मिलाप का मजार

भागलपुर से कहलगांव जाने के रास्ते में रोड किनारे एक गांव है अम्मापुर. इस छोटे-से गांव में एक छोटा-सा मजार है. चर्चा में न कभी अम्मापुर रहा है और न वह मजार जबकि ठोस वजह दोनों के चर्चित होने की है. भटकाव के दौर से गुजर रहे देश, जरा-जरा सी बात पर संप्रदाय के खोली में समा जाने को आतुर समाज, धर्म के उन्मादी होते स्वरूप के कारण पीढ़ियों से बने रिश्ते को तोड़ने की सनक वाले दौर में अम्मापुर गांव और वह छोटा-सा मजार प्रेरणा का स्रोत है.  इस मायने में कि यहां वर्षों से मजार की देखरेख एक हिंदू परिवार कर रहा है.

1989 के चर्चित भागलपुर दंगे मंे इस मजार का भी ध्वस्त होना लगभग उसी तरह तय हो चुका था, जैसे अम्मापुर से मुसलमानों का गांव छोड़कर भाग जाना. हुआ यह था कि भागलपुर दंगे की लपटें जब शहर के बाहरी हिस्से में पहुंचनी शुरू हुईं तो अम्मापुर में रहने वाले करीबन 12-15 घरों के मुसलमान वहां से गांव छोड़कर चले गए. बकौल घनश्याम मंडल तब आक्रोश और उन्माद इस तरह छाया हुआ था कि गांव के कुछेक लोग मजार को भी उखाड़ फेंकने पर आमादा थे, लेकिन तब गांव के लोगों ने एकजुटता दिखाई. मजार को उखड़ने से बचा लिया. फिर तुरंत यह भी निर्णय लिया गया कि मजार की देखरेख जिस तरह पहले से मुसलमान करते थे, उसी तरह नियमित तौर पर जारी रहेगी. इसके लिए सामने आए सुरेश भगत और उनकी पत्नी गिरिजा देवी. यह कोई मामूली साहस भरा फैसला नहीं था क्योंकि तब भागलपुर दंगे की आग मे झुलसकर बर्बादी की नई दास्तां लिख रहा था. सुरेश कहते हैं, ‘ हमने जन्म से इस मजार को देखा था. जाति-धर्म से परे जाकर हर किसी को इमाम शाह अली बाजीर खां के मजार पर मन्नत मानते हुए देखा था. इसे खत्म कैसे होने देते?’

तब से लेकर आज तक सुरेश मजार की देखरेख और वहां पहुंचने वाले भक्तों की सेवा में लगे हुए हैं. दंगे में भय से भागे मुसलमान आज तक उस गांव में वापस नहीं आ सके लेकिन मजार पर हर शुक्रवार को मन्नत पूरा होने पर चढ़ावा चढ़ाने वालों की भीड़ जुटती है.

निराला