लखनऊ के बशीरतगंज में रहने वाले हरीशचंद्र धानुक इस बार मुहर्रम में ईराक, ईरान और सीरिया जा रहे हैं, ताकि वे हजरत इमाम हुसैन से मंसूब मुकद्दस जगहों की जियारत कर सकें. उनके घर में पिछली पांच पीढ़ियों से मुहर्रम के दौरान आजादारी और ताजियेदारी की रिवायत पूरी अकीदत के साथ निभाई जा रही है. घर में इमामबाड़े की कहानी कहते हुए धानुक बताते हैं कि उनके परदादा के पिता की लंबे समय तक कोई संतान नहीं हुई. उन दिनों लखनऊ में मुहर्रम का बड़ा जोर था. किसी ने उन्हें अज़ादारी करने की तजवीज की. 1880 में घर में यह इमामबाड़ा बना. धानुक के मुताबिक इमाम हुसैन के करम से बाद में घर में संतान भी हुई.
कर्बला के शहीदों के प्रति गहरी आस्था रखने वाले शिव के भी भक्त हैं. उनकी छत पर लहराते भगवे और इमामबाड़े में कर्बला के शहीदों को समर्पित काले झंडों को देखकर बाहर वाले भरमा जाते हैं लेकिन पुराने लोग जानते हैं कि धानुक लखनऊ की उस अजीम रिवायत की एक कड़ी हैं जिसमें सैकड़ों साल से गैरमुसलमानों का कर्बला के शहीदों से आत्मीय सम्बन्ध रहा है. धानुक ऐसे अकेले व्यक्ति नहीं हैं. लखनऊ में इमाम हुसैन के गैरमुसलिम हजारों शैदाई हैं जो मुहर्रम में मातम, अजादारी और ताजियेदारी करते हैं.
अपने मुहर्रम के लिए लखनऊ पूरी दुनिया में मशहूर रहा है. यहां मुहर्रम सिर्फ शिया मुसलमानों तक ही सीमित नहीं रहा बल्कि मजहब की हदों से आगे निकल गया. हिंदू और मुसलमानों के साथ साथ अजादारी करने की रिवायत लखनऊ में नवाब आसिफुद्दौला के दौर से होती हुई आखिरी नवाब वाजिद अली शाह के दौर में परवाज पर पहुंची. उस दौर में छन्नूलाल दिलगीर, राम प्रसाद बशीर, कुंवर सेन मुज्तर, उल्फत राय उल्फत, नानक चांद नानक, बशेश्वर प्रसाद मुनव्वर प्यारे साहब रशीद, लालता प्रसाद शाद, ब्रिजनाथ मखमूर जैसे मशहूर हिंदू शायरों ने न सिर्फ ढेरों शानदार मर्सिये लिखे बल्कि ये सभी मुहर्रम की मजलिसों में बराबर आते जाते रहे. लखनऊ का पूरा कत्थक घराना बाकायदा काले लिबास में मुहर्रम की मजलिसों में हिस्सा लेता रहा है. संस्कृतियों की सहिष्णुता का यह सफर आज भी जारी है. ‘
हिमांशु बाजपेयी