‘पैसे के लिए मशीन की तरह नहीं गा सकती’

पटना के राजेंद्र नगर में स्थित शारदा सिन्हा के घर ’नारायणी’ में  निराला से हुई उनकी बातचीत के अंश – 

नया क्या हो रहा है इन दिनों?

नया क्या, मेरे जेहन में तो हमेशा पुराना ही चलता रहता है. गीतों की तलाश में लगी रहती हूं. पारंपरिक, ठेठ लोकगीत मिल जाए तो उसे गाकर अगली पीढ़ी के लिए सुरक्षित कर जाऊं. नए में ज्यादा रुचि नहीं.

पर नया हो तो बहुत कुछ रहा है. लोकगीतों में टैलेंट हंट प्रोग्राम, एलबमों की भरमार, भोजपुरी फिल्मों का अंधाधुंध निर्माण…

टैलेंट हंट में जो बच्चे आ रहे हैं, उनमें काफी संभावनाएं हैं. बस, वे एक चीज से बचें तो बेहतर. गीतों की नकल कर के गायक बनने का ख्वाब न रखें, फटाफट फॉर्मूले में विश्वास न करें. यह तुरंत सफलता तो दिला भी दे, लेकिन आखिर में खारिज कर दिए जाएंगे. रियाज करें, धैर्य रखें और जो गाएं उसे निजी जीवन में निभाएं भी. रही बात अंधाधुंध एलबम निर्माण की तो मैं कभी रेस में नहीं रहती. सिर्फ पैसे के लिए मशीन की तरह गीतों की बौछार नहीं कर सकती. गीत मेरे मनमुताबिक होने चाहिए. और फिर यह जो भोजपुरी फिल्मों का दौर है उससे तो मैं रिदम ही नहीं बिठा पाती. मैं तो डरती हूं कि अभी जो हो रहा है, कहीं वही मुख्यधारा न बन जाए. गीतकार, बाजार, गायक, कलाकार और श्रोता, सब लोकसंगीत को हाईवे सांग बनाने पर आमादा हैं.

इसके लिए किसको जिम्मेदार मानती हैं?

जिम्मेदार तो सभी हैं. सरोकार खत्म हो रहे हैं. अश्लीलता बढ़ती जा रही है. म्यूजिक कंपनियों का भी दबाव रहता है कि गीत ऐसे हों जो रातों-रात, चाहे जिस भी वजह से हो, चर्चे में आ जाएं. नये गायकों को समझाती हूं कि क्यों ऐसे ऊल-जुलूल गीत गाते हो तो कहते हैं कि पेट का सवाल है. रही बात श्रोताओं की तो वे कभी रिएक्ट नहीं करते, इसलिए यह सब चल रहा है.

गीत-संगीत का सफर आपने कैसे शुरू किया?

गाने का शौक बचपन से था. शादी-ब्याह के लोकगीतों के अलावा क्लासिकल गीत-संगीत में भी रुचि थी. संगीत से प्रभाकर कर रही थी और मणिपुरी नृत्य का प्रशिक्षण भी ले रही थी. इस बीच मेरी शादी समस्तीपुर में डॉ बीके सिन्हा से हो गई. उसके बाद ससुराल में भी मैंने गाना नहीं छोड़ा. सास कहती थीं कि क्या करती है, खाली गाती फिरती है. बाद में सास भी मेरे रंग में रंग गईं, वे ही गीत खोज-खोजकर देतीं कि सुन तो यह गीत मेरी दादी सुनाया करती थीं, तुम गा सकती हो तो गाओ.

शादियों में कई रस्में होती हैं,  आपकी शादी में हुई कोई रस्म जो आज भी याद आती हो?

मेरी शादी के बाद विदाई की रस्म शुरू होने लगी उससे पहले मेरे पिता जी ने घर के अंदर मौजूद सभी पुरुष सदस्यों को ओसारे में चलने के लिए कहा. मेरे पति को भी पिता जी ने कहा, ‘मेहमान, आप भी कुछ देर बाहर बैठें.’ उसके बाद उन्होंने धीरे-से मुझसे कहा कि जा ही रही हो शारदा तो एक टा गीत सुनाती जाओ. फिर मैंने पिताजी को उनके दो मनपसंद गीत गाकर सुनाए. मैं गा नहीं पा रही थी, खुद को संभाल नहीं पा रही थी. पिता जी ने गले से लगा लिया. वहां मौजूद सारे लोग रो रहे थे. ऐसे ही माहौल में मैं अपने पिता के घर से विदा हुई.

उस रोज लखनऊ पहुंचकर जितनी कुल्फियां खा सकती थी, खाईं. अपनी आवाज को एकदम से बिगाड़ देने की जिद सवार हो गई थी

तब तक तो आप घर-परिवार के बीच ही गाती थीं, स्टेज और पर्दे पर आपकी संगीत यात्रा कैसे शुरू हुई?

1971 की बात है, तब अखबार में एक इश्तहार आया था कि लखनऊ में ‘टैलेंट सर्च’ चल रहा है. हमने अपने पति बीके सिन्हा को इस बारे में बताया तो वे हमें वहां ले जाने को तैयार हो गए. लखनऊ में ट्रेन से उतरकर सीधा एचएमवी कंपनी के ऑडिशन सेंटर पर पहुंचे. काफी भीड़ थी. जहीर अहमद रिकॉर्डिंग इंचार्ज थे और मुकेश साहब के ‘रामायण’ अलबम में संगीत देने वाले मुरली मनोहर स्वरूप संगीत निर्देशक. नेक्स्ट-नेक्स्ट कर प्रतिभागियों को बुलाया जा रहा था. आखिरी में मैं पहुंची और कहा कि गाना गाऊंगी. जहीर अहमद ने मेरी आवाज में यह एक वाक्य सुनते ही कहा, ‘नहीं जाओ, तुम्हारी आवाज ठीक नहीं है’. उनकी बात से मैं बेहद निराश हो गई थी. सोच लिया कि जब मेरी आवाज रिजेक्ट ही कर दी गई है तो अब कभी नहीं गाऊंगी. उस रोज लखनऊ के अमीनाबाद पहुंचकर जितनी कुल्फियां खा सकती थी, खाईं. अपनी आवाज को एकदम से बिगाड़ देने की जिद सवार हो गई. लेकिन सिन्हा जी ने मेरा हौसला बढ़ाया, कहा कि एक बार और बात करेंगे. अगली सुबह हम फिर बर्लिंगटन होटल के कमरा नंबर 11 में बने एचएमवी के टेंपररी स्टूडियो में पहुंचे. मेरे पति बीके सिन्हा ने वहां मौजूद संगीत निर्देशक मुरली मनोहर स्वरूप से अनुरोध किया, ‘मेरी पत्नी गाना गाती हैं, पांच मिनट का समय दे दीजिए.’ मुरली मनोहर जी तैयार हो गए. सामने देखा तो ऑडिशन लेने के लिए एक महिला बैठी थीं. मैं क्या गाऊं, तय नहीं कर पा रही थी. लोकसंगीत के नाम पर अपनी भौजाई से सीखे दो गीत मुझे याद थे, एक द्वार छेंकाई का गीत ताकि भाई की शादी में द्वार छेंकूं तो कुछ पैसे मिल जाए और दूसरा कन्यादान का. मैंने वही गीत गाना शुरू किया- द्वार के छेंकाई एक दुलरूआ भइया, तब जइहो कोहबर पर… इस गीत के दौरान ही एचएमवी के जीएम केके दुबे भी वहां पहुंच चुके थे. गीत खत्म होते ही केके दुबे ने कहा- मस्ट रिकॉर्ड दिस आर्टिस्ट. और वह महिला जो ऑडिशन जज के रूप में बैठी थीं, उन्होंने पास बुलाकर सर पर हाथ फेरते हुए कहा- बहुत आगे जाओगी, बस रियाज किया करो. इस तरह मेरे गीत रिकॉर्ड हो गए. बाद में पता चला कि वह महिला कोई और नहीं बल्कि बेगम अख्तर थीं जिनकी मैं बहुत बड़ी प्रशंसक हूं.

संगीत की दुनिया में बेगम अख्तर के अलावा और किन्हें पसंद करती हैं?

रशीद अली खान मुझे बेहद पसंद हैं. पंडित हरि प्रसाद चौरसिया को सुनती हूं. बड़े गुलाम अली खां साहब और लता जी को खूब सुनती हूं, गुलाबबाई की गायकी अदा पर फिदा हूं. हबीब तनवीर साहब अब रहे नहीं. उनका स्नेह कभी नहीं भूल सकती.

हबीब साहब से जुड़ी यादों के बारे में कुछ बताएं.

एक बार मैं देहरादून गई थी, ‘विरासत’ नामक आयोजन में भाग लेने. काफी सीनियर कलाकारों का जुटान हुआ था. गंभीर गीत-संगीत चल रहा था. मेरी बारी आई. मैंने भोजपुरी गीत गाया- नजरिया हो हमरी ओर रखियो. कोठा उठवले, कोठरिया उठवले, खिड़िकिया हो हमरी ओर रखियो… प्रोग्राम खत्म हुआ, देखा कि हबीब तनवीर साहब नीचे दर्शक दीर्घा से खुद चले आ रहे थे स्टेज की ओर. किसी ने बताया कि हबीब साहब मिलना चाहते हैं, लेकिन चलने में उन्हें परेशानी है. मैं भागी-भागी नीचे जाने लगी, वे स्टेज तक आ चुके थे. उन्होंने माथे पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘शारदा, तबीयत खुश हो गई. मैं मिलना चाहता था आपसे. आप भोपाल जरूर आओ.’ फिर मैं अगले साल हिंदी दिवस के एक आयोजन में भोपाल गई. विद्यापति के गीतों को गाकर सुनाया. हबीब साहब मौजूद थे. तय हुआ कि अगले कार्यक्रम में मैं ‘जयदेव’ की रचनाएं सुनाऊंगी. पर तब तक हबीब साहब नहीं रहे. उनके जैसा सहज कलाकार, उनका प्यार… हमेशा याद आते हैं हबीब साहब.

आपने गीत-संगीत के कई प्रोग्रामों में हिस्सा लिया है, सबसे यादगार आयोजन कौन-सा रहा?

मेरी शादी बेगूसराय जिले के सिहमा गांव में हुई है. इस नाते बेगूसराय वाले मुझे बहुरिया कहते हैं. वर्षों पहले की बात है. इलाके के कुछ नामी-गिरामी बदनाम-कुख्यात लोगों ने मिलकर एक धार्मिक यज्ञ का आयोजन किया. इलाके में यही हल्ला था कि वे लोग अपने पाप का प्रायश्चित करने के लिए यज्ञ का आयोजन कर रहे हैं. तब बात उठी कि इस यज्ञ की पूर्णाहुति कैसे हो. अधिकतर लोगों ने कहा ‘आपन पतोह छतीन शारदा सिन्हा, उन्हीं से’ मुझे यज्ञ के आखिरी दिन बेगूसराय बुलाया गया. मैं समस्तीपुर से चली तो स्वागत में बछवारा से बेगूसराय तक सड़क के दोनों ओर लोग जमा हुए थे. मैंने अपने जीवन में कभी एक कलाकार को देखने-सुनने के लिए उस तरह की भीड़ नहीं देखी. वह प्यार, वह धैर्य और उतनी बड़ी भीड़ में बहू का मान-सम्मान रखने के लिए अनुशासन बनाए रखना, कभी नहीं भूल सकती. जगदंबा घर में दियरा बार अईनी हे…गीत तब काफी मशहूर हो चुका था. सड़क किनारे लोग एक ही नारा लगा रहे थे- जगदंबा माई की जय.

आपकी जिंदगी में कभी ऐसा मोड़ आया जब खुद पर आपको बहुत गर्व हुआ हो?

एक बार बिहार से किसी सांस्कृतिक दल के मॉरिशस जाने की बात सामने आई. मैंने भी इच्छा जताई तो कहा गया कि पहले आपका ऑडिशन होगा. यह जानकर मैं हैरत में पड़ गई कि ऑडिशन टेस्ट बिहार की एक मंत्री कृष्णा शाही के सामने होगा. मैंने मना कर दिया. विदेश जाने के लिए किसी के पास जाकर ऑडिशन तो नहीं ही दे सकती थी और फिर इसकी जरूरत क्या थी, बिहार की कौन-सी ऐसी गली थी जहां लोग शारदा सिन्हा को छठ गीत के रूप में नहीं सुन रहे थे, विवाह गीत नहीं बजा रहे थे. उस वक्त किसी ने लिखा भी था, ‘कौआ चला कोयल की वॉइस टेस्ट लेने’ दो साल बाद भारत के राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा का बुलावा आया. मैं उस वक्त ‘मैंने प्यार किया’ फिल्म के गीत की रिकार्डिंग के लिए मुंबई में थी. फोन गया कि राष्ट्रपति जी आपको साथ में लेकर मॉरिशस जाना चाहते हैं. मॉरिशस की तैयारी हुई. वहां एयरपोर्ट पर उतरते ही सबसे पहले डॉ शर्मा से प्रेसवालों का यही सवाल था कि शारदा सिन्हा आई हैं कि नहीं. वहां एयरपोर्ट पर मैं एक कार में बैठी. कार में  ‘पनिया के जहाज से पलटनिया बनी अईह…’ गीत बज रहा था. सड़क किनारे और कई दुकानों पर भी यही गीत बज रहे थे. मैं सोच में पड़ गई कि मेरे गाए गीत यहां कैसे आ गए. ड्राइवर से इस बारे में जानना चाहा मगर वह न हिंदी जानता था, न इंग्लिश, सिर्फ क्रेयोल जानता था. रास्ते में मैंने गाड़ी रुकवाई. एक लड़की साइकिल से जा रही थी. वह इंग्लिश समझती थी. उससे पूछा कि यह गीत कैसे बज रहे हैं सभी जगह. तो उसने बताया, ‘यह एमबीसी है यानी मॉरिशस ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन और यह जो गीत सुन रही हैं, वह शारदा सिन्हा का है. मस्त गाती हैं. आज आ रही हैं यहां. आना हो तो आइए, आज उनका प्रोग्राम होगा, मजा आएगा.’

शारदा सिन्हा को हर जगह मान्यता मिली हुई है, बिहार के अपने कॉलेज समस्तीपुर महिला महाविद्यालय को छोड़कर जहां मैं प्राध्यापक हूं

आप जन्मीं झारखंड यानी रांची में, मूलतः हैं मैथिली और पहचान बनी भोजपुरी के कारण. खुद को ज्यादा करीब कहां पाती हैं?

गीत-संगीत के स्तर पर तो सबके करीब हूं लेकिन आत्मीय रूप से ज्यादा करीब झारखंड के हूं. मैं अपने घर में सहयोगी के रूप में झारखंड की लड़कियों को ही रखती हूं. उनके साथ रहना, उनसे बोलना-बतियाना सुकून देता है. जन्मभूमि से जुड़े रहने का एहसास भी. मैं कभी यह कोशिश भी नहीं करती कि वे नागपुरी बोलती हैं तो मुझसे हिंदी में बोलें. मैं भी उनसे नागपुरी सीख चुकी हूं, उसी भाषा में बात करती हूं. खाली समय में उनसे नागपुरी गीत सुनती हूं, सीखती हूं, फिर गाने की कोशिश करती हूं. मुझे आदिवासी जीवन सबसे ज्यादा पसंद है. कोई छल-कपट नहीं, एक निश्छलता है उनके जीवन में.

आपको बिहार कोकिला, बिहार की लता मंगेशकर, मिथिला की बेगम अख्तर, बिहार की सांस्कृतिक प्रहरी, लोक कोयल आदि-आदि कई उपनामों से संबोधित किया जाता है. कई-कई सम्मान मिले हैं. आपको इनमें सबसे ज्यादा क्या पसंद है?

हर सम्मान, उपनाम के साथ जिम्मेवारियां बढ़ती जाती हैं. आपको कोई सांस्कृतिक पहरुआ कहता है तो आपको हर पल सचेत रहना पड़ता है. इन सारे सम्मानों को मैं समाज द्वारा दी गई जिम्मेवारी के तौर पर लेती हूं. वैसे पश्चिम बंगाल के कुल्टी में साहित्यकार संजीव, जो अब हंस के संपादक हैं, ने 1986 में एक सम्मान पत्र मुझे अपने हाथों से लिखकर दिया था. वह सम्मान मुझे सबसे ज्यादा पसंद है.

इस बार निर्वाचन आयोग ने आपको बिहार चुनाव में ब्रांड एंबेसडर बनाया है. कहा गया कि शारदा जी ही ऐसी हैं जिनकी अपील पूरे बिहार में कारगर होगी. शासन या सरकारों से कभी कोई शिकायत?

निर्वाचन आयोग का यह भरोसा कि मेरी अपील बिहार में असरदार होगी, मेरे लिए सम्माननीय है. शासन या सरकारों से एक शिकायत है कि जब भी कला-संस्कृति से जुड़ी गतिविधियां हों, संस्थान बने तो उसकी जिम्मेवारी उन लोगों के हाथों में ही दी जाए, जिन्हें इनकी समझ हो. राजनीति से इसे कचरा न बनाया जाए. और एक मजेदार बात बताऊं, शारदा सिन्हा को हर जगह मान्यता मिली हुई है, बिहार के अपने कॉलेज समस्तीपुर महिला महाविद्यालय को छोड़कर जहां मैं प्राध्यापक हूं. वहां अब तक मैं कन्फर्म्ड स्टाफ नहीं बन सकी हूं. मुझे तो हंसी आती है, दुख भी होता है कि रिकोगनिशन कमेटी के फेरे में तीन दशक से नौकरी कर रही हूं लेकिन अब तक मान्यता नहीं मिली.

कोई ऐसी हसरत जो पूरी होनी बाकी है?

एक तो लता जी से मुलाकात की. पढ़ने के समय में कितने खत मैंने लता जी को लिखे होंगे, मुझे खुद याद नहीं आता. रोज ही लिखकर भेजती थी. पता नहीं उनको वे खत मिले भी या नहीं. इसके अलावा चाहती हूं कि एक संगीत संस्थान की स्थापना हो जहां आज के बच्चों को सही दिशा में प्रशिक्षण दे सकूं. वहां से निकलने वाले बच्चे अपनी माटी से जुड़े रहें. वे बहकाव में आकर संगीत की मूल आत्मा को बर्बाद न करें बल्कि शास्त्रीयता और लोकपरंपरा का असली मतलब समझें और भविष्य में इसे बचाने, बनाने, बढ़ाने का काम करें. यह एक ख्वाब है, जिसे इसी जन्म में पूरा करना चाहती हूं.