किसी साम्राज्य का पराभव देखना ठीक वैसा ही अनुभव होता है जैसे किसी बाघ द्वारा हिरन का शिकार होते देखना. देखने वाले को एक जान जाने का दुख भी होता है और शिकारी की तेजी देखकर एक तरह का रोमांच भी. रिकी पोंटिंग के नेतृत्व में ऑस्ट्रेलिया की टीम के साम्राज्य का पराभव देखना भी ऐसा ही मिला-जुला अनुभव है. अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट परिषद (आईसीसी) की रैंकिंग सात साल पहले 2003 में शुरू हुई थी. यदि वह 1995, जब रिकी पोंटिंग ने अपना पहला अंतर्राष्ट्रीय मैच खेला था, में शुरू हुई होती तो ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट टीम हाल के कुछ महीनों को छोड़कर पूरे समय शीर्ष स्थान पर बनी रहती.
इसलिए हैरानी की बात नहीं है कि पोंटिंग ऑस्ट्रेलिया की तरफ से उन 98 टेस्ट मैचों का हिस्सा रहे हैं जिनमें टीम को जीत हासिल हुई है, यह अपने आप में एक विश्व रिकॉर्ड है. पोंटिंग कभी भी एक महान कप्तान नहीं रहे, इसकीे बजाय वे ऐसे कप्तान रहे हैं जिसे एक महान टीम का नेतृत्व करने का मौका मिला. यही वजह है कि पोंटिंग को एक कमतर टीम का नेतृत्व करते हुए देखकर दुख होता है. उनकी कप्तानी इस दौरान आलोचना के घेरे में है; वे इंग्लैंड और भारत में दो सीरीज हार चुके हैं. भारत में तो ऑस्ट्रेलिया को पिछले सात टेस्ट मैचों में से पांच में हार का सामना करना पड़ा है. ऑस्ट्रेलिया में इसी महीने से ऐशेज सीरीज शुरू होने वाली है. यह टीम के लिए वापसी का एक बड़ा मौका है क्योंकि अपने कट्टर प्रतिद्वंद्वी इग्लैंड को हराने का मतलब है अतीत के सारे गुनाहों से माफी, लेकिन नतीजा जो भी हो पोंटिंग की कप्तानी अब आखिरी पड़ाव पर है.
पोंटिंग के मामले में खास बात यह है कि 35 साल की उम्र में भी वे टीम के सबसे बढ़िया बल्लेबाज हैं
इसे पोंटिंग के लिए एक विडंबना ही कहा जाएगा कि बतौर कप्तान जिस व्यक्ति को 47 टेस्ट मैच (एक विश्व रिकॉर्ड है) जिताने का श्रेय जाता है उसके सिर पर ही हाल की पराजयों का ठीकरा फोड़ा जा रहा है. शायद पोंटिंग के सामने जीत का यही आंकड़ा उनकी सबसे बड़ी चुनौती है. भारत में उनके पास वह टीम ही नहीं थी जो जीत दिला सके. मोहाली टेस्ट मैच में ऑस्ट्रेलिया महज एक सही बॉल फेंकने से चूकता रहा और जीतते-जीतते मैच हार गया. यदि उस मैच में कंगारुओं को जीत मिल गई होती तो पूरी सीरीज की पटकथा दूसरी तरह से लिखी जाती. यदि उस मैच के आखिरी ओवरों में प्रज्ञान ओझा के पैड से लगी बॉल पर अंपायर बिली बोडेन उंगली उठाकर ऑस्ट्रेलिया के पक्ष में फैसला दे देते…या फिर माइकल क्लार्क थोड़े और ज्यादा रन बना लेते तो…या फिर पोंटिंग इंग्लैंड में दो बार सीरीज नहीं हारे होते…. संभावनाएं कई हो सकती थीं लेकिन दुर्भाग्य से क्रिकेट बस मैदान पर ही संयोगों का खेल होता है और इतिहास उन संयोगों से नहीं लिखा जाता जो कभी हुए ही नहीं, वह नतीजों और आंकड़ों से तय होता है.
बेंगलुरु टेस्ट मैच हारने के बाद पोंटिंग ने कहा था कि उनका सत्तर-एक रन बनाकर आउट होना पर्याप्त नहीं था, ‘मुझे इस मैच में दोहरा शतक बनाना चाहिए था.’ कप्तान की इस व्याख्या के बाद भी जिन लोगों ने वह मैच देखा है वे दावे के साथ कह सकते है कि सचिन के दोहरे शतक के बावजूद पोंटिंग की बल्लेबाजी काबिलेतारीफ थी.
लेकिन बल्लेबाजी ही सब कुछ नहीं होती. फिलहाल ऑस्ट्रेलिया क्रिकेट टीम की आईसीसी रैंकिंग पांचवीं है जो इस टीम का अब तक का सबसे निचला स्तर है. कभी पोटिंग के पास शेन वार्न, एडम गिलक्रिस्ट, ग्लेन मैकग्राथ और मैथ्यू हैडेन जैसे बेहतरीन खिलाड़ी थे जिनकी बदौलत उनकी कप्तानी का रिकॉर्ड चमकदार बना. लेकिन नाथन हॉरित्ज, पीटर जॉर्ज और टिम पेन वाली नई पीढ़ी वैसा प्रदर्शन नहीं कर पा रही. पोटिंग से उम्मीद की जा रही है कि वे इन खिलाड़ियों को उस स्तर के लिए तैयार करें. मगर इस भूमिका में वे खुद को सहज नहीं पाते. इसलिए भले ही उनका बल्ला बोल रहा हो मगर उनकी कप्तानी को लेकर सवाल उठने लगे हैं.
वैसे कप्तान बनाम टीम की बहस को फॉर्मूला वन के ड्राइवर-कार विवाद की तर्ज पर देखा जा सकता है. क्या एक खटारा कार को चलाकर एक महान ड्राइवर रेस जीत सकता है? इसी तरह सवाल यह भी है कि क्या एक घटिया ड्राइवर सिर्फ बेहतरीन कार के सहारे सबसे आगे निकल सकता है?
इन सवालों का जवाब काफी आसान है और इन्हीं में कप्तानी का सारतत्व भी खोजा जा सकता है. खेल के इतिहास में ऐसे उदाहरण भी मौजूद हैं जो बताते हैं कि एक कप्तान अपनी काबिलियत से टीम का प्रदर्शन किस ऊंचाई तक पहुंचा सकता है : क्रिकेट में माइक ब्रियरले (इंग्लैंड) की प्रतिष्ठा सिर्फ अपनी कप्तानी की वजह से है. 1981 में एशेज सीरीज के दौरान जब इयान बॉथम के नेतृत्व में इंग्लैंड 0-1 से पिछड़ गया था तब बाकी के दो मैचों में माइक को कप्तानी करने का मौका मिला. ये माइक की कप्तानी का ही कमाल था कि शुरुआती मैच हारने के बाद इंग्लैंड 2-1 सीरीज जीत गया. टाइगर पटौदी ने भी भारत को वेस्टइंडीज के खिलाफ 0-2 से पिछड़ने के बाद 2-2 की बराबरी पर पहुंचाया था ( हालांकि 1974-75 में हुई पांच मैचों की सीरीज वेस्टइंडीज 3-2 से जीत गया था). ये दो उदाहरण बताते हैं कि कैसे एक कप्तान कमजोर टीम की किस्मत बदल सकता है.
लेकिन आखिर में क्रिकेट की वही घिसी-पिटी बात सबसे महत्वपूर्ण हो जाती है कि कोई कप्तान बस उतना ही बेहतरीन होता है जितनी उसकी टीम. पोंटिंग के करियर के दौरान उनके प्रतिद्वंद्वियों (कुछ मायनों में उनसे बेहतर ) और सर्वकालीन श्रेष्ठ बल्लेबाजों की सूची में शामिल तेंदुलकर और ब्रायन लारा को भी कप्तानी में हाथ आजमाने को मौका मिला, हालांकि दोनों के लिए इस पिच पर जमना सबसे मुश्किल साबित हुआ. उनका कप्तानी करियर इतने आगे तक नहीं जा पाया कि बल्लेबाजी के बरक्स जब कप्तानों से जुड़ी बहस चलेगी तो उनका नाम भी इसमें शामिल हो पाए. पोंटिंग के पास यह रियायत नहीं है. उनका आकलन जितना बल्लेबाज के तौर पर होगा उतना ही उनकी कप्तानी के लिए भी और इसके आगे उनके नेतृत्व में मिली जीतों से ज्यादा उनके दौर में मिली पराजयों पर. यही वह कीमत है जो शीर्ष स्थान पर रहने वाले खिलाड़ियों को चुकानी पड़ती है. उनके आकलन के पैमाने बाकियों से काफी अलग होते हैं.
पोंटिंग से जुड़ी एक विडंबना यह भी है कि हाल के सालों में वे खेल के बढ़िया प्रवक्ता, मैदान पर शांत चित्त खिलाड़ी और टेस्ट मैचों के बड़े पैरोकार के रूप में सामने आए हैं. लेकिन उनके मैच जीतने की दर तब सबसे ज्यादा रही है जब वे इस छवि से उलट आक्रामक खिलाड़ी के तौर पर मैदान में दिखे. ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट में परंपरा है कि वे पहले अपने 11 खिलाड़ी चुनते हैं. उसके बाद कप्तान चुना जाता है जो अमूमन उनमें से सबसे अच्छा बल्लेबाज होता है (यह परंपरा भारत और इंग्लैंड के बिलकुल उलट है जहां पहले कप्तान चुना जाता है). पोंटिंग के मामले में खास बात यह है कि 35 साल की उम्र में भी वे टीम के सबसे बढ़िया बल्लेबाज हैं, पर जरूरी नहीं है कि वे आज भी सबसे अच्छे कप्तान हों. ऑस्ट्रेलिया के लिए शायद समय आ गया है जब उसे अपनी परिपाटी को तोड़ते हुए एक ऐसा कप्तान चुनना चाहिए जिसके अच्छा खिलाड़ी होने की अनिवार्यता न हो. ऑस्ट्रेलिया अपने सफलतम कप्तान के नेतृत्व में न खेलने का जोखिम तो उठा सकता है लेकिन सबसे सफल बल्लेबाज के न खेलने का नहीं.