गर काबा हुआ तो क्या, बुतखाना हुआ तो क्या

सदियों से जेठ के महीने में लखनऊ शहर बजरंग बली को समर्पित एक भव्य त्योहार मनाता रहा है. इसका नाम है बड़ा मंगल.  लखनऊ को जानने-समझने वाला कोई भी व्यक्ति इससे इनकार नहीं कर सकता कि बड़ा मंगल इस शहर के सबसे बड़े त्योहारों में से एक है. इस त्योहार को भी बड़ा उसी सिफत ने बनाया जिसने लखनऊ के मुहर्रम को आसमान की बुलंदियों पर पहुंचाया- शहर की मिली-जुली अकीदत और आस्थाएं.

कहा जाता है नवाब सादत अली खान की मां जनाबे आलिया को एक रात ख्वाब में हनुमान जी दिखाई दिए थे. उसके बाद कुछ महंत उनके पास आए और उनसे एक हनुमान मंदिर बनवाने में सहयोग मांगा. इस पर जनाबे आलिया ने लखनऊ में हजरत अली के नाम आबाद इलाके अलीगंज में एक भव्य हनुमान मंदिर बनवाया और उस पर जेठ के मंगलवार को मेले की परंपरा डाली. इस तरह लखनऊ में बड़े मंगल की शुरुआत हुई. अलीगंज हनुमान मंदिर के शिखर पर मौजूद चांद का प्रतीक आज भी मौजूद है.

वैसे अवध के नवाब भी हनुमान जी पर श्रद्धा रखते थे और उनके यहां बंदरों की हत्या पर भी प्रतिबंध था. वाजिद अली शाह ने तो कई हनुमान स्तुतियां भी लिखीं. वे कहते थे, ‘हम इश्क के बंदे हैं, मजहब से नहीं वाकिफ, गर काबा हुआ तो क्या, बुतखाना हुआ तो क्या.’

वैसे तो जेठ महीने के पहले मंगल को बड़ा मंगल माना जाता है लेकिन इस महीने हर मंगलवार को लखनऊ के चौराहों पर शरबत, हलुवा, बूंदी, लड्डू और पूरियां बंटते देखी जा सकती हैं. बंटवाने वाले हिंदू भी होते हैं और मुसलमान भी. मंदिरों पर जुटने वाली भीड़ में भी दोनों होते हैं. जिस तरह मुहर्रम में लखनऊ के हिंदू इमाम हुसैन को अकीदत का नजराना पेश करते हैं उसी तरह यहां के मुसलमान जेठ के महीने में मंगलवार को हनुमान जी के प्रति श्रद्धावान रहते हैं. मुहर्रम और बड़े मंगल में एक और साम्य इनमें लगने वाली सबीलों (प्याऊ) का भी है. मुहर्रम में भी सबीलें खूब लगती हैं और बड़े मंगल में भी. अंग्रेजों के जमाने से ही लखनऊ में इस दिन स्थानीय अवकाश होता है.

हलुवा, बूंदी और पूरियां बंटवाने वाले हिंदू भी होते हैं और मुसलमान भी. मंदिरों में जुटने वाली भीड़ में भी दोनों होते हैं

बड़े मंगल पर सबीलों और खाना बंटवाने की परंपरा नवाब वाजिद अली शाह ने शुरू की थी. चूंकि सबीलें इमाम हुसैन की शहादत से मंसूब हैं, इसलिए लखनऊ में बड़े मंगल पर मुसलमानों ने इस परंपरा को खूब आगे बढ़ाया. इतिहासकार डॉ रोशन तकी इस परंपरा को एक दूसरे नजरिए से भी देखते हैं. वे कहते हैं, ‘धार्मिक सद्भावना के अलावा इस परंपरा के पीछे एक मुख्य वजह यह भी थी कि सबील को एकता स्थापित करने वाले प्रतीक के रूप में देखा जाता है. अंग्रेजी हुकूमत का मुख्य हथियार सामाजिक फूट के जरिये राज्य हड़पना था. वाजिद अली शाह लखनऊ में एक अटूट समाज की स्थापना करना चाहते थे जिसको मज़हबी आधार पर तोड़ा न जा सके.’ बड़े मंगल के दौरान पिछले कई सालों से प्याऊ लगाने वाले जावेद अली कहते हैं, ‘जेठ में गर्मी बहुत पड़ती है. ऐसे में अगर आप किसी प्यासे को पानी पिलाते हैं तो इससे बड़ा सबाब नहीं हो सकता. जब मैं सबील नहीं लगाता था तब भी दूसरी सबीलों पर जाकर लोगों को पानी दिया करता था.’ लखनऊ के ही एक दूसरे मुसलमान हनुमान भक्त फहीम सिद्दीकी अपने हनुमान मंदिर जाने के पीछे की कहानी सुनाते हुए कहते हैं, ‘जिस दौर में मैं लखनऊ विश्वविद्यालय का छात्र था, तब साथ के बहुत-से दोस्त विश्वविद्यालय के सामने स्थित प्रसिद्ध हनुमान सेतु मंदिर जाया करते थे, बड़े मंगल पर सबका एक साथ अलीगंज वाले मंदिर जाने का प्रोग्राम बनता था. साथ देने के लिए मैं भी जाता था. इसी से धीरे-धीरे हनुमान जी के प्रति श्रद्धा बढ़ती गई. अब बाकी मंगलों में भले ही न जा पाऊं लेकिन जेठ के कम से कम एक मंगल में हनुमान सेतु जरूर जाता हूं.’

अगर आप लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्रों या फिर हनुमान सेतु मंदिर के महंतों से बात करें तो फहीम की बात को सही पाएंगे. लखनऊ विश्वविद्यालय के बहुत-से मुसलमान छात्र इस  मंदिर में हर मंगलवार को आते हैं. बड़े मंगल पर तो लखनऊ का शायद ही कोई मंदिर ऐसा हो जहां मुसलमान भक्त न जाते हों. यह भी सुखद संयोग है कि लखनऊ में कई हनुमान मंदिरों के बाहर मुसलमान प्रसाद की दुकान लगाते हैं तो मस्जिदों के बाहर हिंदू हलवाइयों की दुकानें हैं. शहर में हिंदुओं की बनवाई मस्जिदें और इमामबाड़े हैं तो मुसलमानों के बनवाए मंदिर भी हैं.
बड़ा मंगल शायद इसीलिए बड़ा मंगल कहा जाता है क्योंकि इसके बड़े दिल में सभी मजहब के लोगों के लिए जगह है. काश मंदिर और मस्जिद के लिए झगड़ने वाले लोगों ने इस बड़प्पन से कोई सबक सीखा होता.

हिमांशु बाजपेयी