कश्मीर पर अरुंधती रॉय के हालिया बयान के बाद एक बार फिर चौतरफा उनकी निंदा का दौर शुरू हो गया है. उनके नाम के साथ देशद्रोही, अलगाववादी, आतंकवादी, अपराधी, भड़काऊ, ‘पब्लिसिटी की भूखी’ सरीखे विशेषण भी सुनने को मिल रहे हैं. कुछ दिन पहले टीवी चैनलों पर उनके खिलाफ जिस तरह का गुस्सा बरस रहा था उससे एक बार तो यह याद रखना ही मुश्किल हो गया था कि अरुंधती रॉय एक लेखिका और बुद्धिजीवी हैं और उन्होंने पहले भी कई अहम मौकों पर उन दरारों की ओर हमारा ध्यान खींचा है जो इस देश के टुकड़े-टुकड़े करने की क्षमता रखती हैं
देखा जाए तो पिछले एक दशक के दौरान रॉय हर बड़े मुद्दे पर मुखर रही हैं. कभी चीरफाड़ करतीं, कभी चेतावनी देतीं और कभी भविष्यवाणी करतीं. वे अमीरों पर तंज कसती रही हैं और गरीबों की लड़ाई को मजबूत आवाज देती रही हैं. उनके समकालीन बहुत कम लेखक ऐसे हैं जिन्होंने भारत के विचार और उसकी जमीनी हकीकत पर इस कदर डटकर लिखा और बोला है.
रॉय के राजनीतिक लेखन और देश से जुड़ी नीतियों पर उनके बयानों का इतना तीखा असर क्यों होता है इसे तब तक नहीं समझा जा सकता जब तक हम उनकी एकाएक प्रसिद्धि से हममें उपजे उत्साह और फिर उस यात्रा की विडंबना को याद न करें जिसे उन्होंने बाद में अपने लिए चुना. कम ही लोगों को याद होगा कि रॉय सबसे पहले चर्चा में तब आई थीं जब उन्होंने एक मशहूर भारतीय पत्रिका में एक विचारोत्तेजक लेख लिखा था. यह 1996 की बात है. उदारीकरण को आए तब पांच बरस ही हुए थे. उस समय उत्साह से भरा हमारा नया-नकोर मध्यवर्ग अपने लिए नायकों की तलाश में था. रॉय इसके सभी मापदंडों पर खरा उतरती थीं. एक तो वे बला की आकर्षक थीं, दूसरे उनकी किताब पर पूरी दुनिया फिदा हो रही थी. भारत में उनके लिए दीवानगी द गॉड ऑफ स्माल थिंग्स के छपते ही फैलने लगी थी. फिर जब इस उपन्यास का 40 भाषाओं में अनुवाद हो गया और आखिर में इसने प्रतिष्ठित बुकर पुरस्कार भी झटक लिया तो अरुंधती रॉय मानो सारी दुनिया में भारत का विजयी चेहरा हो गईं. पहली बार यह पुरस्कार भारत में ही रह रहे किसी भारतीय ने जीता था. उन दिनों जिसे देखिए उसकी जबान पर रॉय का नाम था. वे सपनों की राजकुमारी थीं.
अगर वे धारा के साथ चलती रहतीं तो सफलता की सरगमों का पहला और यादगार सुर बनी रहतीं. ऐश्वर्या राय के मिस वर्ल्ड बनने की घटना की तरह. यह वह दौर था जब भारतीय कॉरपोरेट जगत कामयाबी के नए झंडे गाड़ रहा था. यहां के कारोबारी दुनिया में अगुआ धनकुबेरों की सूची में शामिल हो रहे थे. विकास दर आठ फीसदी को छू रही थी और उपभोक्ताओं का एक विशाल बाजार तैयार हो रहा था. भारत के सुनहरे भविष्य की इबारत लिखी जा रही थी और हर कोई इसका जश्न मनाने के मूड में था.
लेकिन किसी को भी अंदाजा नहीं रहा होगा कि सपनों की यह राजकुमारी देश की तल्ख हकीकतों पर शोर मचाकर जश्न का यह मूड किरकिरा करने की कोशिश करेगी, मखमल के पैबंद की जगह सड़ी टाट की तरफ ध्यान खींचने लगेगी, कालीन को हटाकर उसके नीचे की गंदगी दिखाने लगेगी. और वह भी इतनी जल्दी.
लेकिन राजकुमारी ने ऐसा ही किया. मई, 1998 में जब रॉय को बुकर सम्मान मिले चंद महीने ही हुए थे, भारत ने परमाणु परीक्षण किया. उसी साल अगस्त में रॉय ने इसके विरोध में द एंड ऑफ इमैजिनेशन नामक शीर्षक से एक लेख लिखा. अपने उपन्यास के बाद उनकी कलम पहली बार चली थी. तब से लेकर आज तक वे लगातार लिखती और बोलती रही हैं. द एंड ऑफ इमैजिनेशन से शुरू हुई उनकी यात्रा जारी है. शुरुआत के उनके लेखों में कुछ हद तक भावुक अतिशयोक्तियां दिखा करती थीं, मगर धीरे-धीरे वे नैतिक रूप से और ज्यादा मजबूत व स्पष्ट होते गए हैं.
दरअसल, सच्चाई यह है कि इक्कीसवीं सदी का भारत एक देश है ही नहीं. यह दो अलग-अलग महाद्वीप हैं. अगर आपके पास पैसा है, आप मध्यवर्ग में गिने जाते हैं या फिर गिटपिट अंग्रेजी बोलते हैं तो आपका महाद्वीप रहने के हर लिहाज से एक शानदार जगह है. ऐसी जगह जहां अवसरों की भरमार है, शानदार नौकरियां हैं, बढ़िया शराबखाने हैं, भव्य मकान हैं और शाही छुट्टियां हैं. ऐसी जगह जहां चुनाव पूरी आजादी के साथ होते हैं और जहां लोकतंत्र अपनी पूरी रवानी में फलता-फूलता दिखाई देता है.
और अगर आप इस गिनती में नहीं आते, यानी आप गरीब हैं, पिछड़े हैं, आदिवासी हैं या फिर मुसलमान तो आपका महाद्वीप दूसरा है. अंधेरे से भरा. रॉय दरअसल इसी अंधेरे महाद्वीप की ओर चली गई थीं. तब से लेकर आज तक अपने हर लेख में वे मुख्यधारा के भारत द्वारा उनके बारे में पाली गई हर कल्पना को हवा में उड़ाती रही हैं. भारत के मध्यवर्ग को इस अंधेरे महाद्वीप के प्रति उनका यह अनुराग समझ नहीं आता. आए भी कैसे, उसने कभी यह दुनिया पहले तो देखी नहीं और देखी तो समझी नहीं. इसलिए कभी रॉय को सिर-आंखों पर बिठाने वाला यह मध्यवर्ग अब लगातार उनकी आलोचना कर रहा है.
क्या अरुंधती रॉय इस देश की प्रधानमंत्री, गृहमंत्री या विदेश मंत्री हैं? क्या उनका आधिकारिक राष्ट्रीय सहमति से सुर मिलाना जरूरी है
रॉय की आलोचनाएं कई तरह से होती हैं. कहा जाता है कि वे सीधे इधर या उधर वाली बात करती हैं, वे कुछ ज्यादा ही विवादप्रिय हैं, वे जरूरत से ज्यादा एकपक्षीय हो जाती हैं, भारत की बात करते हुए उन्हें बस इसकी कमियां ही याद आती हैं. वे एक से दूसरे मुद्दे पर कूदती रहती हैं जबकि उनका उन मुद्दों से वास्तव में कोई लेना-देना ही नहीं होता. वे पाखंडी हैं क्योंकि वे खुद दिल्ली के एक पॉश इलाके में रहती हैं और अपनी किताब की शोहरत से उन्होंने अकूत पैसा कमाया है. वे उसी देश की आलोचना करती हैं जिसके द्वारा दिए गए विशेषाधिकारों और आजादी का वे आनंद उठाती हैं. वे किसी भी मुद्दे पर अचानक कूद पड़ती हैं, वे बातों को बढ़ा-चढ़ाकर कहती हैं और इसका मकसद होता है अपनी तरफ ध्यान खींचना. साथ ही वे यह नहीं समझ सकतीं कि एक देश को चलाना कितना जटिल काम है क्योंकि उनका कहीं भी कुछ भी दांव पर नहीं. उनका एक ही काम है और वह है विरोध करना.
इनमें से बहुत-से आरोपों के पीछे गुस्से के अलावा कोई और वजह नहीं. लेकिन बारीकी से देखें तो कुछ में सच्चाई है. उदाहरण के लिए, रॉय में उन लोगों को लेकर जरा भी धीरज नहीं जिन्होंने भारत के अंधेरे कोने नहीं देखे. वे रवैया नर्म रखते हुए अपनी बात मनवाने की कोशिश नहीं करतीं, धीरे-धीरे मध्यवर्ग की अंतरात्मा से संवाद करने का प्रयास नहीं करतीं. उन्हें लोगों को सहज रखने में कोई दिलचस्पी नहीं. वे सीधा हथौड़े से चोट करती हैं.
वे हमेशा सहमत करने की कोशिश तो करती नहीं ऊपर से चुनौती-सी और दे देती हैं. इसलिए पिछले हफ्ते इलेक्ट्रॉनिक मीडिया द्वारा उन्हें अलग-थलग करने और उन पर बरसने को देखना दुखद था. बहस इस पर नहीं हो रही थी कि रॉय ने जो कहा वह क्यों कहा, बल्कि इस पर हो रही थी कि क्या उन्होंने लक्ष्मणरेखा पार की है या क्या उन्हें राष्ट्रद्रोह के लिए जेल में नहीं डाल दिया जाना चाहिए.
सवाल यह है कि आप रॉय की बात या उनके अंदाज से असहमत हो सकते हैं मगर क्या इससे वह बात गलत साबित हो जाती है. क्या हमें अपने समाज के बुद्धिजीवियों के साथ संवाद नहीं करना चाहिए? उनसे बहस नहीं करनी चाहिए? लोकतंत्र कुछ बुनियादी खंभों पर टिका होता है. अभिव्यक्ति और चुनाव की आजादी ऐसे ही खंभे हैं. जो देश खुद को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहता है वहां लोगों को यह तो समझना ही चाहिए कि शांतिपूर्ण असहमति किसी भी नागरिक का बुनियादी अधिकार है. एक लेखक का तो सबसे पहले. सरकार किसी राष्ट्र की सीमाओं की सुरक्षा कर सकती है, मगर उस राष्ट्र की आत्मा को बचाने का जिम्मा लेखकों और बुद्धिजीवियों पर ही होता है. एक समाज के रूप में हमें खुद को किस तरह देखना और समझना चाहिए इसकी हदें तय करने के लिए सोचने, लिखने और बोलने का काम इन्हीं लोगों का होता है. वे दरबार में बैठकर सत्ता का राग गाने के लिए नहीं बने होते. अरुंधती के बयान पर आ रही प्रतिक्रियाएं बताती हैं कि हम भूल गए हैं कि लेखक समाज में एक उत्प्रेरक की तरह होता है.
अरुंधती के कट्टर आलोचक भी यह दावा नहीं कर सकते कि वे महज शौक के लिए मुद्दों में कूदती हैं. पिछले 12 साल की सक्रियता के दौरान वे हमारे दौर के सभी बड़े मुद्दों पर बोलती और लिखती रही हैं. बड़े बांध, विस्थापन, भूमि अधिग्रहण, औद्योगीकरण, निजीकरण, भूमंडलीकरण, आतंकवाद, अमेरिकी साम्राज्यवाद, हिंदू राष्ट्रवाद, माओवाद और अब कश्मीर. हर बार भले ही उनकी आलोचना की जाती रही पर बाद में ज्यादातर मुद्दों पर वे सही साबित हुईं. भारत नामक पोशाक की सीवन आज जगह-जगह से उखड़ रही है. और ऐसा हो रहा है जमीन और विकास को लेकर गलत नजरिए की वजह से. इस वजह से क्योंकि उजला महाद्वीप आज अंधेरे महाद्वीप को अपना उपनिवेश बनाने पर तुला है.
इसलिए पिछले पखवाड़े मीडिया जब अरुंधती के बयान पर इतना शोर मचा रहा था तो इसका लेना-देना वास्तव में राष्ट्रदोह के अपराध से नहीं था. इसका लेना-देना देशभक्ति और नागरिकता के बारे में हमारी लगातार सिकुड़ती जा रही सोच से था. यह सबूत था कि गंभीर संवाद भी अब आजादी की जगह सुरक्षा, राष्ट्रवाद की जगह अंधराष्ट्रवाद और नागरिकता की जगह अनुपालन की तरफ मुड़ गया है. यह इस बात का भी सबूत था कि मीडिया, मध्यवर्ग और भारतीय राष्ट्र उस तरह एक-दूसरे को आईना दिखाने का काम नहीं कर रहे जिस तरह एक स्वस्थ समाज में उनसे अपेक्षा की जाती है. बल्कि वे एक ही इकाई में तब्दील हो गए हैं. हितों के मामले में ही नहीं बल्कि अपनी छवि के मामले में भी.
मध्यवर्ग को यह नहीं भूलना चाहिए कि ऐसी आवाजें ही हालात को देखने का एक नया नजरिया खोजती और बनाती हैं. भूमि अधिग्रहण और विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) पर विरोध की आवाजों के साथ भी पहले ऐसा ही बर्ताव हुआ था, मगर कॉरपोरेटों की शक्ति के आगे जब विशाल जनांदोलन खड़े हो गए तो मीडिया और सरकार को इस मुद्दे पर अपना रुख बदलने के लिए मजबूर होना पड़ा. यही आवाजें एक देश की सोच को गतिशील बनने पर मजबूर करती हैं, नए विचारों को संभव बनाती हैं और नई अंतरात्मा का निर्माण करती हैं.
ऐसी आवाजों को खामोश कर दें जो तंज करती हैं, असहमति जताती हैं और चुनौती देती हैं तो रोशनी में नहाए भारत को एहसास होने लगेगा कि उनका समाज कितना गरीब हो गया है.
सवाल यह है कि अरुंधती ने कश्मीर पर ऐसा क्या कह दिया कि इसे राष्ट्रद्रोह कहा जाने लगा. रिपोर्टों के अनुसार उन्होंने कहा, ‘यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है कि कश्मीर भारत का अभिन्न हिस्सा नहीं है.’
यही वह बयान था जिसके बाद उनके खिलाफ गुस्सा फूट पड़ा. सही-गलत की बात एकबारगी किनारे रख देते हैं. सबसे पहले बुनियादी सवाल – क्या अरुंधती रॉय इस देश की प्रधानमंत्री, गृहमंत्री या विदेश मंत्री हैं? क्या उनका आधिकारिक राष्ट्रीय सहमति से सुर मिलाना जरूरी हैै? क्या एक लेखिका के तौर पर उन्हें वैसा बोलने का अधिकार नहीं है जैसी दुनिया उन्हें दिखती हैैैै? क्या हमें लगता है कि नोबेल पुरस्कार विजेता बागी चीनी लेखक लियु श्याबाओ और तुर्की के लेखक एरहान पामुक को वहां की सरकारों द्वारा जेल में डालना सही है क्योंकि उनके विचार उनके देश की आधिकारिक नीति से मेल नहीं खातेे? क्या अमेरिकी लेखकों और बुद्धिजीवियों को विकिलीक्स द्वारा सामने लाई गई उन तल्ख सच्चाइयों पर सिर्फ इसलिए बहस नहीं करनी चाहिए कि हिलेरी क्लिंटन ने कहा है कि इससे अमेरिका के राष्ट्रीय हितों को नुकसान पहुंचेगा?
विडंबना यह है कि अगर रॉय पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चलता तो वे ऐसी कार्रवाई झेलने वाली ऐतिहासिक हस्तियों की सूची में शामिल हो जातीं. यंग इंडिया में प्रकाशित अपने विचारों की वजह से महात्मा गांधी पर 1922 में राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चला था. इसकी सुनवाई के दौरान उन्होंने कहा था, ‘इस अदालत से यह तथ्य छिपाने की मेरी कोई इच्छा नहीं है कि सरकार की वर्तमान व्यवस्था के प्रति असंतोष का प्रचार मेरे लिए लगभग जुनून बन चुका है….कानून के मुताबिक राष्ट्रद्रोह जान-बूझकर किया जाने वाला अपराध है…मगर मुझे यह एक नागरिक का सबसे बड़ा कर्तव्य जान पड़ता है.’ उन्होंने आगे यह भी कहा था कि अगर किसी व्यक्ति को कोई व्यवस्था अच्छी नहीं लगती तो उसे अपनी असंतुष्टि व्यक्त करने का पूरा मौका दिया जाना चाहिए बशर्ते वह हिंसा को जरिया न बनाए.
अपने दूरदर्शी राष्ट्रपिता के विचारों को कसौटी बनाकर पूछा जा सकता है कि क्या रॉय ने लोगों को हथियार उठाने के लिए भड़काया. क्या जिन जगहों की वे बात कर रही हैं वहां असंतोष उनकी वजह से है? कश्मीर पर उनकी स्थिति पहले भी उनके लेखों में दिखती रही है. उनके मुताबिक जितना कश्मीर को भारत से आजादी चाहिए उतना ही भारत को भी कश्मीर से आजादी चाहिए. उन्हें लगता है कि घाटी में सात लाख सुरक्षा बलों की तैनाती संसाधनों और मानव जीवन की भारी बर्बादी है. वे सुरक्षा बलों द्वारा मानवाधिकारों के उल्लंघन की बात करती रही हैं और सेना की भारी उपस्थिति को कब्जे की तरह देखती रही हैं. इसके साथ ही वे कश्मीरियों से भी कहती रही हैं कि वे इस बारे में और गंभीरता से सोचें कि वे अपने लिए कैसा समाज बनाना चाहते हैं. वहां अल्पसंख्यकों की क्या जगह होगी? कश्मीरी पंडितों का क्या होगा? क्या धार्मिक आधार पर देश बनने से उनकी सारी समस्याएं खत्म हो जाएंगी?
विडंबना देखिए कि इस बयान पर उठे शोर-शराबे के बीच कई अहम बातों का जिक्र ही नहीं हो सका. मिसाल के तौर पर उस आयोजन में मौजूद रहे अलगाववादी नेता सैय्यद अली शाह गिलानी ने अपने भाषण में एक नई नरमी के संकेत दिए. इसी आयोजन के एक वक्ता शुद्धब्रत सेनगुप्ता के मुताबिक गिलानी ने कहा कि वे एक मजबूत और उभरता भारत देखना चाहते हैं. उन्होंने कश्मीरी पंडितों से घाटी में लौटने की अपील की. गांधी को उद्धृत करते हुए उन्होंने एक अहिंसक आंदोलन की बात कही और कहा कि वे बस जनमतसंग्रह की वकालत कर रहे हैं और इस निष्पक्ष जनमतसंग्रह का नतीजा जो भी हो, कश्मीरी भारत में रहना चाहें, पाकिस्तान में मिलना चाहें या अलग देश बनाना चाहें उन्हें सिर झुकाकर मंजूर होगा.
वक्त के साथ कई तरह के उतार-चढ़ावों से गुजरती हुई कश्मीर की कहानी दरअसल इतनी जटिल हो गई है कि इस पर आने वाला हर बयान पूरा सच नहीं होता. इस कहानी को समझने की कोशिश करने में भटकाव की गुंजाइश काफी रहती है. मगर कश्मीर में सिर्फ एक हफ्ता गुजारने के बाद भी आपको एहसास हो जाएगा कि यह जगह एक नए तरह के दखल के लिए बिलकुल तैयार है. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कभी पूरी घाटी को यह कहकर सम्मोहित कर लिया था कि कश्मीर मुद्दे को इंसानियत के दायरे में सुलझाया जाएगा. तो क्यों न हम दूसरों को संवाद की नई राह खोलने दें.
फिर भले ही हम उनसे असहमति रखते हों.