कहते हैं, रूसी क्रांति के सूत्रधार ब्लादिमीर इल्यीच लेनिन को दो-दो जारों का सामना करना पड़ा. जार निकोलस द्वितीय को उसने हरा दिया, लेकिन दूसरे जार के आगे घुटने टेक दिए. यह दूसरा जार कौन था? यह थे महान रूसी उपन्यासकार लियो टॉल्स्टॉय जो रूसी जनता के दिलों पर राज करते थे. टॉल्स्टॉय कम्युनिस्ट नहीं थे. लेकिन लेनिन ने अपने कार्यकर्ताओं से कहा कि वे टॉल्स्टॉय का सम्मान करें. क्या बस इसलिए कि टॉल्स्टॉय लोकप्रिय थे? या इसलिए कि लेनिन टॉल्स्टॉय के लेखन में सत्य के उस अंश को पहचान पाते थे जो उनको बताता था कि अपने आकार-प्रकार, विषय, विधा और दृष्टि के फर्क के बावजूद अंततः अपने लक्ष्यों में वार ऐंड पीस और कम्युनिस्ट मैनीफेस्टो बहुत भिन्न नहीं हैं? सत्तर साल बाद रूस की क्रांति बिखर गई तो शायद इसलिए भी कि उसमें लेनिन की वह उदार विश्व दृष्टि नहीं बची जो अपने समाज की आत्मा को पहचान पाती.
दरअसल जो समाज अपने लेखकों का सम्मान करते हैं वे अपनी संकीर्णताओं से उठना जानते हैं. फ्रांस में पांचवें गणतंत्र की नींव रखने वाले राष्ट्रपति चार्ल्स द गाल के समय महान फ्रेंच दार्शनिक और लेखक ज्यां पॉल सार्त्र को गिरफ्तार करने की मांग उठी थी. क्योंकि सार्त्र ने तब फ्रांस के उपनिवेश रहे अल्जीरिया की स्वाधीनता का समर्थन किया था. चार्ल्स द गाल ने कहा कि सार्त्र हमारे समय के वाल्टेयर हैं और फ्रांस अपने वाल्टेयर को गिरफ्तार नहीं कर सकता.
अरुंधती रॉय न लियो टॉल्स्टॉय है न ही वाल्टेयर या सार्त्र. बदकिस्मती से इस उदार बाजारवादी समय में हमारी निरंतर अनुदार होती राजनीति और राष्ट्र-दृष्टि अरुंधती को उतना भी सुनने को तैयार नहीं है जितना रूस अपने टॉल्स्टॉय और फ्रांस अपने सार्त्र को सुना करता था. अरुंधती रॉय लोगों को डरा रही हंै. पुलिस उनके भाषण के टेप सुन रही है कि उसमें देशद्रोह का अंश कितना है और सरकार उन पर मुकदमा करने से डर रही है कि इससे वे नायिका बन जाएंगी. दूसरे सिरे पर देशभक्ति की मारी भारतीय जनता पार्टी है जो थाने जाकर एफआईआर कराने की अर्जी दे आई है और अरुंधती के खिलाफ केस न दर्ज करने पर आंदोलन चलाने की धमकी दे रही है.
सवाल यह उठता है कि क्या हम वह भारत बचा पाए हैं जो कश्मीर को सांस्कृतिक तौर पर ही सही, लेकिन अपने साथ रखता था
निश्चय ही अरुंधती रॉय के लेखन और वक्तव्यों में एक तरह की निश्चयात्मकता है जो कई बार आक्रामक हो उठती है. जब वे इतिहास के हवाले से कहती हैं कि कश्मीर कभी भारत का हिस्सा नहीं रहा तो वे उस राजनीतिक भारत की बात करती हैं जिसका कभी वजूद ही नहीं रहा. मैं इतिहास का विद्यार्थी नहीं हूं, इसलिए ठीक-ठीक नहीं बता सकता कि इस वक्तव्य में कितनी तथ्यात्मकता है या फिर कितना अधूरापन है. लेकिन साहित्य के अपने अध्ययन से यह जानता हूं कि कश्मीर सांस्कृतिक तौर पर उस विशाल भारत से लगातार संवादरत और संबद्ध रहा जिसके दायरे में पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान तक चले आते हैं. लोकस्मृति में रामायण की कैकेयी कैकस प्रदेश की मानी जाती हैं जो शायद काबुल है और महाभारत की गांधारी गांधार प्रदेश, यानी कंधार की. मोहन राकेश के नाटक आषाढ़ का एक दिन का नायक कवि कालिदास काश्मीर- या कश्मीर- का शासक बनता है. यानी कश्मीर भारतीय स्मृति और संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रहा है, लेकिन उसी तरह जैसे लाहौर और रावलपिंडी रहे हैं, जैसे काबुल और कांधार रहे हैं.
लेकिन असली सवाल इसके बाद पैदा होते हैं और अरुंधती रॉय के सवालों से जुड़ते हैं. क्या हम वह भारत बचा पाए हैं जो कश्मीर को सांस्कृतिक तौर पर ही सही, लेकिन अपने साथ रखा करता था? और अगर वह भारत नहीं बचा है तो क्या कश्मीर को बंदूकों के सहारे अपने साथ रखने की हमारी जिद जायज है? क्या आधुनिक और आजाद भारत सिर्फ अंग्रेजों का दिया हुआ एक नक्शा है जिसके भूगोल की हिफाजत हमें करनी है और इसके लिए कुछ भी दांव पर लगा देना है? या भारत वह सांस्कृतिक स्मृति भी है, राजेंद्र माथुर के शब्दों में `सदियों की स्मृति के सिलिंडर में सिझाई गई वह शराब` जिससे देश बनता है? दुर्भाग्य से हम देश को भूल गए हैं और अंग्रेजों के दिए राष्ट्र को बचाने में अपने सारे संसाधन झोंक रहे हैं. यह काम भी हम बिलकुल अंग्रेजी कायदों से कर रहे हैं- यानी उन्हीं कानूनों के सहारे, उसी पुलिसतंत्र के सहारे, उसी अफसरशाही और दफ्तरशाही के सहारे और उसी लूटतंत्र के सहारे, जिसका काम बस एक इंतजाम बनाए रखना था, भारत नाम की एक भौगोलिक इकाई को चारों तरफ से बांधे रखना था, उसकी क्षेत्रीय इच्छाओं और जरूरतों को अपने बूटों तले रखना था और नागरिक अधिकारों को कुचलते हुए कुछ गिने-चुने लोगों के लिए सारी सहूलियतें जुटा लेना था.
आज के भारत में यही हो रहा है. अंग्रेजों का छोड़ा हुआ, अंग्रेजी शिक्षा से अंग्रेजियत के अहंकार का मारा हुआ, और पहले इंग्लैंड और अब अमेरिका को आदर्श मानने की ग्रंथि का शिकार एक अल्पतंत्र इस भारत पर शासन कर रहा है. एशिया और अफ्रीका की ऐसी अल्पतंत्रीय शासन-व्यवस्थाओं की कुछ कलई न्गूगी वा थ्योंगो ने अपनी किताब भाषा, संस्कृति और राष्ट्रीय अस्मिता में बड़े करीने से खोली है.
अरुंधती रॉय के वक्तव्य को इस आलोक में भी देखने की जरूरत है कि वे सिर्फ कश्मीर की आजादी की बात नहीं कर रहीं. वे भारत की भी आजादी की बात कर रही हैं. वे एक निरंकुश भारत के उपनिवेश की तरह काम कर रहे एक गुलाम भारत की आजादी की बात कर रही हैं. वे बता रही हैं कि भारत नाम का यह उपनिवेश, यह गरीब भारत कश्मीरियों की त्रासदी के साथ है.
लेकिन यह बात डरी हुई सरकारों को परेशान करती है, यह बात विचारधारा की खुराक से अघाई हुई पार्टियों को डराती है. राष्ट्र का नाम लेने वाली भारतीय जनता पार्टी को लगता है कि अरुंधती रॉय को गिरफ्तार नहीं किया गया तो ऐसी आवाजें और ऊंची होंगी, राष्ट्रवाद का वह परदा और झीना होगा जिसके पीछे वह अपने गुनाह छिपाती है. यूपीए सरकार अगर डरती है कि अरुंधती की गिरफ्तारी उन्हें नायक बनाएगी तो वह उसी संवाद से डरती है जो अरुंधती की बहस पैदा करती है.
सबसे ज्यादा राष्ट्रवाद दुनिया के इसी हिस्से में बचा हुआ है और यहीं सबसे ज्यादा नागरिक और बुनियादी अधिकार कुचले जा रहे हैं
यह एक अलग सवाल है कि भारत से अलग होकर कश्मीर का क्या होगा. या फिर कश्मीर का मौजूदा नेतृत्व क्या इस लायक है कि वह कश्मीरियों को संभाल सकेगा? अंग्रेज जब भारत न छोड़ने के तर्क खोज रहे थे तो उनका भी डर यही था कि भारत को संभालेगा कौन और यह कि भारत की हालत कहीं ज्यादा खराब हो जाएगी. तभी महात्मा गांधी ने यह प्रसिद्ध वाक्य कहा कि हमें स्वराज नहीं, सुराज चाहिए.
लेकिन मैं फिलहाल उस कश्मीर की नहीं, इस भारत की बात कर रहा हूं जहां मुझे रहना है. क्या हम ऐसा भारत चाहते हैं जो देश और राष्ट्र पर एक बहस तक नामंजूर कर दे? राष्ट्रवाद कोई ईश्वर या प्रकृति की दी हुई चीज नहीं है. वह सिर्फ ढाई सौ साल पुरानी एक ऐतिहासिक निर्मिति है जो इतिहास के आगे बढ़ने के साथ ही खत्म हो रही है. जिस यूरोप में यह अवधारणा परवान चढ़ी, वही इसका कब्रिस्तान भी बन रहा है. बीसवीं सदी इस प्रक्रिया की गवाह है. इंग्लैंड और फ्रांस, इटली और जर्मनी, इंग्लैंड और स्पेन आपस में न जाने कितने युद्ध लड़ते रहे. कहते हैं, जोनाथन स्विफ्ट ने जब गुलीवर्स ट्रैवल्स लिखी तो दो बौने देशों, लिलिपुट और ब्लेफुस्कू के बीच की लड़ाई दिखाते हुए उनके दिमाग में इंग्लैंड और फ्रांस की लड़ाइयां ही थीं. इन सारी लड़ाइयों को, बीसवीं सदी के दो-दो महायुद्धों को पीछे छोड़ यूरोप के राष्ट्र, अपना झंडा झुकाकर और सिक्का गलाकर, एक हो चुके हैं. बीसवीं सदी में ही सोवियत संघ बिखरा, जर्मनी एक हुआ, चेकोस्लोवाकिया और युगोस्लाविया पहले जुड़े और फिर टूटे, कई देश दुनिया के नक्शे से गायब हो गए तो कई नए देश उग आए.
यानी देश इतिहास की प्रक्रिया में टूटते-बनते रहते हैं. क्या पता, अगर अंग्रेजों ने भारत पर कब्जा नहीं किया होता तो भारत भी यूरोप की ही तरह अलग-अलग भाषाएं बोलने वाले कई देशों का एक समूह होता जो एक या कई सांस्कृतिक सूत्रों से आपस में बंधा होता. वैसे भी पिछले 63 साल में यह देश तीन हिस्सों- भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में बंट ही चुका है. देखें तो सबसे ज्यादा राष्ट्रवाद दुनिया के इसी हिस्से, यानी दक्षिण एशिया में बचा हुआ है और यहीं सबसे ज्यादा नागरिक और बुनियादी अधिकार कुचले जा रहे हैं. विकास के मानकों पर सबसे पिछड़े इलाके यही हैं. इस पिछड़ेपन को पीछे छोड़ना है तो हमें अपनी राष्ट्रवादी जिदों को भी पीछे छोड़ना होगा. राष्ट्र की मूर्ति बनाने और उसके नाम पर राजनीति करने की आदत छोड़नी होगी. तभी हम बेहतर भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश या श्रीलंका होंगे, और कश्मीर जहां भी रहे, उसके साथ बेहतर सलूक कर पाएंगे.
देश हो या कोई और संस्था- वह मनुष्य के लिए ही है और मनुष्य अपने ढंग से उसका निर्माण करता है और जरूरत पड़ने पर बदलता है. जयशंकर प्रसाद के नाटक चंद्रगुप्त का चाणक्य एक जगह बोलता है, `मगध-मगध! इतना अत्याचार? क्या मनुष्य ने राष्ट्र की शीतल छाया का संगठन इसीलिए किया था?’ वह सौगंध खाता है कि इस मगध को नष्ट करके नया मगध बनाएगा. उसकी चुटिया खींचने वाले महानंद का हश्र हमें मालूम है.
लेकिन यह सब भुलाकर हम राष्ट्र को बचाने में लगे हैं. इस बात से बेखबर कि राष्ट्र ऐसे नहीं बचते. इस ढंग से वे बेईमान और बदमाश ही बचते हैं जो राष्ट्रवाद की ओट में खड़े होते हैं. अरुंधती रॉय से नाराज दिल्ली पूछ रही है कि बोलने की आजादी में जिम्मेदारी भी शामिल होनी चाहिए या नहीं. यह सवाल वह तब नहीं पूछती जब इस आजादी का दुरुपयोग करते हुए झूठ बोले जाते हैं, अंधविश्वास फैलाए जाते हैं, नफरत पैदा की जाती है और ऐसा नकली शोर पैदा किया जाता है जिसमें असली आवाजें दब जाती हैं. जब हम आंखों पर देश, राष्ट्र या धर्म की पट्टी बांध लेते हैं तो एक लीक से बाहर जाने को तैयार नहीं होते. हमारी आंखों पर यह पट्टी बांधने वाली सरकारें हमारी सुरक्षा के नाम पर देश को और हमारे नागरिक अधिकारों को बंधक रख लेती हैं और कोई यह पट्टी खोलना चाहता है तो उसे जेल में डालना चाहती हैं. ऐसे ही मौकों पर अवतार सिंह पाश की यह कविता पंक्ति याद आती है कि `अगर देश की सुरक्षा यही होती है / तो हमें देश की सुरक्षा से खतरा है.