राजनीतिक खेल में मीडिया पर सवाल

22 जुलाई की शाम करीब चार बजे भारतीय राजनीति एक सीढ़ी और नीचे उतर गई. एक लाख रुपये अपनी मेज़ की दराज में रखते बंगारू लक्ष्मण, बलात्कार और खून-खराबे का महिमामंडन करता बाबू बजरंगी, संसद में सवाल पूछने के लिए पैसे लेते 11 लोकसभा सांसद, सांसद निधि के इस्तेमाल में घालमेल करते सांसद, ये सब टीवी पर देखने के बाद लोगों ने संसद में नोटों की गड्डियां लहराते बीजेपी सांसदों को देखा. ये पैसे उन्हें कथित रूप से यूपीए सरकार के पक्ष में मतदान के लिए दिए गए थे. 

विश्वासमत पर मतदान से काफी दिनों पहले से ही राजधानी में इस तरह के काले करारों पर चर्चाओं का बाज़ार गर्म था. मगर इसकी निंदा करने और इसे घृणास्पद बताने के बजाए, ज्यादातर राजनीतिज्ञ और मीडियाकर्मियों के बीच ये कीमत बढ़ जाने जैसी बातों को लेकर मज़ाक की वस्तु बना हुआ था. सब कुछ चलता है वाला माहौल था. 

मगर संसद के बीचोंबीच हुई घटना ने सब कुछ बदल दिया और अब तरह-तरह के सवाल पूछे जाने लगे हैं. कहा जा रहा है कि विश्वास मत पर मत तो प्राप्त कर लिया गया मगर विश्वास खो दिया गया है. एक अति महत्वपूर्ण संसदीय मतदान के दौरान अगर किसी के पास सांसदों के एक समूह द्वारा दूसरे समूह को रिश्वत देने के प्रमाण हों तो इससे बड़ी लोकहित की खबर और क्या हो सकती है?

इस सब में एक विचित्र बात ये रही कि न्यूज़ चैनल सीएनएन आईबीएन—और मीडिया–की भूमिका चर्चाओं के केंद्र में आ गई है. जब बीजेपी के तीनों सांसद संसद में नोटों के बंडल लहराते हुए ये भी चिल्ला रहे थे कि सीएनएन आईबीएन के पास इस रिश्वत कांड के वीडियो साक्ष्य मौजूद हैं–ऐसा वे निराशा में कर रहे थे और जानकारों के मुताबिक उन्हें इसी बात के लिए दंडित किया जा सकता है. मगर यदि इन सब बातों को कुछ देर के लिए दरकिनार कर दिया जाए तो पूछा जा सकता है कि एक अति महत्वपूर्ण संसदीय मतदान के दौरान अगर किसी के पास सांसदों के एक समूह द्वारा दूसरे समूह को रिश्वत देने के प्रमाण हों तो इससे बड़ी लोकहित की खबर और क्या हो सकती है? 

मगर कुछ समझ न आ सकने वाले कारणों के चलते सीएनएन आईबीएन ने इसे प्रसारित ही नहीं किया. जैसे ही मामला प्रकाश में आया टेप्स और इससे मिलने वाले सबूतों के अभाव में पहले की ही तरह मामले को नकारने और इसे खारिज करने का दौर शुरू हो गया. अमर सिंह ने एक तरह से युद्ध छेड़ दिया औऱ हमेशा चुप्पी धारे रखने वाले अहमद पटेल ने प्रतिज्ञा कर डाली कि अगर आरोप सिद्द हो जाते हैं तो वे सार्वजनिक जीवन से ही सन्यास ले लेंगे.

सीएनएन आईबीएन ने टेप्स को प्रसारित न करने का बचाव ये कह के किया कि चूंकि मामले में ‘संसद के सम्मानित सदस्य’ शामिल हैं इसलिए उसे अत्यधिक सावधानी बरतने और इसे और भी सत्यापित करने की आवश्कता है. लेकिन वरिष्ठ अधिवक्ता और समाजसेवी प्रशांत भूषण इससे संतुष्ट नहीं है. “बतौर पत्रकार टेप्स को दुनिया के सामने लाना उनका कर्तव्य था. उन्होंने वास्तव में गलती की है. शायद उन्हें किसी मतलब रखने वाले वकील की सलाह ने डरा दिया या फिर ऐसा उन्होंने किन्हीं दूसरी वजहों को ध्यान में रखते हुए किया”

दो पूर्व कानूनमंत्री राम जेठमलानी औऱ शांति भूषण भी मामले में इसी तरह की मज़बूत राय रखते हैं. भूषण कहते हैं, “इससे क्या लेना देना कि जांच पूरी नहीं हुई है. सबूतों को सामने न लाकर राजदीप अपनी विश्वसनीयता खो रहे हैं. चारों तरफ फैली हुई अफवाहों पर नज़र डालिए. अब जबकि मामला दुनिया के सामने है उन्हें साक्ष्यों को, ये कहते हुए कि वो अपूर्ण हैं, दुनिया के सामने लाना चाहिए. कम से कम दुनिया को पता तो चलेगा कि टेप्स में आखिर है क्या.”

मगर राजदीप गुस्से में इसका बचाव करते हुए कहते हैं, “कब क्या प्रसारित करना है इसपर संवैधानिक विशेषज्ञ और राजनीतिक दल मुझे कैसे आदेश दे सकते हैं? क्या उन्हें पता है कि टेप्स में क्या है? हमें सत्यता जांचने के लिए और भी समय की आवश्यकता थी और हम इसे प्रसारित करने के लिए तैयार नहीं थे?

शायद उनकी बात में दम हो. पिछले बड़े भंडाफोड़ों पर राजनीतिक व्यवस्था ने जैसा कहर ढ़ाया था, शायद उसने उनके मन में भय पैदा कर दिया हो. शायद एक बेहद महत्वपूर्ण स्टोरी के आधा-अधूरा होने को लेकर भी हिचक रही हो. लेकिन, जैसा कि उनके समुदाय के दूसरे सदस्य उन्हें बता सकते हैं कि अगर आपके पास एक गर्म आलू है तो इसे आपको, आपका हाथ जलाने से पहले छोड़ देना होता है.

इंडियन एक्सप्रेस के प्रधान संपादक शेखर गुप्ता कहते हैं, “परेशानी ये है कि अब सब कुछ अनुमान के स्तर पर हो रहा है. एक पत्रकार के रूप में हम सरकार या सीबीआई या सरकारी वकील के लिए काम नहीं करते हैं. हमारी जवाबदेही जनता के प्रति होती है.”

पायोनियर के प्रधान संपादक चंदन मित्रा ज़्यादा सतर्क राय रखते हुए कहते हैं, “मेरे हिसाब से राजदीप ने मतदान से पहले टेप्स को न प्रसारित करके सही किया. ऐसा एक राजनीतिक दल की मदद करने जैसा होता जो कि इस मामले में बीजेपी होती. मगर इससे एक गलत प्रथा पड़ जाती. किसी दिन ये उसके खिलाफ भी जा सकता था, इसलिए, सिद्दांतत: उन्होंने सही किया”

कई लोग कह सकते हैं कि राजनीतिक गुणा भाग करना ईमानदार पत्रकारिता नहीं है औऱ स्टोरी को केवल इसकी योग्यता के आधार पर प्रकाशित किया जाना चाहिए. लेकिन फिलहाल समस्या ये है कि सीएनएन आईबीएन के पक्ष और विपक्ष में जो कुछ भी हो रहा है वो सब अंधेरे का हिस्सा है.

शोमा चौधरी