यह दंडकारण्य का वह दंतेवाड़ा तो नहीं जहां के एक बड़े हिस्से में माओवादियों द्वारा पीपुल्स गवर्नमेंट का राज चलता है लेकिन एशिया के सबसे बड़े साल के जंगल सारंडा की पिछले दस साल में जैसी हालत हो गई है, उसे दूसरा दंतेवाड़ा कहना गलत नहीं होगा. निराला और अनुपमा की यह विशेष रिपोर्ट
बहादुर सिंह मुंडा एक-एक कर बातों को समझाते हैं. जब हम सारंडा के इलाके में प्रवेश करेंगे तो गाड़ी का हॉर्न कुछ-कुछ अंतराल पर लगातार बजते रहना चाहिए. गाड़ी में म्यूजिक सिस्टम दुरुस्त रखना होगा. तेज आवाज में गीत-संगीत बजते रहना चाहिए, वह कानफाड़ू ही क्यों न हो. और हां, गाड़ी की खिड़कियों के शीशे बंद करने की बिलकुल जरूरत नहीं. यह सब इसलिए ताकि हर सौ कदम पर किसी न किसी रूप में मौजूद माओवादी कार्यकर्ताओं को यह कतई न लगे कि कोई पुलिसवाला जा रहा है, जिसकी गाड़ी में म्यूजिक सिस्टम नहीं होता या जिसने खिड़कियों को बंद रखा है या जो हॉर्न बजाए बिना चुपके से निकलना चाह रहा हो. ऐसा संदेह होने पर आप औसतन हरेक किलोमीटर की दूरी पर बिछे लैंडमाइन, केन बम आदि की चपेट में आ सकते हैं.
‘हम पानी-बिजली की मांग करते रहे तो कोई सुनने तक तो तैयार नहीं था. लेकिन हमारे ही गांव के बगल में जब कंपनियां आती हैं तो उनके लिए दस दिनों के अंदर ही सारे इंतजाम हो जाते हैं’
बहादुर की ये हिदायतें सिहरन पैदा करने वाली हैं. लेकिन यात्रा में खुद बहादुर साथ हैं, इसलिए भय थोड़ा कम है. सब समझ लेने के बाद हम छोटानागरा इलाके के लिए निकलते हैं. छोटानागरा कभी धार्मिक पर्यटक स्थल के रूप में मशहूर था, बताया जाता है कि कभी यहां उड़ीसा के क्योंझर राज ने मानव निर्मित खालों से दो नगाड़े बनवाए थे, जो अब भी आस्था के प्रतीक के तौर पर विराजमान हैं. लेकिन अब छोटानागरा की एक नई पहचान भी है. यहीं से वह रास्ता शुरू होता है, जहां खून, बारूद, विस्फोट, वर्चस्व की भाषा ही अब मुख्यधारा की भाषा है. यानी माओवादियों और पुलिस के बीच मुठभेड़ का इलाका. कटे हुए रोड डरा रहे हैं क्योंकि इनका सीधा मतलब होता है कि यहां लैंडमाइन हो सकती है. डर के इस माहौल में स्वभाव से संकोची-शर्मीले बहादुर खामोशी को तोड़ते हुए पहला सवाल करते हैं, ‘आपलोग पत्रकार हैं तो यह एक बात मालूम होगी कि हमारे पुरखों ने जंगल-पहाड़ों की दुर्गमता से लड़ाई लड़ अपने रहने के लिए, अपनी खेतीबाड़ी के लिए जगह तैयार की. जानवरों की खोह में इंसानों के आने-जाने के अवसर उपलब्ध कराए. लेकिन जब इसके एवज में वर्षों से हम पानी-बिजली की मांग करते रहे तो कोई सुनने तक को तैयार नहीं था. लेकिन हमारे ही गांव के बगल में जब कंपनियां आती हैं तो उनके लिए दस दिनों के अंदर ही बिजली-पानी-सड़क का इंतजाम हो जाता है. ऐसा क्यों?’
बहादुर अपनी बात जारी रखना चाहते हैं. अगला सवाल- ‘यदि कोई ग्रामीण एक शाम का खाना माओवादियों को मजबूरी में खिला देता है तो उसे नक्सली मददगार बताकर मारा-पीटा जाता है, जेल भेजा जाता है लेकिन उद्योगपति, व्यवसायी, कारोबारी वर्षों से लाखों-करोड़ों की लेवी देते हैं, उन्हें नक्सली मददगार क्यों नहीं कहा जाता?’ अब बहादुर सिंह का स्वर मुखर होता है. अगला सवाल-‘आपने कभी सोचा है नक्सलियों और पुलिसवालों दोनों को ही सारंडा से इतना मोह क्यों है?’
हमें भी इसी सवाल का जवाब तलाशना है कि आखिर एशिया के सबसे बड़े साल के जंगल सारंडा में ही सुरक्षा बलों की इतनी रुचि क्यों जबकि नक्सलियों का खौफ तो झारखंड के दूसरे इलाकों में भी इससे कम नहीं. चतरा जिले में तो माओवादियों ने प्रतापपुर के 40 से अधिक गांवों की जिंदगियों को चार माह तक नाकेबंदी में कैद कर रखा था. लेकिन वहां कोई बड़ा ऑपरेशन नहीं चला. पलामू में भी साल की शुरूआत में काफी समय तक कई गांवों की जिंदगी माओवादी फरमान के कारण रुकी रही. लातेहार इलाके में कई प्रखंड ऐसे हैं, जहां पत्ता तक माओवादियों की मर्जी के बिना नहीं खड़कता. गुमला के इलाके में जहां पाट और पहाड़ी क्षेत्रों के बीच नक्सली संगठन अपना राज चलाते हैं, वहां भी कोई बड़ा ऑपरेशन होता नहीं दिखता. रांची से सटे बुंडू-तमाड़ के इलाके में तो विधायक रमेश सिंह, इंस्पेक्टर फ्रांसिस इंदवार की हत्या हुई, कई-कई बड़े लूट कांड हुए. यहां माओवादी नेता कुंदन पाहन की इजाजत के बगैर इलाके के गांवों में कुछ नहीं होता. लेकिन वहां भी इतना बड़ा ऑपरेशन कभी क्यों नहीं चलाया गया जबकि कुछ माह पूर्व वहां के 40 गांवों के ढाई हजार ग्रामीणों ने पुलिस को यह भरोसा दिलाया था कि यदि आर-पार की लड़ाई लड़नी है, इलाके से नक्सलियों को खदेड़ना है तो दो-तीन माह तक सघन अभियान चलाएं हम साथ देंगे. लेकिन वैसा कुछ नहीं हो सका. तो फिर सारंडा में ही इतनी रुचि क्यों?
‘पुलिस या तो आर-पार की लड़ाई लड़े या हमें माओवादियों के भरोसे छोड़ दे. हमलोग तो दोनों के बीच पिसकर बर्बाद हो रहे हैं. यहां की नई पीढ़ी से दहशत और हिंसा के बीच पैदा हो रही है’24 से 27 सितंबर के बीच करीबन तीन से चार हजार पुलिसबलों ने सारंडा एरिया के थोलकोबाद, मनोहरपुर, छोटानागरा, जराईकेला, दीघा, भालूलता, बिमलागढ़, राउरकेला और किरीबुरू के रास्ते इलाके को अपने नियंत्रण में लेने की कोशिश की. दीघा, तिरिलपोसी जैसे गांवों में तीन दिनों तक जिंदगी ठहरी रही. कोबरा पुलिस के नेतृत्व में पहुंचे पुलिसबलों की इतनी संख्या के बावजूद माओवादियों ने 25 सितंबर को सात लैंडमाइन विस्फोट करके दो जवानों को उड़ा दिया. कोबरा का भी एक जवान शहीद हुआ. कोबरा बटालियन के असिस्टेंट कमांडेंट नितेश कुमार घायल हो गये. इसके बाद पुलिसवालों के कई विरोधाभासी बयान सुनने को मिले. कभी कहा गया कि दर्जन भर माओवादी मार दिए गए हैं, आधे दर्जन से अधिक कैंप ध्वस्त कर दिए गए हैं. फिर कहा गया कि चार माओवादी मारे गए हैं. इसके बाद अचानक से ऑपरेशन को रोक दिया गया और सारे पुलिसवाले बीहड़ से वापस आ गये तो एक लाश को दिखाया गया. कहा गया कि केवल एक माओवादी की लाश हमारे हाथ लग सकी, बाकियों को माओवादी उठा ले गए लेकिन इस बात का खंडन करते हुए माओवादी प्रवक्ता समरजी का कहना है कि इस मुठभेड़ से उनके संगठन को कोई नुकसान नहीं हुआ. न ही कोई कैंप ध्वस्त हुआ, न ही कोई मारा गया, पुलिस गलतबयानी कर रही है. इस बाबत पूछे जाने पर चाईबासा जिले के एसपी अरुण कुमार कुछ भी बताने से इनकार करते हैं. वे कहते हैं कि इस संबंध में राज्य के वरीय पुलिस पदाधिकारी ही कुछ बता सकते हैं. वरीय पुलिस पदाधिकारियों में डीजीपी नेयाज अहमद कहते हैं कि हमने सफलता पाई है, अब फिर नए सिरे से बड़े स्तर पर ऑपरेशन की शुरुआत होगी. माओवादी प्रवक्ता समरजी या पुलिस पदाधिकारियों की बात को परे कर दें तो इलाके में अधिकांश लोग यह मानने को तैयार ही नहीं कि करीबन 72 घंटे तक इलाके को घेरकर अंधाधुंध फायरिंग आदि करने के बाद पुलिस ने कुछ हासिल भी किया होगा. सिवाय इसके कि इन दिनों यहां का इलाका बेहद अशांत रहा. जैसा कि छोटानागरा में हमें मिले प्रमोद सिंकू कहते हैं, ‘पुलिस या तो आर-पार की लड़ाई लड़े या हमें माओवादियों के भरोसे छोड़ दे. हमलोग तो दोनों के बीच पिसकर बर्बाद हो रहे हैं. यहां की नई पीढ़ी दहशत और हिंसा के बीच पैदा हो रही है. उससे भविष्य में एक सभ्य, जिम्मेवार भारतीय नागरिक बनने की उम्मीद कैसे की जा सकती है?’
झारखंड से होकर 1,500 किलोमीटर की रेल लाइन गुजरती है, जिसमें करीब 1,300 किलोमीटर की यात्रा नक्सल प्रभावित क्षेत्रों से ही होती है. 292 रेलवे स्टेशनों में से 168 उनके निशाने पर है
सिंकू सच ही कहते हैं. सारंडा हमेशा से ही शिकारगाह बना रहा है. पहले यह सरायकेला एस्टेट की शिकारगाह हुआ करता था, अब बड़ी कंपनियों, दलालों, माओवादियों की शिकारगाह है. इतिहास में जाएं तो 19 दिसंबर, 2001 को पुलिस ने इस इलाके में नक्सली ईश्वर महतो को मार गिराया था, जिसके बाद नक्सलियों ने एक का बदला सौ से लेने की बात कही थी. सौ तो नहीं लेकिन आधिकारिक तौर पर अब तक 70 का आंकड़ा पार हो चुका है. सुरक्षाबलों के लिए कब्रगाह बन चुके सारंडा में 19 दिसंबर 2002 को नक्सलियों ने बिटकलसोय में बम विस्फोट कर 12 पुलिसकर्मियों को मार गिराया था. कुछ ग्रामीण भी मारे गये थे. उसके दो साल बाद ही बलिवा कांड हुआ, जिसमें करीब तीस पुलिसकर्मी शहीद हो गए. दो साल बाद 2006 में फिर नक्सलियों ने एक बड़े कांड को अंजाम दिया, जिसमें 12 पुलिसवाले शहीद हुए. पुलिसवालों की शहादत, गोली-बारूदों की आवाज ने शांत सारंडा को अशांत इलाके में तब्दील कर दिया.
प्रसिद्ध पर्यटन स्थल को जानलेवा जंगल में बदलने में सबसे बड़ी भूमिका नक्सलियों की रही और उतनी ही राजनीति की भी. इसी इलाके से मधुकोड़ा जैसे नेता मुख्यमंत्री पद तक पहुंचे लेकिन उन्होंने खानों-खदानों का जो खेल किया, सबने देखा. वर्तमान मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा भी सारंडा के पड़ोस से ही हैं. दूसरी ओर नक्सलियों का ट्रेंड देखें तो पता चलेगा कि वे किसी एक इलाके में बहुत दिनों तक डेरा नहीं डालते, लेकिन सारंडा एक ऐसी जगह है, जहां से नक्सली किसी भी कीमत पर जाना नहीं चाहते. सबसे बड़ा कारण है यहां से मिलने वाली मोटी लेवी. खुफिया विभाग ने दो साल पहले पुलिस मुख्यालय को जो जानकारी दी थी, उसके अनुसार पश्चिमी सिंहभूम से ही सबसे ज्यादा लेवी की वसूली माओवादी करते हैं. एक आंकड़े के अनुसार यह रकम 4 करोड़ 46 लाख 30 हजार रुपये सालाना है. हालांकि जानकार बताते हैं कि खुफिया विभाग की यह जानकारी सही नहीं बल्कि इस इलाके से लगभग एक करोड़ रुपये प्रतिमाह की लेवी दी जाती है. मनोहरपुर में मिले सामाजिक कार्यकर्ता और मानकी-मुंडा समिति के सलाहकार डाहंगा बताते हैं कि ‘यह सब धीरे-धीरे हुआ. पहले यहां के लोग बहुत शांत थे, अब भी शांत हैं. लेकिन जब से खनन कंपनियों के साथ दलालों का आना शुरू हुआ तब से पूरी व्यवस्था ही बदल गई. यहां के नौजवानों को माओवादी संगठन यह फरेबियत दिखाने लगे कि यदि थोड़ी कोशिश करो तो पैसे की भरमार है. उसी के फेरे में नौजवान इसमें जुड़ते चले गये’.
सारंडा के जंगलों में घूमते हुए रास्ते में आपको हाथियों के समूह, टेढ़े-मेढ़े रास्ते मिलेंगे. चारों ओर पहाड़ियां ही पहाड़ियां. लगभग 80 हजार हेक्टेयर में फैले एशिया के इस सबसे बड़े साल के जंगल में जितने किस्म के संकट हैं, उनसे भयभीत होना स्वाभाविक है. कई जगहों पर सड़क को ही खलिहान बने देखना साफ बताता है कि इस रास्ते कभी-कभार ही कोई आता-जाता होगा. कई जगहों पर उड़ी हुई सड़कें बताती हैं कि यहां कभी विस्फोट हुआ है. अंदर के गांव के रास्तों में पेड़ पर स्थायी तौर पर लगे नक्सली पोस्टर बताते हैं कि यहां पोस्टरों को हटाने वाला कोई नहीं. इन सबके बीच एक स्कूल में फुटबॉल मैच खेलती लड़कियों को देख एक अजीब- से रोमांच का भी अनुभव होता है. सारंडा तबाही और बर्बादी के उस मुहाने पर पहुंच चुका है, जहां से वापस आने की उम्मीदें नहीं दिखतीं. माओवादियों के बारे में या पुलिसवालों के बारे में बच्चे तक कुछ नहीं बताना चाहते. लेकिन निराशा के गहरे गर्त में भी कहीं-कहीं टिमटिमाती उम्मीदें दिखती हैं. जैसा कि मनोहरपुर में मिले हितेंद्र कहते हैं, ‘नक्सली कोई क्रांति नहीं कर रहे न ही उन्हें बदलाव आदि से कोई लेना-देना रह गया है. उनका मुख्य काम पैसे की उगाही है. सारंडा का ही एक हिस्सा है बंदगांव का इलाका. यहां जंगल माफियाओं ने पिछले दस वर्षों से तबाही मचा रखी है. बच्चों से जंगल कटवाते हैं. ग्रामीणों का घर जला देते हैं. महिलाओं से दुष्कर्म करते हैं. लेकिन कहां कभी कोई माओवादी नेता उन माफियाओं को सजा देने सामने आया.’ हितेंद्र आगे बताते हैं कि इसी सारंडा को ठेकेदारों ने लूटा, लेकिन माओवादियों ने कुछ नहीं किया. उनकी तो सिर्फ पुलिसवालों से दुश्मनी है. लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि पुलिसवाले भी अपनी नौकरी करते हैं. हितेंद्र हमें माओवादियों और ठेकेदारों-बिचौलियों के रिश्ते को समझने के लिए गोइलकेरा जाने के लिए कहते हैं.
रास्ते में बहादुर मुंडा बताते हैं कि ‘इतना ही नहीं एक और खेल भी चलता है. ठेकेदारों और माओवादियों की दोस्ती इतनी गहरी होती है कि आप विश्वास नहीं कर सकते. ठेकेदार किसी पुल-पुलिया का निर्माण करवा रहे होते हैं तो माओवादियों से सेटिंग कर वे बीच में ही उसे उड़वा देते हैं. फायदा यह होता है कि ठेकेदार सरकारी फाइलों में यह दिखा देते हैं कि हमने तो 90 फीसदी कार्य पूरा करवा लिया था. अब उन्हें भुगतान 90 प्रतिशत कार्य के आधार पर होता है जबकि असल कार्य केवल दस फीसदी ही हुआ था. दिखावे के लिए या फिर जनता को जोड़े रखने के लिए नक्सलियों ने किरीबुरू के इलाके में किसानों को कुछ पंपिंग सेट वगैरह भी दिए हैं’.
मनोहरपुर से वापसी में हम हितेंद्र के सुझाए गोइलकेरा में रुकते हैं. गोइलकेरा की एक चाय की दुकान पर मिले वंशीधर ठेकेदारों-बिचौलियों और नक्सलियों के बीच के समीकरण और सांठ-गांव को समझाते हैं. वे कहते हैं, ‘आप यह सोच सकते हैं कि इतने घनघोर जंगल में पुलिस की इतनी मुस्तैदी के बीच माओवादियों को खाद्य सामग्री किस तरह पहुंचती होगी. उनके पास अत्याधुनिक चीजें कैसे पहुंच जाती हैं.’ कभी इस खेल में खुद शामिल रह चुके वंशीधर कहते हैं, ‘माओवादियों की जरूरतों को पूरा करने के लिए कई चैनल बने हुए हैं. सबसे बड़े चैनल ठेकेदार हैं जो निर्माण कार्य के लिए ले जाई जा रही सामग्री के बीच या मजदूरों को खिलाने-पिलाने के बहाने खाद्य सामग्री माओवादियों तक पहुंचा देते हैं. बाकी बची कसर रेल से पूरी की जाती है. इस इलाके में रेलगाड़ियों का परिचालन माओवादियों के इशारे पर ही होता है. वह जहां चाहते हैं वहीं रुकती है, फिर उनमेंें सामग्री लोड की जाती है और निर्धारित पड़ाव पर उसकी डिलीवरी कर दी जाती है. रेल ड्राइवर या गार्ड कुछ नहीं कह पाते क्योंकि उन्हें पता है कि झारखंड से होकर 1,500 किलोमीटर की रेल लाइन गुजरती है, जिसमें करीब 1,300 किलोमीटर की यात्रा नक्सल प्रभावित क्षेत्रों से ही होती है. 292 रेलवे स्टेशनों में से 168 उनके निशाने पर हैं.
खैर! इन सारी बातों के साथ बहादुर सिंह मुंडा के सवाल सारंडा यात्रा में बढ़ते ही जाते हैं. बहादुर बताते हैं कि अभी तो स्थिति कम भयावह है लेकिन कुछ वर्षों बाद यहां सिर्फ और सिर्फ खून की नदियां ही बहनी हैं. पुलिस हथियारों के बल पर नक्सलियों से पार पाना चाहती है, जो संभव नहीं. गांववालों को भरोसे में लेना होगा. विकास करना होगा. जब हम किरीबुरू के इलाके में जा रहे होते हैं तो बीच में ही कहीं रुककर बहादुर किसी के घर से कागज का एक टुकड़ा लाते हैं. उसे बांचते हुए कहते हैं, ‘आपको मालूम न कि यहां एक चिड़िया माइंस है, जहां एशिया का सबसे बढ़िया लौह अयस्क मौजूद हैं. दुनिया में इतना बढ़िया लोहा सिर्फ अमेरिका में ही पाया जाता है. वे बताते हैं कि सारंडा खनन से खोखला हुआ है. 80 हजार हेक्टेयर वाले इलाके में फिलहाल 14,022 हेक्टेयर खनन से प्रभावित इलाका है. नई खदानों के लिए 37,814 हेक्टेयर में प्रस्ताव मिला है. दोनों को मिला दें तो यह खेत्रफल 51,836 हेक्टेयर पहुंच जाता है. इस तरह मात्र 28,164 हेक्टेयर इलाका ही वैसा बचेगा जिसमें जंगल रहेंगे, इंसानों को भी रहना होगा और जानवरों को भी.
गोइलकेरा से चक्रधरपुर आने के क्रम में कई-कई सवालों से मुठभेड़ होती है. हम चाईबासा जाते हैं जहां प्रसिद्ध प्राध्यापक प्रो अशोक सेन से मुलाकात होती है. प्रो सेन कहते हैं कि यह अभिशप्त इलाका है. अंग्रेजों के जमाने में यहां उनका जुल्म था, अब नए शासकों का जुल्म है. वे कहते हैं कि पुलिस बार-बार तमाशा क्यों करती है. यदि कोई अभियान चलाना है तो गंभीरता से चलाओ या नहीं चलाओ. यह क्या है कि चलाया, इलाका मानसिक तौर पर तैयार हुआ तो बीच में रोक दिया. वे बताते हैं, ‘आप इसी से समझ सकते हैं कि चाईबासा कोल्हान का एक प्रमुख स्थान है. यहां से जमशेदपुर के बीच अंग्रेजों के जमाने में भी एक ही सवारी गाड़ी चलती थी, हाल तक एक ही चलती रही. अभी हाल ही में आंदोलन के बाद एक और गाड़ी का ठहराव हुआ है. अंग्रेजों ने इसे मालगाड़ी के लिए बनाया था, अब के शासक भी इंसानों की बजाय माल को ही ज्यादा तरजीह देते हैं. विकास ही नहीं हुआ तो क्या होगा, विनाश तो तय है, चाहे जिस रूप में हो.’ लेकिन मध्य प्रदेश कैडर के पूर्व वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी और वर्तमान में केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय की नक्सल मैनेजमेंट डिविजन के सदस्य डीएम जॉन मित्रा कहते हैं कि माओवादियों को दमन से तो खत्म नहीं ही किया जा सकता लेकिन विकास से भी वे खत्म नहीं होंगे. राजनीतिक सक्रियता जरूरी है और असमानता की लकीर जो वर्षों से खींची गई है, उसे धीरे-धीरे पाटना होगा. छल और फरेब सार्वजनिक संस्थानों ने भी किया है, उसे सुधारना होगा और लौंग टर्म प्लानिंग के तहत काम करना होगा.
सारंडा की खाक छानने के बाद हम चक्रधरपुर पहुंचते हैं. वहां बहादुर सिंह मुंडा विदा लेते हैं. कहते हैं, ‘सेवा समाप्त. अब यह भूलकर जाएं कि हम और आप कभी मिले भी हैं.’ रात के आठ बजे हैं. बहादुर समझाते हैं, ‘आगे टैबोघाटी में भी वही फॉर्मूला अपनाइएगा. वह भी सारंडा का ही हिस्सा है. तेज म्यूजिक, तेज और रूक-रूककर लगातार हॉर्न बजाना.’ टैबोघाटी यानी बंदगांव से टैबो थाना तक का वह इलाका, जहां चाईबासा, चक्रधरपुर, सारंडा इलाके में जाने की मुख्य सड़क है. इन दोनों थाना क्षेत्रों के बीच करीब 30 किलोमीटर के इलाके में कोई मोबाइल काम नहीं करता. जो टावर लगाए जाते हैं उन्हें उड़ा दिया जाता है. सड़क की हालत यह है कि आप 50 की गति से भी नहीं चल सकते. बंदगांव की बंद गलियां और टैबो की दुर्गम घाटी फिर से रोंगटे खड़ी करती हैं. भय के इस माहौल से निकलते यानी टैबोघाटी पार करते ही एक बार बहादुर सिंह मुंडा का फोन आता है, ‘कहां पहुंचे?’ फिर बहादुर कहते हैं कि आप असल सारंडा तो जा ही नहीं सके, जिसके लिए यह कभी मशहूर रहा है. आप न तो कायदे से छोटानागरा का मंदिर देख सके, न दक्षिण कोयल नदी में सुवर्ण कणों को, न थोलकोबाद, जहां ज्वालामुखी फटने के अवशेष हैं, न टायबो जलप्रपात देखने गए, जहां 116 प्रकार की प्रजाति के पौधे मौजूद हैं. फिर बहादुर कहते हैं, ‘कोई बात नहीं, समीज आश्रम तो देख लिए न, जो शंकराचार्य द्वारा स्थापित है और जहां पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव भी आ चुके हैं. कम से कम आपने मनोहरपुर से सूर्यास्त होते तो देख लिया न, जिसे देखने के लिए दस साल पहले तक सैकड़ों की संख्या में उड़ीसा, बंगाल, बिहार के पर्यटक पहुंचते थे.’