नकल है पर बदशक्ल नहीं : आक्रोश

प्रियदर्शन ने अपने लिए एक नया शब्द गढ़ा है. वे ‘डायरेक्टेड बाय’ की बजाय ‘फिल्म्ड बाय’ लिखना पसंद करते हैं. शायद इसलिए उन्होंने तय कर लिया है कि वे मौलिक नहीं रहेंगे. वे निर्देशन नहीं करेंगे, बस शूटिंग करेंगे. इसीलिए जब आप यह जानकर और देखकर खुश होते हैं कि ‘ऑनर किलिंग’ जैसे मुद्दे पर प्रियदर्शन ने एक गंभीर फिल्म बनाई है तो आपको दुखी करने वाली वजहें भी मैदान में कूद पड़ती हैं. इसीलिए आक्रोश के बारे में बात करने के दो नजरिए हो सकते हैं. पहला, आप 1988 की अमेरिकन फिल्म ‘मिसिसिपी बर्निंग’ के बारे में जानते हों और दूसरा, आप या तो न जानते हों या आंखों पर पट्टी बांध लें.

मिसिसिपी बर्निंग  दक्षिणी अमेरिका में रहस्यमय ढंग से लापता हुए तीन सामाजिक कार्यकर्ताओं को तलाशते दो एफबीआई एजेंटों की कहानी है और ‘आक्रोश’ बिहार के एक जिले में लापता हुए दलित युवक और उसके दो दोस्तों को तलाशते हुए सीबीआई अधिकारियों की कहानी. कहानी का हर मोड़, सारे तनाव और दुविधाएं, सब मुख्य किरदार और उनकी कमियां-खूबियां मिसिसिपी बर्निंग से उठाकर चिपका दी गई हैं.
लेकिन आप इस नकलधाम की ओर से आंखें मूंद लें तो आक्रोश अच्छी लगती है. परेश रावल फिल्म के केंद्र में हैं, सबसे अच्छी एेक्टिंग करते हुए और सबसे अच्छे सीन अपनी जेब में रखे हुए.

फिल्म की सिनेमेटोग्राफी और साबू सिरिल के बनाए सेट, जिनका नकली होना जानते हुए भी आप अभिभूत होते हैं, कमाल के हैं. पूरी फिल्म एक अंधेरे-से रंग में है, आसमान हर समय ऐसा, जैसे धूल उड़ रही हो और यही एक डार्क थ्रिलर का असर पैदा करने के लिए काफी है. फिल्म में कुछ चीजें मौलिक भी हैं. एक प्रेम-कहानी, एक आइटम नंबर और अजय देवगन के पीछा करने के दो लंबे सीक्वेंस. यह सब खालिस बॉलीवुड स्टाइल में मसालेदार है लेकिन रोमांच तो बढ़ाते ही है. यह और बात है कि प्रियदर्शन के संसार में दिल्ली के मेडिकल कॉलेज में पढ़ रहा दलित लड़का ‘कोर्ट’ को ‘कोरट’ बोलता है या अजय देवगन चलती कार पर देर तक खड़े रहते हैं जब इसकी कोई जरूरत नहीं है. 

वैसे फिल्म कैसी भी होती, यही तथ्य भला लगता है कि फिल्म किसी सामाजिक मुद्दे के प्रति इतनी सचेत है. फिर यह आप पर निर्भर करती है कि आपको किसी अंग्रेजी फिल्म के क्रॉस को त्रिशूल से और काले-गोरे के भेदभाव को जातीय भेदभाव से बदल देने की मौलिकता से कोई शिकायत है या नहीं. आप इसे इसके बॉलीवुडीय अंत के लिए भी देख सकते हैं जो बहुत जरूरी था, आकर्षक बिपाशा बसु के लिए भी और तीनों लड़कों को पकड़ने के बाद की निर्दयी ब्लैक कॉमेडी के लिए, जो हिंदी फिल्मों में कम ही देखने को मिलती है. ‘आक्रोश’ परेशान करती है, जो यह करना भी चाहती थी.

गौरव सोलंकी