दैव भरोसे देवभूमि

जीवन देने वाला जल जिंदगी के लिए आफत कैसे बन जाता है यह बुद्धिराम म्योली से पूछिए. उत्तराखंड के टिहरी जिले में बसे जलवाल गांव के बुद्धिराम अपने आठ जनों के परिवार के साथ दो महीने पहले तक अपने आठ कमरों के मकान में आराम से रहते थे. लेकिन पिछले महीने एक दिन अचानक उनका मकान हर कोने से धंस गया. हाल यह था कि उसमें रहना तो दूर, उसके भीतर कुछ देर खड़े रहने में भी उन्हें डर लगने लगा था. तब से मजबूरी में म्योली परिवार अपने मवेशियों सहित इस मकान को छोड़कर रिश्तेदारों के घर शरण लिए हुए है. बुद्धिराम कहते हैं, ‘यह सब झील का जलस्तर बढ़ने की वजह से हो रहा है.’

जिस झील की वे बात कर रहे हैं वह विराट टिहरी बांध का विशाल जलाशय है. यह वही झील है जो भागीरथी और भिलंगना नदी के संगम पर बनी और जिसमें पुराना टिहरी शहर सहित दसियों गांव डूबे. लेकिन यह पांच साल पहले की बात है. इन पांच सालों के दरम्यान और खासकर इस साल की बरसात में जो हुआ वह बताता है कि पानी बांधने का काम जब बुद्धि को बांधकर और स्वार्थ को साधकर किया जाता है तो उसकी कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है. इस साल झील का जलस्तर बढ़ने से हुई तबाही ने विस्थापन और पुनर्वास को पुनर्परिभाषित करने की जरूरत तो पैदा की ही है, पिछले कुछ सालों से ठंडे पड़ गए बांध से जुड़े कई मुद्दों को भी फिर से जिंदा कर दिया है.

तबाही यह भी बताती है कि डूब क्षेत्र की फिर से व्याख्या करके दर्जनों गांवों को विस्थापित करने की जरूरत है

सुप्रीम कोर्ट ने टिहरी बांध के जलस्तर को आरएल 820 मीटर से ऊपर बढ़ाने पर रोक लगा रखी थी. लेकिन महीना भर पहले जब बरसात तमाम रिकॉर्डों को ध्वस्त करने में लगी थी तो उसी दौरान टिहरी हाइड्रो डेवलपमेंट कॉरपोरेशन (टीएचडीसी) भारी बरसात में सुप्रीम कोर्ट से यह रोक हटवाने में सफल हो गया. उस समय तक झील के स्तर के अधिकतम आरएल 830 मीटर तक पहुंचने पर उसकी जद में आने वाले सैकड़ों परिवारों का पुनर्वास नहीं हो पाया था. पानी के आरएल 820 मीटर से आगे बढ़ने के साथ ही गांवों में अफरा-तफरी मचने लगी. शोर हुआ तो राज्य सरकार जागी. आरोप-प्रत्यारोप लगने लगे. 17 सितंबर को न्यायालय ने राज्य सरकार और टीएचडीसी को यह कहकर फटकार लगाई कि पुनर्वास और राहत पर ध्यान देने की बजाय वे एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे हैं.

पानी चढ़ने के साथ बांध से करीब 50 किलोमीटर दूर बसे चिन्याली सौड़ कस्बे का पुल डूबने लगा था. इसके साथ ही कस्बे के जोगत रोड स्थित बाजार में भूस्खलन शुरू हो गया. झील का जल स्तर 830 मीटर तक पहुंचने तक कस्बे का पर्यटक आवास गृह, झूला पुल और कई दुकानें व घर डूब गए थे. उत्तरकाशी जिले में स्थित इस कस्बे में आशा देवी एक होटल चलाती थीं. यह होटल उनके पति की जीवन भर की कमाई से बने तीन मंजिला मकान में था. 2008 में झील का पानी चढ़ने के बाद उनके मकान सहित जोगत बाजार का एक बड़ा हिस्सा झील में समा गया. उसके बाद से आशा देवी सड़क के ऊपर किराए की दुकान में होटल चला रही थीं. 19 सितंबर को झील का पानी 830 मीटर के स्तर तक भरने के बाद उनके होटल तक भी पानी पहुंच गया और आसपास के सारे मकान व दुकानें भर-भराकर झील में गिरने लगीं. अब आशा देवी ने फिर से अपने होटल का सामान एक किराए की दुकान में भर दिया है. वे गुस्से में कहती हैं, ‘दुकान का मुआवजा तो मिला मगर तीन मंजिले मकान के लिए कुछ भी नहीं मिला. हम कहां और कैसे अपने लिए एक नई छत बनाएं?’

टिहरी जिले के थौलधार विकास खंड के सरोट गांव में भी झील का स्तर बढ़ने से भारी नुकसान हुआ. गांव के अनुसूचित जाति के नौ परिवारों को आपदा के डर से उनके मकानों से हटा दिया गया था. झील के जल स्तर को छूते इन लोगों के मकानों में दरारें आ गईं. प्रभावित परिवार के रोशन लाल बताते हैं कि उनके घर आर 835 मीटर की सीमा में आ रहे हैं लेकिन उन्हें मकानों का मुआवजा अभी तक नहीं मिला है, जबकि पुनर्वास निदेशालय 835 मीटर की सीमा के अंदर पड़ने वाले सभी घरों को मुआवजा देने का शपथ पत्र न्यायालय में दे चुका है. वे एक अजीब-सी बात बताते हैं कि पुनर्वास विभाग द्वारा मकानों को तो 835 मीटर की श्रेणी में रखा जा रहा है लेकिन मकान के भूतल को ही इस सीमा के भीतर मानकर उसी तल का मुआवजा देने की बात कही जा रही है. यानी मकान की निचली मंजिल का तो मुआवजा मिलेगा पर ऊपरी मंजिल का नहीं. बेघर हुए इन 9 परिवारों को राहत के नाम पर एक तिरपाल व एक-एक कंबल मिला. रोशनलाल पूछते हैं, ‘एक तिरपाल में 9 परिवारों के लोग कैसे रह सकते हैं?’

जिन कस्बों पर ये गांव अपनी जरूरतों के लिए निर्भर थे वे झील बनने के बाद इन गांवों से दस-दस गुना दूर हो गए

चिन्याली सौड़ से 1.5 किमी पीछे चंबा-धरासू मार्ग पर बसे गोजमीर गांव को ज्योलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (जीएसआई) ने भूधंसाव वाला क्षेत्र घोषित किया है. पुनर्वास विभाग ने गोजमीर के 37 परिवारों को 5 साल पहले जमीन की कीमत तो दे थी लेकिन अभी तक मकानों का मुआवजा नहीं दिया. इसलिए ये लोग खतरे के बावजूद गांव में ही रह रहे हैं. यही हाल झील के पार चिन्याली सौड़ विकास खंड के बल्डांगी गांव के 9 परिवारों का भी है. 835 मीटर की सीमा से ऊपर बसे भल्डियाना गांव में भी भूधंसाव शुरू हो गया है. यही हालात तल्ला उप्पू के भी हैं. ये दोनों गांव नए-नए ही बसे थे. यानी ये दोबारा उखड़ने की त्रासदी झेलेंगे.

प्रतापनगर क्षेत्र के रौलाकोट, नकोट तथा स्यांसू गांवों की स्थिति तो और भी नाजुक है. जीएसआई की रिपोर्ट के आधार पर साल 2000 में ही सुप्रीम कोर्ट ने इन गांवों के सभी परिवारों का पुनर्वास करने के आदेश दे दिए थे. रौलाकोट में 150 परिवार हैं. करीब 1,000 साल पुराने इस गांव के प्रधान उम्मेदू लाल कहते हैं, ‘अब तक यह गांव सुरक्षित रहा परंतु झील का पानी बढ़ने के साथ गांव में भूधंसाव से शुरू हुई बर्बादी रुकने का नाम नहीं ले रही है.’ कोर्ट के आदेश के बाद भी अभी तक इस गांव के एक भी घर का विस्थापन नहीं हो पाया है. पुनर्वास निदेशालय इस गांव को डूब क्षेत्र का गांव न मानकर आपदाग्रस्त मानता है जबकि गांववालों का तर्क है कि हमेशा से सुरक्षित रहा उनका गांव झील के पानी से ही उजड़ रहा है, इसलिए इसे डूब क्षेत्र की तरह ही पुनर्वास की सुविधा मिलनी चाहिए.

टिहरी के प्रतापनगर विकास खंड में जलवाल गांव सहित कई गांवों में भी काफी तबाही हुई है. जाखणीधार के पूर्व प्रमुख प्रेम दत्त रतूड़ी बताते हैं, ‘जीएसआई ने वर्ष 1990 में झील के ठीक ऊपर बसे जलवाल गांव, कंगसाली और खोला गांवों को भूगर्भीय दृष्टि से अस्थिर बताया था.’ रिपोर्ट के अनुसार जरा-सा भी संतुलन बिगड़ने पर ये गांव ध्वस्त हो सकते हैं. रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि पुनर्वास व विस्थापन के अलावा इन गांवों की समस्या का कोई हल नहीं.

भिलंगना घाटी में भी हालात अच्छे नहीं हैं. तिपोली, मुंडा व चोपड़ा गांवों में भी भारी नुकसान हुआ है. घनसाली के विधायक बलवीर सिंह नेगी बताते हैं, ‘पिलखी, नेल, वैंसाधर, पटागली और असेना गांवों में खड़ी धान की फसलों को झील का पानी निगल चुका है. ये सारे क्षेत्र 830 मीटर के निशान से ऊपर हैं. इस क्षेत्र में खाद्यान्न का संकट है. पिलखी के लोग धरने पर बैठे हैं. वे राष्ट्रीय पुनर्वास नीति, 2008 के अनुसार पुनर्वास की मांग कर रहे हैं जबकि टीएचडीसी और पुनर्वास निदेशालय उन्हें आपदाग्रस्त मानकर सुविधाएं देने की बात कर रहा है.

सही रखरखाव के अभाव में रोप-वे की यह हालत है कि इसमें यात्रा कर रहा व्यक्ति डर से कई बार जीता-मरता है

उधर, विस्थापन और पुनर्वास में भी कई पेंच हैं. 1977 में टिहरी के अठूर क्षेत्र से पहला परिवार दून घाटी स्थित भानियावाला क्षेत्र में विस्थापित हुआ था. तब से शुरू हुआ पुनर्वास आज 32 साल के बाद भी समाप्त नहीं हुआ है. बांध निर्माण शुरू होने के 34 सालों के बाद भी अभी तक विस्थापन व पुनर्वास के लिए कोई मास्टर प्लान नहीं बना है. टिहरी बांध परियोजना के कारण टिहरी शहर के अलावा 125 गांव प्रभावित हुए. शुरुआत में यह आकलन किया गया था कि इस परियोजना से टिहरी शहर के अलावा 39 गांव पूर्णतया और 86 आंशिक रूप से प्रभावित होंगे. पर यह संख्या बढ़ती गई. अब हाल ही में झील का स्तर आरएल 832 मीटर तक पहुंचने के बाद भूधंसाव से प्रभावित गांवों की हालत देखकर यह लगता है कि ‘डूब क्षेत्र’ की फिर से व्याख्या करके दर्जनों गांवों को विस्थापित करना होगा. वैसे इन गांवों के लोग वर्ष 2001 से ही अपने पुनर्वास के लिए आंदोलनरत हैं. हर स्तर पर धरना-प्रदर्शन करने व ज्ञापन देने के बाद भी कुछ हासिल न होने पर उन्होंने नैनीताल हाई कोर्ट में याचिका दायर की है. गांववालों ने शिकायत निवारण कमेटी से भी खुद को पुनर्वासित करने की मांग की थी लेकिन यह अनसुनी कर दी गई. अब झील का स्तर 830 मीटर तक बढ़ने के बाद इन गांवों और इनके आसपास के इलाके में काफी तबाही हुई है. बांध से लगे क्षेत्रों के बारे में पहले टीएचडीसी ने तत्कालीन रुड़की इंजीनियरिंग कॉलेज की एक रिपोर्ट के आधार पर कहा था कि जिन ढलानों पर ये गांव बसे हैं वे सुरक्षित हैं. उस समय जीएसआई की एक रिपोर्ट कुछ लोगों के हाथ लग गई थी जिसमें इन ढलानों को असुरक्षित माना गया था. इस रिपोर्ट को अदालत में जमा करने के बाद अदालत के आदेश पर टीएचडीसी फिर से जीएसआई से विस्तृत सर्वे कराने को राजी हुआ था. जीएसआई पानी घटने के बाद ही वास्तविक स्थिति का फिर से आकलन कर पाएगा. 

वैसे भी नए गांवों को पुनर्वासित करना तो बाद की बात है, पुनर्वास निदेशालय व एक सेवानिवृत्त जज की अध्यक्षता में बने शिकायत निवारण प्राधिकरण के पास अभी पुराने पुनर्वास के ही एक हजार से अधिक मामले लंबित हैं. लोगों को टीएचडीसी से सुविधाएं लेकर काम करने वाले शिकायत निवारण प्राधिकरण की कार्यशैली पर भी आपत्ति है. प्रभावित लोगों की समस्याओं के लिए वर्षों से संघर्ष कर रहे ‘माटू संगठन’ के पूरण राणा सुनवाई के लिए स्वतंत्र प्राधिकरण की मांग करते हैं.

पुराने विस्थापितों की हालत भी कोई अच्छी नहीं है. पहाड़ से उखड़कर मैदान में बसे विस्थापितों में कई ऐसे हैं जो वहां ठीक से जड़ें नहीं जमा सके और अपनेपन की तलाश में वापस पहाड़ों की ओर भाग रहे हैं. छाम (टिहरी) के पूलन सिंह नेगी अपने गांव में 300 नाली (15 एकड़) सिंचित जमीन पर खेती करने वाले अच्छे और समृद्ध कास्तकार(किसान) थे. गांव के डूब क्षेत्र में आने के बाद उन्हें हरिद्वार जिले के पथरी क्षेत्र में केवल 2 एकड़ जमीन मिली. 62 वर्षीय नेगी ने पथरी की जमीन किराए पर देकर डूब क्षेत्र के ऊपर पास के गांववालों से थोड़ी सी जमीन लेकर मकान बनाया है. वे कहते हैं, ‘पहाड़ में खेती करने वाले लोग हरिद्वार को अपना नहीं पा रहे हैं. इसलिए वापस आकर फिर अपने ही गांवों के पास अपने लोगों के बीच आकर रह रहे हैं.’ लोगों का कहना है कि शरणार्थी की तरह ही रहना है तो अपने गांव के पास ही रहना बेहतर है जहां कम से कम उनका सुख-दुख देखने वाले लोग तो हैं.

पूरन राणा बताते हैं कि विस्थापितों में 5 फीसदी लोग पहाड़ में बड़ी भूमिधरी वाले अच्छे किसान थे. विस्थापन के बाद ये कहीं के नहीं रहे. कहने को सरकार ने जमीन का मुआवजा दिया लेकिन सिंचित भूमि का मुआवजा केवल 12,000 रुपए प्रति नाली (66 गुना 33 फीट चौड़ा भूखंड) के हिसाब से मिला था जबकि डूब क्षेत्र के पास गांव के बाजार में भी अब 4 लाख रुपए नाली में भूमि नहीं मिल रही है. इसके अलावा मैदान में विस्थापित हुए लोगों के पास भूमिधरी अधिकार भी नहीं हैं. दोषपूर्ण पुनर्वास नीति की वजह से बुजुर्ग अभिभावकों वाले बड़े संयुक्त परिवार नुकसान में रहे जिन्हें मिली जमीन उनकी जरूरतों के लिए नाकाफी पड़ रही है.

पुनर्वास का जिम्मा कभी राज्य सरकार तो कभी टीएचडीसी के पास रहा. 1993 में हैदराबाद प्रशासनिक कॉलेज ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि पुनर्वास के काम को राजस्व विभाग को देना चाहिए, पुनर्वास निदेशक का पद अलग होना चाहिए और वह आईएएस अधिकारी होना चाहिए. पुनर्वास एवं पर्यावरणीय मुद्दों के लिए 1996 में हनुमंत राव कमेटी का गठन हुआ. कमेटी ने 1987 में अपनी रिपोर्ट दे दी थी पर इसे आधा-अधूरा ही लागू किया गया. भारत सरकार ने इस प्रोजेक्ट के लिए एक उच्चस्तरीय निगरानी समिति और अंतर्मंत्रालयीय समिति बनाई थी, साथ ही राज्य सरकार ने एक समन्वय समिति का गठन किया था. निगरानी समिति को साल में 4 बार परियोजना से जुड़े मुद्दों की जांच करके अंतर्मंत्रालयीय समिति को अपनी रिपोर्ट देनी थी. परंतु सालों से किसी ने इन समितियों को आते नहीं देखा. टिहरी बांध विस्थापित संगठन के अध्यक्ष गिरीश घिडिल्याल कहते हैं, ‘इन समितियों में से किसी में भी जनता के लोग या उनके द्वारा किसी भी स्तर पर चुने गए जनप्रतिनिधि नहीं थे. इसलिए इन समितियों के विषय में कोई कुछ नहीं जानता. न ही इनमें कभी जनता का पक्ष रखा गया.’ टिहरी बांध से जुड़े पुनर्वास की समस्याओं के लिए वर्षों से संघर्ष कर रहे संगठन त्रिहरी के अध्यक्ष कमल सिंह मेहरा का मानना है कि आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और पर्यावरणीय समस्याओं वाले इन पेचीदे मामलों के हल के लिए कई विशेषज्ञों वाले उच्च अधिकार प्राप्त आयोग का गठन करना होगा, तभी समस्याओं के हल की आशा होगी.’

बढ़ी दूरियां

अक्टूबर, 2005 में टिहरी झील में पानी भरना शुरू हुआ तो झील के चारों ओर के दर्जनों गांव दुनिया से दूर होते चले गए. जिन कस्बों पर ये गांव रोजमर्रा की आवश्यकताओं और सुविधाओं के लिए निर्भर थे वे इनसे दस-दस गुना ज्यादा दूर हो गए. सबसे अधिक प्रभावित टिहरी जिले के प्रतापनगर, जाखणीधार, घनसाली और भिलंगना विकास खंडों की जनता हुई. उत्तरकाशी जिले के चिन्यालीसौड़, उसकी डूमरी-गमरी, बिचली-गमरी पट्टियों तथा गांजणा पट्टी (डुंडा तहसील) के 70 गांवों के लोगों की भी पास के कस्बों से दूरी काफी बढ़ गई है. पहले इस क्षेत्र की जनता आवागमन के लिए भागीरथी, भिलंगना नदी और दूसरी छोटी नदियों (गाड-गदेरे) पर चिन्याली सौड़ (उत्तरकाशी) से लेकर घुंटी (घनसाली) तक बने 13 पुलों का प्रयोग करती थी. ये सारे पुल अब झील में समा गए हैं. जाखणीधार विकास खंड के पूर्व प्रमुख प्रेम दत्त जुयाल बताते हैं, ‘झील बनने से पहले सादणा, मदन नेगी आदि गांव उस समय के जिला मुख्यालय टिहरी से पांच से आठ किमी दूर थे.  इन पुलों के डूबने के बाद यह इलाका नई टिहरी स्थित जिला मुख्यालय से 80 किमी दूर हो गया है.’ 

प्रतापनगर विधानसभा क्षेत्र की जनता के लिए आवागमन का एकमात्र सहारा अब पीपलडाली नामक जगह में बना पुल है, लेकिन इसके क्षतिग्रस्त होने से भारी वाहन इससे होकर नहीं जा पाते. प्रतापनगर विकास खंड के प्रमुख पूरण सिंह रमोला बताते हैं, ‘मजबूरन सामान से लदे ट्रकों को 100 किमी और घूमकर जाना होता है. इस कारण उसका भाड़ा बढ़ जाता है जिसका बोझ भी जनता पर ही पड़ता है.’ जुयाल का आरोप है कि जनसुविधाओं के लिहाज से देखा जाए तो इस क्षेत्र के लोगों के लिए जिंदगी कई दशक पीछे चली गई है.

प्रताप नगर क्षेत्र के लोगों के आवागमन के लिए भल्डियाना और टिपरी नामक जगहों पर दो रोप-वे भी लगाए गए हैं. लेकिन पूरण सिंह रमोला का आरोप है कि ये रोप-वे पुनर्वास के पैसों की बर्बादी और पहले से ही पीड़ा झेल रहे लोगों की जान के साथ खिलवाड़ का नमूना हैं. भल्डियाना के रोप-वे का काम सालों से आधे में अटका हुआ है. यह रोप-वे 1.5 करोड़ रुपए की लागत से बन रहा है. उधर, टिपरी और मदन नेगी के बीच 984 मीटर लंबा दूसरा रोप-वे 250 लाख रुपए की लागत से बना है. प्रताप नगर ब्लॉक के कुछ गांवों के लोगों को आवागमन की सुविधा देने के लिए एक साथ 12 व्यक्तियों या 920 किलो भार को ले जाने वाली क्षमता वाले इस रोप-वे का निर्माण भी झील में पानी भर जाने के 4 साल बाद जाकर हुआ था. वह भी तब जब इसके लिए खूब आंदोलन और धरने-प्रदर्शन हुए. लेकिन स्थानीय निवासी बताते हैं कि कुछ महीने चलने के बाद ही यह बंद हो गया. इसका निर्माण करने वाली कंपनी ऊषा-ब्रेको के प्रोजेक्ट मैनेजर बताते हैं, ‘पिछले दो साल से यह बंद था पर हाल ही में भारी वर्षा से सभी सड़क मार्ग बंद होने के बाद तत्कालीन जिला-अधिकारी के आदेशों के बाद इसे चलाया जा रहा है.’ रोप-वे के मैनेजर, सरकारी निर्माण एजेंसी पर रोप-वे के निर्माण में लगी पूरी धनराशि न देने का आरोप लगाते हुए रोप-वे के स्टेशनों पर पानी तक की सुविधा न होने का रोना रोते हैं. यह बात अलग है कि वे आने-जाने वाले आम लोगों से आपदा के समय भी पांच रुपए प्रति व्यक्ति किराया लेने की बजाय ‘पर्यटक टिकट’ के 100 रुपए वसूल कर रहे हैं.

वैसे इस रोप-वे का सफर करना मौत का जोखिम उठाने से कम नहीं. पहली नजर में ही में यह पूरी परियोजना रोप-वे का ‘जुगाड़ प्रारूप’ दिखती है. दो साल से इसकी रोपों और गरारियों पर ग्रीज नहीं हुआ है. इसलिए इसके चलते समय लगने वाले हिचकोलों और होने वाली घरघराहट की आवाज से झील के ऊपर इस रोप-वे की सवारी कर रहा यात्री डर से कई बार जीता और मरता है. रोप-वे के क्षेत्र में विशेषज्ञ एक इंजीनियर नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं, ‘इस रोप-वे के निर्माण में स्तरीय सामग्री का प्रयोग नहीं हुआ है, साथ ही सुरक्षा उपायों की भी अनदेखी की गई है.’ स्वाभाविक है कि कभी भी दुर्घटना होने की आशंका के कारण इसका निर्माण करने वाली कंपनी खुद ही इसका संचालन नहीं करना चाहती. 

झील बनने से उत्तरकाशी शहर भी टिहरी जिले के निवासियों के लिए 50 किमी और दूर हो गया है. चार धाम यात्रा करने वाले यात्रियों को तो अब 250 किमी की अतिरिक्त दूरी तय करके अपनी यात्रा पूरी करनी पड़ रही है. उत्तरकाशी के सामाजिक कार्यकर्ता लोकेंद्र बिष्ट कहते हैं कि कई वैकल्पिक मार्ग बनाकर इन बढ़ी हुई दूरियों को कम किया जा सकता है लेकिन सरकार इस दिशा में गंभीर ही नहीं है.
टिहरी झील का भागीरथी नदी की ओर अंतिम बिंदु धरासू और चिन्याली सौड़ कस्बे हैं. हाल ही में झील का जलस्तर 830 मीटर (समुद्र तल से) तक बढ़ाने पर चिन्याली सौड़ को उसके सामने के नए बसे कस्बे देवीसौड़-सुनार गांव से जोड़ने वाला झूला पुल भी जलमग्न हो गया और इससे डुमरी-गमरी और बिचली-गमरी के लगभग 50 गांव उत्तरकाशी से दूर हो गए. इन गांवों के छात्रों के लिए कॉलेज तथा स्कूल चिन्याली सौड़ ही में थे. हालांकि प्रशासन ने झील के आर-पार जाने के लिए नावों का इंतजाम किया है, परंतु इनकी क्षमता रोज आने-जाने वालों की संख्या को देखते हुए पर्याप्त नहीं है. इसी तरह झील की दूसरी ओर भिलंगना नदी के आखिरी कोने पर झील ने घुंटी (घनसाली) का पुल भी डुबो दिया है. इससे जुड़े गांव और उनके स्कूल पहले से 25 किमी दूर हो गए हैं. घनसाली विधानसभा क्षेत्र के विधायक बलबीर सिंह नेगी बताते हैं, ‘झील बनने से घनसाली क्षेत्र के लोगों को 60 किमी का अतिरिक्त सड़क मार्ग तय करना पड़ रहा है, साथ ही भूधंसाव के कारण घनसाली-टिहरी सड़क मार्ग बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हुआ है.’

थौलधार ब्लॉक के पूर्व प्रमुख जोत सिंह बिष्ट का आरोप है कि टीएचडीसी, पुनर्वास निदेशालय और राज्य सरकार ने झील से प्रभावित क्षेत्रों के लोगों की सुविधा और आवागमन के लिए दूरगामी सोच के साथ काम नहीं किया. वे कहते हैं, ‘इसीलिए डूब गए 13 पुलों के बदले झील भरने के 5 साल बाद भी केवल पीपलडाली और स्यांसू में दो झूला पुल बनाए गए हैं. 24 करोड़ रुपए की लागत से बने इन पुलों का निर्माण भी इतना निम्नस्तरीय है कि अकसर किसी न किसी तकनीकी गड़बड़ के कारण इन्हें  बंद कर दिया जाता है.’ पहले भल्डियाना पुल जनता के आवागमन का सबसे बड़ा साधन था पर उसका विकल्प अब तक नहीं खोजा गया. झील के आसपास और उसके जलस्तर से 100-200 मीटर ऊपर धंसाव होने के कारण आए दिन सड़कें बंद रहती हैं.

पुनर्वास विभाग में कार्यरत अधिशासी अभियंता राकेश कुमार तिवारी कहते हैं, ‘झील के कारण संपर्क मार्गों से कट गए गांवों के लोगों के आवागमन के लिए पुनर्वास प्रशासन ने 7 नावों का इंतजाम किया है.’ चिन्याली सौड़ से लेकर घुंटी तक लगी ये नावें आम जनता का सबसे बड़ा सहारा हैं. लेकिन झील के पार बल्डोगी गांव के प्रेम सिंह रावत की मानें तो ये नावें कभी भी सड़क मार्ग का विकल्प नहीं बन सकतीं. वे कहते हैं, ‘सुरक्षा की दृष्टि से अंधेरे में और मौसम खराब होने पर ये नहीं चलाई जा सकतीं और परेशानियों के आने का कोई तय वक्त नहीं होता.’ झील का स्तर घटता-बढ़ता रहता है और इससे भी इन नावों के इस्तेमाल में दिक्कत होती है.

सरकार और टिहरी बांध निर्माण से जुड़े विभाग जन सुविधाओं और सड़क मार्गों को बढ़ाने के कितने भी बड़े दावे करें लेकिन घंटों खर्च करके कुछ सौ मीटर दूर जाने में सारा दिन गंवाने के बाद झील से प्रभावित लोगों के दर्द का अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं.

(महिपाल कुंवर और विनोद चमोली के सहयोग के साथ)