दिग्गजों के दाएं-बाएं

श्याम हुए बेगाने, अब राम का रंग है छाया

रामकृपाल यादव

लालू प्रसाद यादव की राजनीति की एक खासियत है. सब जानते हैं कि उनकी पार्टी में आदि और अंत वे ही हैं फिर भी वे चेहरों का एक ऐसा मायावी चक्रव्यूह रचते हैं जिसमें योद्धाओं के चेहरे समय-समय पर बदलते रहते हैं. इस बार के विधानसभा चुनाव में बादशाह के विजिबल योद्धा हैं- रामकृपाल यादव. अनुशासित सिपाही की तरह जयप्रकाश नारायण यादव भी कभी-कभार लालू के बाएं-दाएं दिख जाते हैं, लेकिन चुनाव की घोषणा के बाद से ही रामकृपाल की हर फ्रंट पर मौजूदगी अनिवार्य-सी हो गई है. टीवी पर, अखबारों में, पार्टी कार्यालय में इलेक्शन के पहले चले सेलेक्शन गेम में बायोडाटा थामते वक्त. राजद की राजनीति में हालांकि वे कभी शिवानंद तिवारी की तरह लालू प्रसाद के चाणक्य नहीं बन सकें और न श्याम रजक की तरह उनका साया. लेकिन आज वे लालू के लिए सबसे महत्वपूर्ण हैं यह पार्टी में सबको पता है. कुछ समय पहले तक जब श्याम रजक लालू प्रसाद के दाएं हुआ करते थे तब रामकृपाल उनके बाएं खडे़ दिखते थे. तब राम-श्याम की जोड़ी जमती थी. अब श्याम दुश्मन खेमे में चले गए तो अब अकेले राम ही हैं.

रामकृपाल का मूल राजनीतिक आधार पटना ही रहा. एक जमाने में वे यहां के डिप्टी मेयर हुआ करते थे, 1996 और 2004 में लोकसभा सांसद  भी रहे. अब राज्यसभा के रास्ते संसदीय राजनीति में हैं. पटना ही राजनीतिक आधार रहा, बावजूद इसके वे पिछले लोकसभा चुनाव में अपने राजनीतिक आका लालू प्रसाद यादव को पाटलिपुत्र सीट से लोकसभा में विजयश्री नहीं दिलवा सके थे. यह अलग बात है िक इस बार विधानसभा चुनाव में रामकृपाल यादव की बातों को सुनने, उनके हावभाव देखने और बार-बार लालू प्रसाद के पास दिखते रहने से ऐसा लगता है कि राज्य में राजद की नैया पार लगाने का दारोमदार इन्हीं के कंधे पर है. कभी लालू प्रसाद के अनुशासित बगलगीर सैनिक रहे श्याम रजक कहते हैं, ‘राजद में रामकृपाल हों या कोई और, सब दिखावे के लिए होते हैं. सीजनल चेहरे की तरह, आते हैं, चले जाते हैं.’

ऐसा नहीं है कि रामकृपाल ही सबसे ताकतवर योद्धा हैं, इसलिए बाएं-दाएं दिखते हैं. अब्दुल बारी सिद्दिकी, जगतानंद सिंह, रघुवंश प्रसाद सिंह, जयप्रकाश नारायण यादव भी लालू यादव के निकटवर्ती माने जाते हैं, लेकिन लालू इन्हें क्षेत्रवार क्षत्रप की तरह रखते हैं. अब्दुल बारी को मिथिलांचल में प्रभाव जमाने की जिम्मेदारी है, जयप्रकाश अंग प्रदेश में रंग जमाने की जिम्मेदारी के साथ हैं, जगतानंद सिंह भोजपुर पट्टी में तो रघुवंश प्रसाद वैशाली के गढ़ में. लेकिन इनमें जयप्रकाश को छोड़ अन्य नेपथ्य से दस्तक देते हैं, जगतानंद सिंह के बेटे दुश्मन खेमे में जा चुके हैं, रघुवंश प्रसाद कांग्रेस से नाता तोड़ने के बहाने लालू की राजनीतिक आलोचना कर चुके हैं, सिद्दिकी मुसलिम होते हुए भी शहाबुद्दीन या तसलीमुद्दीन की तरह, जो कभी लालू के खास सिपहसालार थे, आक्रामक राजनीति नहीं करते. लालू के एक करीबी बताते हैं कि इस चुनाव में लालू प्रसाद के दाएं-बाएं उनकी ही जाति का बार-बार दिखने वाला फैक्टर कुछ-कुछ विडंबना की तरह भी है. कभी लालू प्रसाद के साथ सटकर राजनीति करने वाले शमशेर आलम कहते हैं, ‘लालू प्रसाद की राजनीति में दाएं-बाएं मत देखिए, वे अपनी पार्टी के अकेले नेता हैं. रामकृपाल हों या कोई और, सब उनकी मेहरबानी…’

नीतीश के छुपे हुए रुस्तम

रामचंद्र प्रसाद सिंह

राजनीति में कुछ लोग धमक के साथ बुलंदियां चढ़ते हैं तो कुछ खामोशी के साथ. रामचंद्र प्रसाद सिंह बिहार की राजनीति में एक ऐसा नाम हैं जिन्होंने खामोशी के साथ सियासी बिसात पर अपने मोहरे बिछाए, सटीक चालें चलीं और आज आलम यह है कि वे सत्ताधारी जनता दल (यू) के लिए अपरिहार्य से बन चुके हैं.

जानने वालों के बीच इन्हें आरसीपी के नाम से  जाना जाता है और गुजरे बीस साल से ये मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के दाएं-बाएं, साए की तरह रहते आए हैं. 1984 बैच के आईएएस कैडर के अधिकारी रहे आरसीपी चार महीने पहले तक पर्दे के पीछे से महत्वपूर्ण राजनीतिक फैसलों में अहम भूमिका निभाया करते थे – 2005 से ही वे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के मुख्य सचिव थे. हालांकि अब उन्हें खुले मंच पर बुला लिया गया है और इसके लिए इसी साल जून में उन्होंने आईएएस की नौकरी छोड़ दी. नौकरी छोड़ते ही वे राज्यसभा के सदस्य बना दिए गए. यानी सब कुछ पूरी तरह से पहले से ही तय था. इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि नीतीश कुमार के लिए आरसीपी कितना महत्व रखते हैं. आलम यह है कि रामचंद्र प्रसाद नीतीश मंत्रिमंडल में मौजूद कई सशक्त मंत्रियों से भी अधिक शक्तिशाली माने जाते हैं.

नीतीश के बारे में अमूमन यह कहा जाता है कि वे किसी एक नेता को विशेष महत्व नहीं देते. लेकिन सच्चाई यह है कि अलग-अलग दौर में कई लोग उनके खास रहे हैं. कभी राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह उनके काफी करीब माने जाते थे. उन्हें लंगोटिया यार तक की संज्ञा दी जाती थी. लेकिन ललन ने चुनाव के ऐन मौके पर नीतीश को अंगूठा दिखा दिया. उन दिनों न सिर्फ वे पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष हुआ करते थे बल्कि कई महत्वपूर्ण मामलोंे में प्रभावी भूमिका भी निभाते थे. ललन ने कई बार यह दावा भी किया था कि उनसे बेहतर नीतीश को कोई नहीं जानता. हालांकि पार्टी कार्यकर्ताओं की मानें तो ललन सिंह के रहते हुए आरसीपी भले ही बाहर न आते हों लेकिन मुख्यमंत्री सचिवालय से ही नीतीश की कई रणनीतियों का सफल संचालन वे ही किया करते थे.

नीतीश जब पहली बार वीपी सिंह सरकार में उपमंत्री बने थे तो आरसीपी को उन्होंने अपने साथ केंद्र में रखा था. जब वे रेलमंत्री बने तब आरसीपी उनके विशेष सचिव रहे और इसी दरमियान उन्होंने नीतीश का विश्वास जीता.

पार्टी और नीतीश के लिए आरसीपी कितने महत्वपूर्ण हैं इसका अंदाजा बिहार जद(यू) के अध्यक्ष विजय कुमार चौधरी के उस बयान से लगाया जा सकता है जो पिछले दिनों रामचंद्र के राज्यसभा प्रत्याशी घोषित किए जाने पर उन्होंने दिया था. चौधरी ने उस समय कहा था, ‘आरसीपी पार्टी की महत्वपूर्ण धरोहर साबित हुए हैं, अब वे एक अधिकारी नहीं रहे बल्कि हमारे नेता हो गए हैं. इसलिए उनके पास अब खुलकर पार्टी के लिए काम करने के विकल्प खुल गए हैं.’

जद(यू) की महिला सेल की एक प्रमुख नेता आभा सिंह कहती हैं, ‘वैसे तो पिछले पांच वर्षों से आरसीपी नीतीश जी के विश्वास पात्रों में सबसे महत्वपूर्ण रहे हैं लेकिन जब से वे आईएएस की नौकरी से त्यागपत्र देकर राज्यसभा के सदस्य बने हैं, पार्टी के महत्वपूर्ण फैसलों में अहम भूमिका निभाने लगे हैं.’ आभा आगे कहती हैं, ‘हमारी पार्टी में नंबर एक या दो जैसी कोई बात नहीं है, हां यह जरूर है कि पार्टी आपकी योग्यता का ध्यान रखती है और हमारी पार्टी आरसीपी जी की योग्यता का फायदा उठा रही है.’

कभी लालू के खेमे में चाणक्य की भूमिका निभा चुके शिवानंद तिवारी भले ही आज अकसर नीतीश के साथ हर जगह खड़े दिखते हों लेकिन सुशासन सरकार को चाणक्य से ज्यादा आज आरसीपी की जरूरत है. भरोसे की वजहें भी हैं. एक तो बीस साल का साथ है, दूसरा- वे मुख्यमंत्री के स्वजातीय हैं और तीसरा- दोनों ही नालंदा जिले के हैं.

पासवान के साहस, छोटके भाई पारस

पशुपति कुमार पारस

लोक जनशक्ति पार्टी के कार्यकर्ताओं के बीच ये छोटे साहब के नाम से जाने जाते हैं. बड़े साहब यानी रामविलास पासवान और छोटे साहब हैं छोटके भाई- पशुपति कुमार पारस. छोटे साहब को खुश रखने का मतलब हुआ बडे़ साहब को खुश करना, ऐसा पार्टी के ज्यादातर कार्यकर्ता मानते हैं. वैसे पशुपति को जीहुजूरी करवाने का बड़ा शौक है भी. उन्हीं की पार्टी के एक कार्यकर्ता राकेश कुमार बताते हैं, ‘जब छोटे साहब कार्यालय में होते हैं तो आम कार्यकर्ता उनके सामने कुर्सी पर बैठने की जुर्रत नहीं कर सकता.’

पारस घोषित रूप से पासवान के नंबर दो हैं, तभी तो राजद से चुनावी गठबंधन होने के तुरंत बाद उन्होंने (पासवान) खुद ही यह घोषणा की कि उनके गठबंधन की ओर से मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार लालू यादव होंगे और गठबंधन की जीत की स्थिति में उपमुख्यमंत्री पद के हकदार पशुपति कुमार पारस होंगे. पासवान की बदौलत ही पारस पिछले पचीस साल से अलौली के विधायक बनते आए हैं. साथ ही वे लोजपा की प्रदेश इकाई के अध्यक्ष भी हैं.

रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान, जो फिलहाल मुंबई में एक फिल्म की शूटिंग में व्यस्त हैं,  पार्टी में नंबर 1 या 2 के प्रचलन को गलत ठहराते हुए कहते हैं, ‘हमारी पार्टी में फैसले बंद कमरे में नहीं लिए जाते. सभी लोग महत्वपूर्ण हैं और यह कहना कि पासवान जी के बाद पारस जी ही सब कुछ हैं, सही नहीं है, क्योंकि हमारी पार्टी में रमा सिंह व सूरजभान सिंह का भी काफी महत्व है. किसी को नंबर एक या दो के तौर पर आंकने का काम हम नहीं कर सकते.’

बहरहाल, चिराग चाहे जो भी कहें पर हर चुनावी रैली, प्रेसवार्ता और पार्टी ऑफिस की मीटिंगों में पशुपति पारस साए की तरह अपने बड़े भाई के साथ दिखते हैं. उनके करीबियों का भी मानना है कि छोटे साहब प्रबंधन में निपुण हैं, और हर मुश्किल घड़ी में बड़े भाई के संपर्क में रहते हैं, उनसे मिलने वाले दिशानिर्देश को पूरी तन्मयता से लागू करने की कोशिश करते हैं. पासवान जब कभी बिहार से बाहर होते हैं तो राज्य की राजनीति पर कब क्या प्रतिक्रिया देनी है, किस मुद्दे पर कौन-सी रणनीति अख्तियार करनी है, सब पारस के जिम्मे होता है.

इसी निष्ठा और समर्पण की वजह से तो रामविलास भी खुलकर भाई के पक्ष में बोलते हैं. पिछले दिनों पासवान ने परिवारवाद को बढ़ावा देने के आरोपों का खंडन करते हुए कहा था, ‘मेरे भाई पारस और रामचंद्र पासवान अपनी योग्यता के बल पर नेता बनने वालों में से हैं. ये दोनों जनता द्वारा चुनकर विधानसभा या लोकसभा में पहुंचते हैं, इन्हें मैं नहीं चुनता.’

चुनावी मंचों पर भाषण के दौरान छोटे साहब भले ही असहज हों लेकिन पासवान की सारी चुनावी चालों को सटीक बनाने में उनका किरदार अहम है. देखना दिलचस्प होगा कि पिछली बार चुनाव में चोट खाए लोजपा को वापस ढर्रे पर लाने में पारस ‘बड़े साहब’ की कितनी मदद कर पाते हैं.