ईमानदार लेकिन न दाएं, न बाएं : दाएं या बाएं

फिल्म दाएं या बाएं

निर्देशक बेला नेगी

कलाकार दीपक डोबरियाल, बदरुल इस्लाम, भारती भट्ट

आप एक कटोरी कोई भी फिल्म लीजिए जिसमें अंत से पहले पीछा करने के कुछ सीक्वेंस हों- ‘क’ किसी वजह से ‘ख’ के पीछे है और ‘ख’ किसी वजह से ‘ग’ के पीछे और बीच में कोई कीमती चीज बलि का बकरा बनी हुई है (कहीं यह पैसा होता है, यहां कार है). यहीं ‘दाएं और बाएं’ थोड़ा फंसती है. उसके आखिरी आधे घंटे की कहानी प्रियदर्शन की किसी भी फिल्म की शैली की है और उसे वह शालीन भी बनाए रखना चाहती है. मतलब वह बहुत देर तक बची रहने के बाद एक फ़ॉर्मूला आखिर चुन ही लेती है और उस फ़ॉर्मूले के मुख्य मंत्र को भूल जाती है. हो सकता है कि बेला नेगी उठा-पटक की कॉमेडी से जानबूझकर दूर रही हों लेकिन तब उन्हें पहाड़ी की चोटी पर कार के चढ़ने और लटक जाने के शुद्ध बॉलीवुडी दृश्य से परहेज क्यों नहीं था?

हां तो आप एक कटोरी ‘मालामाल वीकली’ लीजिए (हम फिल्म की कहानी की नहीं, उसके स्वभाव की बात कर रहे हैं), उसमें से पांच चम्मच नकली गांव को हटाकर दस चम्मच उत्तराखंड का एक बिल्कुल सच्चा गांव रख दीजिए, कहानी को कुछ और चम्मच अपने यथार्थ के प्रति ईमानदार बनाइए, छोटे किरदारों में सब एक्टर बुरे रखिए और नायक के किरदार को दीपक डोबरियाल नाम का प्रतिभाशाली तोहफा दे दीजिए, ‘दाएं या बाएं’ तैयार हो जाएगी.

 

आप दूसरी तरफ से भी आ सकते हैं. यदि आप एक कटोरी ‘ब्लू अम्ब्रेला’ लेना चाहते हों तो उसमें से कोई छ:-सात चम्मच सुन्दरता और तीन-चार चम्मच उदासी निकाल दीजिए, ठहरिए मत, घटनाएं बढ़ाइए और गहराई कम कीजिए, हंसी के कई दृश्य जोड़िए और ‘दाएं या बाएं’ तैयार हो जाएगी. लेकिन इस तरह कटोरी-चम्मच लेकर संजीव कपूर खाना बनाना सिखाते हैं और हमारे खयाल से कला के जानकार होने का गुमान रखने वाले लोगों को इस रसोई या दुकानदारी शैली में बात करना शोभा नहीं देता. इसलिए हम निरपेक्ष होकर ‘दाएं या बाएं’ के बारे में सोचें तो तो लगता है कि कुछ बहुत अच्छे लिखे गए दृश्य छोटी भूमिका वाले अभिनेताओं ने बर्बाद कर दिए हैं. बदरुल, मानव, भारती और बच्चे प्रत्यूष के अलावा अधिकांश की डायलॉग डिलीवरी सपाट है और अपने परिवेश को इतनी सच्चाई से दिखाने वाली एक फिल्म को जब-जब आप सच मानकर उससे जुड़ना चाहते हैं, तभी वे अभिनेता आपको परेशान करते हैं.

 

लेकिन ये कमियां व्यंग्य से भरे उन अच्छे दृश्यों के प्रभाव को खत्म नहीं कर पातीं, जिनमें इतनी स्वाभाविकता से बेला ही पहली बार गई हैं. वे सरकारी स्कूल के अध्यापकों और बच्चों को उनकी असलियत के सबसे करीब दिखाती हैं. वे सास-बहू वाले टीवी सीरियलों के गांव तक पहुंचने को बहुत अच्छी तरह पकड़ती हैं. वे उस बूढ़े के बहुत नज़दीक हैं जिसे लगता है कि सरकार उन लोगों को खत्म करके ही दम लेगी. लेकिन कहीं न कहीं आप इसे ‘पीपली लाइव’ को याद करते हुए भी देखेंगे और तब ज्यादा तेज, तीखी और अच्छे अभिनेताओं वाली पीपली लाइव बाजी मार ले जाएगी.

गौरव सोलंकी