्षों पहले रघुनाथ झा या शिवानंद तिवारी को अपने दाएं-बाएं रखकर लालू प्रसाद कहा करते थे कि ब्राह्मणों और यदुवंशियों का रिश्ता तो महाभारत काल से ही अजर-अमर है तो अब नीतीश कुमार कह रहे हैं कि चंद्रगुप्त तो बगैर चाणक्य के मार्गदर्शन के एक कदम भी नहीं चल सकता. अब खुल्लम-खुल्ला बिहार की राजनीति पुराने और पारंपरिक ढर्रे पर है. विकास का मुद्दा केंद्र में रहते हुए भी हाशिये पर जा रहा है. बात यहीं खत्म हो जाती तो और बात थी. जुबानी जंग में भी एक-दूसरे को पछाड़ने की होड़ मच गई है. अपनी पत्नी राबड़ी देवी को दो जगहों से चुनाव लड़ाने पर तर्क देते हुए लालू प्रसाद का कहना था कि मेरी राबड़ी नारी नहीं चिंगारी है, अगर नीतीश माई के लाल हैं तो यहां से लड़कर दिखाएं, हवा गुम हो जाएगी. इसका जवाब देने के लिए नीतीश खुद सामने आए, कहा कि राबड़ी के खिलाफ जो हमारे उम्मीदवार हैं, सतीश यादव- वे माई के भी लाल हैं और वाई के भी. वाई यानी यादव. राबड़ी फिर से अपने परिचित अंदाज में आईं और नीतीश को चोर-बेईमान कह गईं तो दूसरी ओर जद (यू) के राष्ट्रीय अध्यक्ष और खुर्राट नेता शरद यादव एक चुनावी सभा में कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी को बांधकर गंगा में फेंक देने की नसीहत दे आए. अब लालू प्रसाद की ओर से एक नई बात भी सामने आई है. लालू ने कहा है कि उन्होंने नीतीश को गलती से बता दिया था कि चारा घोटाले में उन्हें भी एक करोड़ रुपए दिए जाने की बात सार्वजनिक हो गई है और इसीलिए नीतीश भाजपा की गोद में जाकर बैठ गए. यानी गड़े मुरदे उखाड़ने का सिलसिला भी शुरू हो चुका है.
चुनाव में मतदान की प्रतिशतता बढ़ती जा रही है पर किसी दल के पक्ष में लहर जैसी बात भी नहीं दिखती. बढ़ा हुआ वोट बेहतर शासन की इच्छा से उपजा है या सत्ता-शासन के सुख से वंचित लोगों की सामूहिकता का प्रतिफल है, विश्लेषक आकलन नहीं कर पा रहे हैं
एक-दूसरे को घेरने का खेल चरम पर है. विकास पर भ्रष्टाचार भी धीरे-धीरे भारी पड़ता जा रहा है. हाल की चुनावी सभाओं में नीतीश कुमार भ्रष्टाचार पर भी बोलने लगे हैं. वे कहते फिर रहे हैं कि अगर मौका मिला तो भ्रष्टाचार भी खत्म करेंगे. वरिष्ठ पत्रकार राघवेंद्र कहते हैं कि यह नीतीश का बैकफुट पर आना हुआ. वे स्वीकार कर रहे हैं कि उनके कार्यकाल में जो विकास हुआ है उसमें अधिकारियों ने भ्रष्टाचार के मानक स्थापित कर दिए हैं. दूसरी ओर लालू शुरू से ही बैकफुट पर हैं. वे लगभग अपनी हर सभा में पश्चातापी शैली में कहते हैं कि मुझे एक मौका दीजिए, मैं सब करूंगा.
लालू प्रसाद अतीत से मुक्ति की छटपटाहट में हैं तो नीतीश भटकाव के दौर में. यह छटपटाहट या भटकाव यूं ही नहीं है. लालू प्रसाद को पता है कि वे एक प्रकार से अपने राजनीतिक जीवन की आखिरी बाजी लड़ रहे हैं. उनकी उम्र 60 के पार हो गई है. इस बार नहीं तो कभी नहीं जैसा प्रश्न उनके सामने है. यदि वे नीतीश को मात देने में सफल नहीं हो सके तो बिहार की राजनीति में इतिहास बनने की राह पर अग्रसर हो जाएंगे. केंद्र की राजनीति में भी उनके लिए दरवाजा बंद हो जाएगा. लालू प्रसाद केंद्र की राजनीति में चमकदार सितारे की तरह उभरे थे. पीएम की बात करने लगे थे. अब फिर सीएम के लिए खुद को आगे रखकर लड़ाई लड़ रहे हैं. फिर अगले पांच साल में बहुत कुछ बदलने वाला भी है. जैसा कि जाने-माने समाजशास्त्री डॉ एस नारायण कहते हैं, ‘सामाजिक दृष्टि से देखें तो बिहार में पिछले कुछ वर्षों में अंतर्जातीय शादियों का चलन तेजी से बढ़ा है. कोर्ट मैरेज बढ़े हैं. जाहिर-सी बात है कि जाति की दीवार टूट रही है, जिसका असर चुनाव में भी पड़ेगा. 50 प्रतिशत मतदाता युवा ही हैं, जिनका अपना नजरिया होगा.’
दूसरी ओर नीतीश कुमार हैं, जो उम्र के 60वें साल में प्रवेश करने वाले हैं. अगर चुनाव हारते हैं तो न नरेंद्र मोदी से ईर्ष्या करने की स्थिति में होंगे न राज्य के रास्ते केंद्र में नेता के तौर पर स्थापित होने के सपने को पूरा कर पाएंगे. हालांकि हारने की स्थिति में उनका सीधे तौर पर यह तुर्रा और तर्क होगा कि कास्ट पोलिटिक्स से वे पार नहीं पा सके जबकि जीतने पर वे विकास का गुणगान करेंगे.
बिहार का यह चुनाव इस मायने में तो खास है ही कि चुनाव में मतदान की प्रतिशतता बढ़ती जा रही है, कहीं किसी दल के पक्ष में लहर जैसी बात भी नहीं दिखती. सब कुछ अंडरकरेंट है, जिससे कुछ भी अंदाजा लगाना मुश्किल है. बढ़ा हुआ वोट बेहतर शासन को बनाए रखने की इच्छा से उपजा है या पांच साल सत्ता-शासन के सुख से वंचित लोगों की सामूहिकता का प्रतिफल है, विश्लेषक आकलन नहीं कर पा रहे हैं. हालांकि गया में रहने वाले प्रसिद्ध कथाकार और फिल्म लेखक शैवाल या बेतिया में रहने वाले वरिष्ठ समाजवादी सामाजिक कार्यकर्ता पंकज की मानें तो उनका आकलन यह कहता है कि बढ़ा हुआ मत प्रतिशत नीतीश के पक्ष में जाने की गुंजाइश ज्यादा है. जबकि अब तक ज्यादातर विशेषज्ञों की स्थापित मान्यता यह है कि जब वोट प्रतिशत बढ़े तो समझिए कि ऐंटी इनकंबैंसी फैक्टर काम कर रहा है. दिग्गज अपने दांव का आकलन इस बार इसलिए भी नहीं कर पा रहे कि परिसीमन के बाद 243 विधानसभा सीटों वाले बिहार में 40 पुरानी सीटों का इतिहास और भूगोल बदल गया है. इन सीटों पर पार्टियां अपनी हैसियत की थाह नहीं लगा पा रही हैं.
इस चुनाव के बहाने बिहार में फिर से बदलाव की कसमसाहट है. इतिहास को देखें तो यहां के मतदाताओं का स्वभाव जिद्दी जैसा रहा है. बिहार में 1961 से 1990 के बीच 23 मुख्यमंत्री बदले. पांच बार राष्ट्रपति शासन लगा. इन 23 में से 17 मुख्यमंत्री कांग्रेस के ही रहे. कांग्रेस ने अपने उफान के दिनों में आलाकमानी तर्ज पर बिहार को राजनीतिक प्रयोग झेलने को विवश किया तो बिहार की जनता ने उसे पिछले 20 साल से सत्ता से बेदखल कर रखा है. अब कांग्रेस तमाम फजीहतों के बाद भी खेल बनाने नहीं तो बिगाड़ने की स्थिति में आती
गुड़ खाएं नीतीश, गुलगुले से परहेज |
भाजपा और जनता दल यूनाइटेड के गठबंधन पर इतनी बार तनातनी की स्थिति बनी है और इतनी बार सफाई दी जा चुकी है कि सहज सत्ता के लिए बना यह असहज गठबंधन हमेशा गले की फांस जैसा लगता है. लेकिन 1998 से ये दोनों एक-दूसरे को धक्का देते हुए, धसोरते हुए चल ही रहे हैं. इस बार के चुनाव में ही तब बड़ा बवाल मचा जब नरेंद्र मोदी के चुनाव प्रचार में आने की बात दिल्ली से मुख्तार अब्बास नकवी ने कर दी. जद (यू) की ओर से गठबंधन की समीक्षा तक की बात हुई. कुछ भाजपाई विधायकों ने आत्मसम्मान की दुहाई दी, लेकिन निष्कर्ष यह निकला कि नरेंद्र मोदी चुनाव प्रचार में नहीं आ रहे हैं. इसके पहले भी नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार की तस्वीर साथ में छप जाने से बवाल मचा था. तब नीतीश ने न जाने क्या-क्या कहा था. छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के प्रमुख सिपाही रहे वरिष्ठ पत्रकार श्रीनिवास कहते हैं, ‘नीतीश के साथ यह दुविधा हमेशा रहेगी, लेकिन वे जो कर रहे हैं वह हमेशा कैसे चल सकता हैै?’ वाजपेयी युग का अंत होने के बाद आडवाणी भी साइड लाइन में हैं. राजनाथ भी हाशिये पर जा चुके हैं. मुरली मनोहर जोशी को किनारे लगाया जा चुका है. नीतिन गडकरी अस्थायी सेनापति हैं. कल को जब लोकसभा चुनाव होगा तो नरेंद्र मोदी ही सबसे बड़े मास लीडर के रूप में भाजपा के नेता होंगे. आज भी भाजपा के लिए नरेंद्र मोदी बड़े नेता हैं. अगले चुनाव में यदि भाजपा मोदी को प्रधानमंत्री के तौर पर पेश करे या बनाए तो नीतीश का स्टैंड क्या होगा? यह बड़ा हास्यास्पद है कि नीतीश कुमार उस दल के एक बड़े नेता से अछूत की तरह व्यवहार करते हैं और दल से गले मिले रहते हैं. राम मंदिर का विरोध तो करते हैं लेकिन भाजपा को विजयी बनवाने के लिए वोट भी मांगते हैं. भाजपा की अभी मजबूरी है तो इस अपमान को सह रही है, लेकिन इसे लेकर कई नेताओं में नाराजगी तो होगी ही. इस चुनाव से यह भी तय होगा कि नीतीश कुमार नवीन पटनायक की हैसियत में आएंगे या नहीं. हैसियत में आ भी गये तो उतना साहस दिखा पाएंगे या नहीं. |
हुई दिख रही है. कांग्रेस लालू प्रसाद और नीतीश दोनों के लिए ‘कॉमन एनेमी’ की तरह हो गई है. दोनों ही नेता अपनी सभाओं में कांग्रेस पर प्रहार जरूर करते हैं. राजनीतिक कार्यकर्ता महेंद्र सुमन कहते हैं कि इस बार के चुनाव में यही नया है कि कांग्रेस एक प्लेटफॉर्म की तरह सामने है. नाराज अल्पसंख्यकों, खिन्न सवर्णों और लालू प्रसाद-नीतीश कुमार से नाउम्मीद मतदाताओं के लिए. सुमन कहते हैं कि कांग्रेस के लिए बेहतर यह है कि इस बार के चुनाव में विकास ही केंद्र में आ गया है और पारंपरिक रूप से कांग्रेस उसी की राजनीति करती रही है. न तो वह कभी आक्रामक होकर धर्म-संप्रदाय की राजनीति कर पाती है न जाति की. इसलिए विकास के मुद्दे पर कांग्रेस नीतीश को घेरने में सक्षम है और वह नीतीश को घेरने की कोशिश भी कर रही है. सुमन की बातों को और विस्तारित करके देखें तो स्पष्ट होगा कि कांग्रेस ने बाबरी मस्जिद का ताला तो खुलवा दिया लेकिन उस पर आक्रामक राजनीति करने, उससे फायदा उठाने भाजपा सामने आ गई. कांग्रेस ने वर्षों चौधरी चरण सिंह की सरकार द्वारा तैयार मंडल कमीशन की रिपोर्ट को खारिज नहीं किया, उस पर दुविधा में कुंडली मारकर बैठी रही, उसकी राजनीतिक फसल काटने वीपी सिंह सामने आ गए. लालू प्रसाद की भी यह शुरू से इच्छा रही कि कांग्रेस नीतीश की घेराबंदी विकास के सवाल पर करे. कांग्रेस ने ऐसा किया भी लेकिन साथ ही शीला दीक्षित ने बिहार के चुनाव प्रचार में यह भी कह दिया कि भविष्य में राजद और भाजपा को छोड़ किसी से, किसी को सहयोग संभव है. लालू प्रसाद के लिए यह जले पर नमक जैसा है.
बिहार में पिछले कुछ वर्षों में अंतर्जातीय शादियों का चलन तेजी से बढ़ा है. कोर्ट मैरेज बढ़े हैं. जाहिर-सी बात है कि जाति की दीवार टूट रही है, जिसका असर चुनाव पर भी पड़ेगा. 50 प्रतिशत मतदाता युवा ही है, जिनका अपना नजरिया होगा
यह साफ तौर पर दिख रहा है कि लालू प्रसाद को अपने 15 वर्षों के कार्यकाल के लिए कई मोर्चों पर चुप हो जाना पड़ रहा है. वे खुलकर विकास की बात नहीं कर पाते, लेकिन उनके साथी रामविलास पासवान की मानें तो बिहार के मतदाता माफ करने में सबसे आगे रहे हैं. रामविलास ने अभी हाल ही में एक संदर्भ के हवाले से यह कहकर लालू प्रसाद को उम्मीद की किरण दिखाई कि जैसे जेपी मूवमेंट के बाद इंदिरा जी की सत्ता चली गई थी और वापसी की गुंजाइश नहीं दिखती थी लेकिन तीन साल में ही लोगों ने इंदिरा जी को माफ कर दिया, वैसा ही लालू प्रसाद के साथ होगा. लोगों ने इनकी गलती को माफ कर दिया है. अधिकांश चुनावी सर्वेक्षणों और मीडिया की बेरुखी के बावजूद लालू प्रसाद को ऐसे ही किसी करिश्मे की उम्मीद भी है. रामविलास पासवान यह भी कह रहे हैं कि नीतीश के महादलित कार्ड का टेस्ट विगत वर्ष हुए उपचुनावों में ही हो चुका है, जहां उन्हें 18 सीटों में से सिर्फ तीन सीटों पर संतोष करना पड़ा और उनके सहयोगी दल भाजपा को दो पर. इतना ही नहीं नीतीश के महादलित राजनीति के तुरूप के पत्ते श्याम रजक को भी चुनावी मुकाबले में शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा.
बिहार में यह चुनाव सत्ता परिवर्तन के लिए लड़ी जा रही लड़ाई भर नहीं है. महादलित और अतिपिछड़ों के साथ सवर्णों की जो नई राजनीति शुरू हुई है उसका भी लिटमस टेस्ट होने वाला है. गया के रहने वाले प्रभात शांडिल्य, जो खांटी-जमीनी सामाजिक कार्यकर्ता हैं और जिन्हें पानी पुरुष कहा जाता है, बातों-बातों में बिहार चुनाव का गणित समझाने के लिए लालबुझक्कड़ की तरह कवितानुमा पांच पंक्तियां सुनाते हैं –
ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार,लाला
सैयद, शेख, पठान, अंसारी
यादव, कोइरी, कुरमी, बनिया
चमार, दुसाध, पासी, धोबी
हो, संथाल, उरांव, मुंडा
फिर पूछते हैं कि इन 20 जातियों के अलावा बिहार में किसी 21वीं जाति के बड़े नेता का नाम बताओ. कर्पूरी ठाकुर को छोड़कर. राजनीति में कोई बड़ा चेहरा बताओ इन जातियों से बाहर का. जल्दी, फटाफट पांच मिनट में. शांडिल्य जी कहते हैं- नहीं बता पाओगे. कोई नहीं बता पाता. बिहार की इन्हीं बीस विषधर जातियों की गोलबंदी को तोड़ने की छटपटाहट ही इस चुनाव में और अगले एक-दो और चुनावों में नएपन को बनाए रखेगी. शांडिल्य कहते हैं कि 20 साल पहले तक सत्ता सवर्णों के पाले में रहती थी. 20 साल से पिछड़े राज कर रहे हैं. अब फिर करवट का दौर आया है तो इन 20 जातियों की परिधि से जो बाहर वाले हैं वे भी अपनी राजनीतिक हिस्सेदारी चाहेंगे, जिससे समीकरण बदलेगा. इन सभी मुख्य दलों के अलावा बसपा जैसी पार्टियां भी हैं, जिसने पिछले चुनाव में चार सीटों पर कब्जा जमाया था और इस बार पूरा संगठन बिखर जाने के बावजूद टिकट बंटवारे में सधी हुई रणनीति अपनाई है. उत्तर प्रदेश से सटे हिस्से में इस दल का प्रभाव दिख भी रहा है. और इन सबके बाद कहीं-कहीं निर्दलीय भी मजबूती से मैदान में हैं जो दल, दौलत और दलालों से सावधान रहने का साझा नारा दे रहे हैं.