झारखंड के रातूचट्टी गांव की ज्योति महतो आज कॉमनवेल्थ खेलों की स्वर्ण पदक विजेता है. उसने यह पदक तीरंदाजी में हासिल किया है. कम लोगों को मालूम होगा कि उसका तीर कितनी दूर से चला है, कितने झंझावातों को पार करता हुआ निशाने पर लगा है. उसके पिता शिवचरण महतो ऑटो चलाते हैं. उन्होंने बेटी की प्रतिभा देख उसे आगे बढ़ाने का फैसला किया. ज्योति शारीरिक तौर पर इतनी कमजोर थी कि उससे किसी को उम्मीद नहीं थी. लेकिन आज ज्योति ने सबको गलत साबित किया है.
कॉमनवेल्थ खेलों के दौरान दूरदराज के कस्बों, गांवों और छोटे शहरों से आईं ऐसी कई ज्योतियां दूसरों को गलत साबित कर रही हैं. शूटिंग में सोना जीतने वाली अनीसा सैयद की कहानी ज्योति से बहुत अलग नहीं है. उनका खेल देखकर रेलवे ने नौकरी दी. उन्होंने तबादला चाहा, नहीं मिला, डेढ़ साल से उन्हें वेतन भी नहीं मिला. शूटिंग चूंकि महंगा खेल है, इसलिए सीमित साधनों में इसका खर्च उठाना आसान नहीं था. पिस्टल की पिन खराब हुई तो उसकी मरम्मत कराने के लिए पैसे जुटाना मुश्किल हो गया. दूसरों की पिस्टल से प्रैक्टिस करनी पड़ी. आज उनके पास दो स्वर्ण हैं और रेलवे के अफसर अपनी भूल सुधारने की कोशिश कर रहे हैं.
कॉमनवेल्थ के आईने में देखें तो गरीब भारत इस देश की नाक ऊंची कर रहा है और अमीर भारत इसकी पगड़ी उछाल रहा है
ऐसी कहानियां और हैं. जिस हरियाणा पर यह तोहमत लगती है कि वहां जनमते ही लड़कियों को मार दिया जाता है वहां के भिवानी जिले के बलाली गांव की दो बहनों, गीता और बबीता ने कुश्ती में स्वर्ण और रजत पदक हासिल किए. गुवाहाटी की रेणु बालाचानू पदक जीतने के बाद ऑटो पर घूमती देखी गईं और सफलता और उपलब्धियों को अमीरों की बपौती और टैक्सियों का सफर मानने वाली दिल्ली ने इस पर भी हायतौबा मचाई.
सिर्फ लड़कियों के नहीं, लड़कों के उदाहरण भी सामने हैं. जो पहलवान और मुक्केबाज कॉमनवेल्थ में पदकों का ढेर लगा रहे हैं वे ज्यादातर बिलकुल सामान्य- बल्कि निम्नमध्यवर्गीय घरों के हैं और बेहद सीमित साधनों के बीच उन्होंने अपनी जगह बनाई है.
ये सारी कहानियां नए सिरे से दुहराने का मकसद सिर्फ यह याद दिलाना है कि यह गरीबों का- गांवों, कस्बों और छोटे शहरों का भारत है जो कॉमनवेल्थ खेलों के दौरान इस देश की इज्जत बचा रहा है. अगर अभिनव बिंद्रा, गगन नारंग या ऐसे ही कुछ और उदाहरणों को छोड़ दें तो पदक के मंच पर खड़े होने वाले ज्यादातर भारतीय खिलाड़ी वे हैं जो अपने पीछे एक लंबे और संघर्षपूर्ण सफर की थकान छोड़कर आए हैं.
लेकिन यह गरीब भारत कॉमनवेल्थ के कंगूरे ही नहीं बना रहा, उसकी बुनियाद भी उसी ने तैयार की है. इसकी तैयारी और साज-सज्जा में गरीब भारत की मेहनत लगी है, उसका खून-पसीना लगा है. अफसरों, नेताओं और दलालों का जो अमीर भारत है वह 70,000 करोड़ रुपए में सिर्फ हिस्सा बंटाता रहा, तरह-तरह की कंपनियां और कमेटियां बनाकर सारे ठेके और करार अपने सगे-संबंधियों और दोस्तों को बांटता रहा, और गरीब कई स्तरों पर इस खेल की कीमत चुकाते रहे. जिस दिल्ली को समय रहते तैयार करने का सेहरा अब सारे लोग अपने ऊपर ले रहे हैं उसे संवारने में मजदूरों ने दिन-रात की मेहनत की. कहीं सड़क टूटी, कहीं पुल गिरा और हर जगह मरने और घायल होने वालों की सूची बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश या बंगाल से आए किन्हीं लाचार-अनजान मजदूरों के नाम बताती रही.
इस तैयारी का अगला पड़ाव कहीं ज्यादा मार्मिक और हतप्रभ करने वाला साबित हुआ, जब इन्हीं मजदूरों और इनके साथ आए इनके विस्थापित परिवारों ने पाया कि खेलों के दौरान दिल्ली को सुंदर और साफ-सुथरा दिखाने के लिए उन्हें भेड़-बकरियों की तरह बाहर फेंका जा रहा है. दिन भर की मेहनत के बाद शाम को अपने बच्चों के साथ खाना खा रही मजदूरिनें फुटपाथ से जबरन उठाकर भिखारियों के लिए बने तथाकथित आश्रमों में पहुंचा दी गईं. जिन मजदूरों के पास वापसी के पैसे नहीं थे, उनके हाथ पर दिल्ली पुलिस ने मोहर मारकर उन्हें बेटिकट यात्रा का अधिकारी बना डाला.
इन सबके बीच कॉमनवेल्थ के घपलों-घोटालों की खबर आती रही, इसके ठेकों में दिख रहे भाई-भतीजावाद के आरोप साबित होते रहे, समापन समारोह और महत्वपूर्ण मुकाबलों के टिकट की कालाबाजारी की खबरें चलती रहीं, लेकिन किसी जिम्मेदार आदमी को इस सिलसिले में गिरफ्तार किया गया हो, इसकी खबर नहीं आई.
मीडिया में हो रही बहस में इस पूरे खर्च के औचित्य पर कोई बात नहीं दिखती, इस खर्च में हो रहे घोटाले पर सवाल भर उठते हैं
खबरों की दुनिया में फिर गरीब छाए हुए थे- इस बार वे खिलाड़ी जो अपने अफसरों की धौंसपट्टी और अपने कोच की मनमर्जी झेलते हुए इस मोड़ तक पहुंचे और अपने-अपने खेलों मे कॉमनवेल्थ के नए रिकार्ड बनाते रहे. मेलबॉर्न और मैनचेस्टर के अपने रिकॉर्ड को भारत अगर दिल्ली में दुरुस्त कर सका और अपने दावे के मुताबिक सौ से ज्यादा पदक ला सका तो इसका श्रेय इसी कमजोर, मध्यवर्गीय भारत को देना होगा. कुछ अफसोस के साथ बस यह कल्पना की जा सकती है कि अगर इस भारत को कायदे से प्रशिक्षण की सुविधाएं मिलतीं, जरूरी साजो-सामान और उपकरण मिलते, और वक्त पर मैदान मिलता तो शायद उसका प्रदर्शन कहीं बेहतर होता. अगर कोई ध्यान से सुनना चाहे तो अब भी कॉमनवेल्थ खेलों की कामयाबी के शोर में दबी हुई वे शिकायतें सुन सकता है जो अपने कोच और प्रबंधकों से इन खिलाड़ियों को हैं.
यानी कॉमनवेल्थ के आईने में देखें तो गरीब भारत इस देश की नाक ऊंची कर रहा है और अमीर भारत इसकी पगड़ी उछाल रहा है. अमीर भारत ने तैयारी के नाम पर इतने प्रपंच किए कि एक बार लगने लगा कि ऐसे आयोजन रद्द हों तो देश का भला हो, और गरीब भारत ने खेल के नाम पर इतने पराक्रम दिखाए कि तैयारियों के दौरान हुई गड़बड़ी को भूल जाने की इच्छा होती है.
यह सब लिखना जरूरी भी है और यह सब लिखने का खतरा भी है- खतरा अपने-आप को दुहराने का. इस बात का कि इससे बहस फिर दो अलग-अलग बनते भारतों की जानी-पहचानी सरणियों में घूमने लगती है और एक तरह से एक नया सरलीकरण बनता दिख पड़ता है. क्योंकि ऐसे कई स्तर हैं जिनमें ये दोनों भारत एक-दूसरे में घुसपैठ करते हैं- कॉमनवेल्थ खेलों में भी और बाकी दूसरे कार्यक्रमों में या सार्वजनिक गतिविधियों में भी.
लेकिन जितना सरलीकरण और जितने दुहराव इस तरह के लेखन में है, उससे कहीं ज्यादा सरलीकरण और दुहरावों के साथ अमीर भारत इस गरीब भारत को अपने उपनिवेश की तरह इस्तेमाल करने में जुटा है. कॉमनवेल्थ खेलों के शानदार उदघाटन समारोह की तारीफ से भरे चैनलों और अखबारों के सरलीकृत बखानों की मार्फत यह अमीर भारत गरीब भारत के हिस्से का श्रेय ले लेना चाहता है, वह इस बात को भूलने-भुलाने पर मजबूर करता है कि इस सांस्कृतिक कार्यक्रम की कितनी कीमत इस देश ने चुकाई- वह इस बहस को एक बेमानी बहस में बदल डालना चाहता है कि 14 दिन के खेल के लिए 70,000 करोड़ रुपए के खर्च या एक शाम के लिए 40 करोड़ की लागत वाले हीलियम के गुब्बारे का औचित्य क्या है.
अगर इस देश के समाजवादी आंदोलन में थोड़ी-सी आग और थोड़ी-सी ऊष्मा बची होती तो कॉमनवेल्थ के आयोजकों को, इससे जुड़े मंत्रियों और संतरियों को कई असुविधाजनक सवालों के जवाब देने होते. लेकिन ऐसा कोई आंदोलन फिलहाल इस देश में नहीं है और जिन चैनलों और अखबारों ने कॉमनवेल्थ खेलों की आलोचना की कमान संभाल रखी है उनका वास्ता मूलभूत सवालों से नहीं, उन गड़बड़ियों, घपलों और घोटालों भर से है जो इनकी तैयारियों के सिलसिले में दिखती रही हैं. इस लिहाज से देखें तो फिलहाल जो मीडिया कसम खा रहा है कि कॉमनवेल्थ के दौरान हुआ घोटाला वह भूलने नहीं देगा, वह भी इसी सरलीकरण का मारा है और किसी कलमाड़ी या गिल की बलि से संतुष्ट हो जाएगा. क्योंकि उनकी बहस में इस पूरे खर्च के औचित्य पर कोई बात नहीं दिखती, इस खर्च में हो रहे घोटाले पर सवाल भर उठते हैं.
दरअसल, अमीर भारत इस तरह के घोटाले करने और इससे उबरने की कलाएं भी खूब सीख चुका है. हाल के अतीत के सारे घोटाले-घपले याद कर जाएं तो यह डराने वाला तथ्य सामने आता है कि किसी भी एक मामले में किसी भी ताकतवर आदमी को सजा नहीं हुई. ज्यादा से ज्यादा किसी एक को बलि का बकरा बनाकर पूरे घपले से छुट्टी पा ली गई. आईपीएल के घपले में कुछ ऐसा ही दिख रहा है जहां बीसीसीआई अब सारे गुनाहों के लिए ललित मोदी को जिम्मेदार ठहरा रही है और उनके खिलाफ चेन्नई में एफआईआर से लेकर इंटरपोल का ब्लू कॉर्नर नोटिस तक हैं. खतरा यही है कि कॉमनवेल्थ में यही नाटक दुहराया न जाए और भव्य कॉमनवेल्थ खेलों का परचम उठाकर वे सारी नाइंसाफियां और बेईमानियां भुला न दी जाएं जो इन खेलों की तैयारी के दौरान हुईं. यह बहुत संभव है कि बहुत सारी आंखों को खटक रहे, चुटकुलों का विषय बन चुके सुरेश कलमाड़ी को कांग्रेस और सरकार ठिकाने लगा दे और फिर से कॉमनवेल्थ के बाद ओलंपिक की दावेदारी में जुट जाए जिसके लिए शीला दीक्षित अपनी राजधानी को तैयार बता चुकी हैं. अगर ऐसा हुआ तो इस बार 70,000 नहीं, कई लाख करोड़ का खेल होगा, गरीब नए सिरे से रात-दिन काम करने को मजबूर किए जाएंगे और फिर एक दिन अपनी झोपड़पट्टियों से उठाकर बाहर फेंक दिए जाएंगे. ऐसे कॉमनवेल्थ के खिलाफ कम से कम गरीब भारत को आवाज उठानी होगी. काश कि हमारे राजनीतिक दलों में कोई एक होता जो इन खेलों के खिलाफ, इस संस्कृति के खिलाफ तनकर खड़ा होता और दिल्ली को घेरता, जो इन गरीब लोगों की आवाज बन पाता.