सगरी नगरिया शोर आपन हियां न भोर

कल्याण बिगहा का कल्याण

पटना के पहाड़ी बाईपास में पांच घंटे जाम में फंसे रहने के बाद दिन के करीब 12 बजे हम बख्तियारपुर जिले में स्थित नीतीश कुमार के पुश्तैनी गांव कल्याण बिगहा पहुंचने को होते हैं. हमें गांव तक ले जा रही गाड़ी के ड्राइवर सिंहजी कहते हैं, ‘कितना मजा आता अगर आज नीतीश कुमार भी अपने गांव आने वाले होते. जब पांच घंटे तक पहाड़ी जाम में फंसते तब पता चलता कि उनका गांव है तो पटना के पास लेकिन जाम के कारण इतना दूर हो जाता है कि पहुंचने के लिए 10 घंटे भी कम पड़ते हैं.’

खैर! 25 सितंबर को किसी तरह हम कल्याण बिगहा पहुंचते हैं. संयोगवश उसी रोज हमारे पहुंचते ही सतीश कुमार भी वहां पहुंच जाते हैं. पेशे से वैद्य सतीश कुमार नीतीश के बड़े भाई हैं. नीतीश के मुख्यमंत्री बन जाने के बाद भी काफी समय तक सतीश अपने पुराने खपरैल वाले घर में ही रहा करते थे. लेकिन पिछले लगभग डेढ़ साल से मां की तबीयत ज्यादा खराब होने की वजह से वे उन्हें लेकर पटना चले गए हैं. वे अब वहां नीतीश के साथ ही रहते हैं.

अपने टूटे-फूटे घर के बाहर ही कुर्सी लगाकर बैठे सतीश कहते हैं, ‘जब मौका मिलता है, आ जाते हैं. मन तो इधर ही बसता है, कल्याण बिगहा में या बख्तियारपुर में. मां की तबीयत के कारण पटना रहते हैं नहीं तो इधर ही रहते हैं.’

सतीश का राजनीति से कभी कोई लेना-देना नहीं रहा. एक अजीब बात सतीश के अपने गांव में होने पर यह देखने में आती है कि उनके घर के अगल-बगल रहने वालों पर उनके वहां आने का कोई प्रभाव पड़ता नहीं दिखाई देता. आम तौर पर होता यह है कि नेता जी या उनके परिजन जब गांव आते हैं तो लोगों की भारी भीड़ जमती है, लेकिन कल्याण बिगहा में वह परंपरा नहीं दिखाई देती. एक मायने में यह अच्छा भी है लेकिन राजनीति से बेरुखी समझ से परे है. गांव के चौपालों पर बैठकें नहीं जमती हों ऐसा नहीं है. बैठकें भी जमती हैं और खूब गरमागरम बहसें भी होती हैं लेकिन नीतीश की राजनीति पर नहीं, न ही लालू के राजनीतिक दांव-पेंचों पर. बल्कि ताश के खेल में कौन कितना चतुर-ज्ञानी हो गया है, इस पर. 25 को हमारे कल्याण बिगहा पहुंचने के वक्त राज्य की चुनावी राजनीति में नीतीश का काव्य-युद्ध चर्चाओं के केंद्र में था. लेकिन कल्याण बिगहा के चौपालों में उसकी आहट तक सुनाई नहीं पड़ी.

गरमागरम बहसें होती हैं. नीतीश की राजनीति पर नहीं, न लालू के दाव-पेंच पर बल्कि ताश के खेल में कौन कितना चतुर-ज्ञानी हो गया है, उस पर

कल्याण बिगहा को राजनीति में ज्यादा रुचि नहीं. हां, कभी नीतीश की रैली हो तो पूरा गांव पहुंच जाता है वहां. नीतीश के नाम पर यहां जो भी वोट मांगेगा उसे एकमुश्त मिलेगा. इसकी गारंटी यहां हर कोई दे सकता है. जैसा कि रजनीश कुमार कहते हैं, ‘यह उनका अपना गांव है तो यहां क्या राजनीति की झलक मिलेगी. एक गांव में एक ही नेता पैदा होता है, यहां दूसरे नेता की गुंजाइश नहीं.’ वे बताते हैं कि यहां नीतीश साल में दो बार जरूर पहुंचते हैं – 14 मई को अपनी पत्नी मंजू देवी की पुण्यतिथि के अवसर पर और 29 नवंबर को अपने पिता स्व. रामलखन सिंह को श्रद्धांजलि देने. दोनों के स्मृति स्थल गांव में प्रवेश करते ही नजर आते हैं.

नीतीश के यहां आने से पहले गांव की साफ-सफाई अच्छे से होती है. नीतीश आते हैं, माल्यार्पण करते हैं, कुछ देर रुकते हैं, चले जाते हैं. ग्रामीणों के पास अपने नेता से पूछने के लिए कोई सवाल नहीं होता, समस्याओं की कोई फेहरिस्त नहीं होती और न ही उम्मीदों की पोटली लिए पहुंचता है कोई वहां.

नीतीश  के मुख्यमंत्री बनने के बाद कल्याण बिगहा में कल्याण की नदियां बही हैं. प्राथमिक विद्यालय के बाद अब इंटर तक की पढ़ाई का इंतजाम हो रहा है. कम्युनिटी हॉल में आईटीआई चालू हो चुका है. लालू के गांव फुलवरिया हम एक दिन पहले पहुंचे थे. वहां और यहां में एक फर्क साफ महसूस होता है. लालू की  तुलना में नीतीश का सबसे ज्यादा जोर शिक्षण संस्थान स्थापित करवाने पर रहा है. इसके अलावा बिजली के लिए विशेष व्यवस्था हो रही है. पानी की टंकी से पानी की सप्लाई होती है. प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र खुल गया है और जिस कल्याण बिगहा में हरनौत के रास्ते पहुंचने के लिए गड्ढों से होकर जाना पड़ता था, वहां मॉडल सड़क बिछी है.

लेकिन इतने के बाद भी नीतीश के गांव में राजनीति से लोगों का कोई लगाव नहीं दिखता. उन्हें तो बस तीर छाप पर वोट डालने से मतलब है. हालांकि वर्षों बाद नीतीश के गांव से एक और युवा ने राजनीति की शुरुआत की है. युवा जदयू के प्रदेश महासचिव बने राजकिशोर कहते हैं, ‘हम राजनीति ही करना चाहते हैं, इसमें साहब का सहयोग मिलेगा, यह उम्मीद है.’

अंत में नीतीश के डेवलपमेंट एजेंडे की पोस्टमार्टम करने वाले एक सज्जन मिलते हैं, ‘नीतीश जब तक अधिकारियों पर सख्ती नहीं करेंगे, उनका विकास-मॉडल खाली हाथी दांत ही रह जाएगा.’

फुलवरिया में नहीं महकती राजनीति

24 सितंबर को बिहार के अखबारों में लालू प्रसाद के बेटे तेजस्वी के राजनीति में लांचिंग की खबर सुर्खियों में थी. समूचे राज्य में तेजस्वी के बहाने लालू और लालू के बहाने तेजस्वी के राजनीतिक भविष्य का आकलन चल रहा था, उसी रोज हम फुलवरिया पहुंचे.

फुलवरिया यानी बिहार के करिश्माई नेता लालू प्रसाद यादव का खानदानी गांव. राजनीति में अदभुत प्रयोग से सीएम बनी राबड़ी का ससुराल. वह गांव, जो 1990 की शुरुआत में बिहार के चप्पे-चप्पे में रातों-रात चर्चित हो गया था. तब फुलवरिया पर रचित एक लोकगीत बड़ा मशहूर हुआ था – धन फुलवरिया, धन माई मरछिया, लालू जिनके ललनवा कि जानेला जहनवा ए रामा…

छपरा, सीवान, मीरगंज के बाद लाइनबाजार की संकरी सड़क पर बेतरतीब निकल आई दुकानों और हर नियम को तोड़ने पर आमादा ट्रकों के जाम से जूझते हुए फुलवरिया पहुंचने पर एक सज्जन से मुलाकात होती है. लालू जी का घर पूछने पर वे हाथों के इशारे से रास्ता बताते हैं. लालू जी के दोमंजिला मकान के सामने पहुंचकर जब जानने की कोशिश करते हैं कि यहां कोई रहता नहीं क्या तो बताया जाता है कि जिस व्यक्ति ने हमें यहां तक पहुंचने का रास्ता बताया वही यहां रहते हैं. उनका नाम है रामानंद यादव और वे लालू प्रसाद के भतीजे हैं. भैंस चरा रहे रामानंद के पास हम वापस पहुंचते हैं. वे थोड़ी देर में मिलने का आश्वासन देकर चले जाते हैं. वह ‘थोड़ी देर’ नहीं आता. 4 घंटों में कई बार उनसे सामना होता है, मगर वे हर बार कभी किसी तो कभी किसी बहाने कन्नी काट लेते हैं.

फुलवरिया में चौपालों की खाक छानने के क्रम में कइयों से दिलचस्प मुलाकातें होती हैं. लालू प्रसाद द्वारा निर्मित ब्रह्मबाबा चबूतरे पर गंवई गीतों की मस्ती के साथ गेहूं फटकती गांव की एक बहुरिया कहती है, ‘नेता जी के बारे में हमको विशेष पता नहीं, सिवाय इसके कि जब भी वोट का टाइम आएगा, हम लालटेन पर पीं बजा आएंगे.’

‘नेता जी के बारे में हमको विशेष पता नहीं, सिवाय इसके कि जब भी वोट का टाइम आएगा, हम लालटेन पर पीं बजा आएंगे’

लालू प्रसाद जब बिहार की सत्ता पर काबिज हुए थे तो फुलवरिया में एकाएक विकास की आंधी चली थी. हेलीपैड, अस्पताल, थाना, बैंक, डाकघर, पानी की टंकी, पावर हाउस, ब्लॉक ऑफिस, अंचल कार्यालय, भव्य दुर्गा मंदिर से लेकर ब्रह्मबाबा स्थान तक सबकी स्थापना हुई. लेकिन पूरे बिहार में राजनीति की नई परिभाषा गढ़ देने वाले लालू प्रसाद के गांव में उनकी चर्चा तो है, किसी भी प्रकार की राजनीति की बिलकुल नहीं. फुलवरिया में न कहीं राजद का कोई झंडा है, न बैनर-पोस्टर और न ही कहीं अपने नेता की कोई तसवीर. पूरे राज्य में छाए रहने वाले नेता के गांव में यह राजनीतिक शून्यता आश्चर्य में डाल देती है.

मरछिया देवी रेफरल अस्पताल के सामने एक गुमटी के पास चंद नौजवान बैठे मिलते हैं. उनमें से एक कमलेश कहता है, ‘यह तो साहेब का गांव है जहां हर चुनाव में उनकी पार्टी को एकमुश्त वोट पड़ेगा, इससे ज्यादा राजनीति की गुंजाइश यहां नहीं है.’

यह भी दिलचस्प है कि जब तेजस्वी के राजनीति में प्रवेश की चर्चा पूरे राज्य में थी, उस रोज फुलवरिया में सिर्फ एक आदमी इस पर बात करने को तैयार मिला. दुर्गा मंदिर की देखरेख करने वाले महेंदर दास कहते हैं, ‘तेज बाबू अभी क्रिकेट ही खेलते तो मजा आता. राजनीति में तो कभी भी आ जाते. हम तो उनको बड़ा खिलाड़ी बनते हुए देखना चाहते थे. उसमें ज्यादा नाम है.’ यहां राजनीति पर क्रिकेट का भारी होना भी एक अलग ही एहसास करवाता है.

गांव में ही मिले नौजवान परमहंस यादव बताते हैं, ‘हमारे नेता यहां के लिए भगवान ही हैं. उनके मंत्री बनने से पहले यहां आने के लिए कच्ची सड़क तक नहीं थी, कीचड़ भरे रास्ते को पार करना पड़ता था. लेकिन अब देखिए, कई-कई चार पहिए लगे हैं.’ परमहंस के अनुसार यही बदलाव है. यही विकास है. वहीं बैठा परमहंस का साथी उसकी बातों को काटता है, ‘बदलाव तो यह भी है कि एक समय जब लालू जी यहां आते थे तो हजारों का हुजूम उमड़ पड़ता था. पूरा इलाका फुलवरिया में होता था. अब इलाके की बजाय बस गांव-जवार वाले उमड़ते हैं.’ वह बात को आगे बढ़ाता है, ‘तब हमारे नेता जी ने ब्लॉक, बैंक, डाकघर, अस्पताल, पावर हाउस सब बनवाया लेकिन नई पीढ़ी के सामने सवाल यह है कि यहां एक हाई स्कूल क्यों नहीं है? एक इंटर कॉलेज क्यों नहीं है? कोई तकनीकी शिक्षण संस्थान क्यों नहीं खुला?’

लौटते समय लाइनबाजार में चाय की दुकान पर मिले ओमप्रकाश बताते हैं, ‘लालू जी ने अपने गांव में विकास के कई कार्य किए, पर आसपास के गांवों में कुछ खास नहीं हुआ जिससे उनमें फुलवरिया के प्रति ईर्ष्या का भाव पैदा हुआ और राजद के खिलाफ वोटिंग हुई. उनके खुद के इलाके मीरगंज से जदयू के रामसेवक सिंह विधायक हैं.’ ओमप्रकाश के अनुसार विकास के अन्य कार्यों के साथ राजनीतिक चेतना का भी विकास हुआ होता तो आज फुलवरिया और आसपास के इलाके में कई और लालू यादव पैदा हो गए होते जो राजा का गढ़ कभी नहीं ढहने देते.

शहरबन्नी का सच

खगड़िया से अलौली प्रखंड मुख्यालय जाते वक्त सिंगल लेन सड़क का संकट तो फिर भी कम है लेकिन अलौली के बाद हथवन होते हुए फूलतोरा घाट तक पहुंचने में अगर आप ज्यादा मुश्किल झेले बिना सफल हो जाते हैं तो समझिए कि जंग जीत गए. यहां का रास्ता बेहद घटिया है. चालक बार-बार गाड़ी आगे ले जाने से मना कर देता है. बहुत मान-मनुहार के बाद ही वह फूलतोरा घाट तक जाने को तैयार होता है. फूलतोरा से नाव की सवारी करके ही रामविलास पासवान के गांव शहरबन्नी पहुंचा जा सकता है. वह गांव जहां के एक निर्धन दलित परिवार से आए रामविलास ने पांच दशक पहले राजनीति में न सिर्फ कदम रखा बल्कि बिहार सरकार में मंत्री रहे मिश्री सादा जैसे खुर्राट कांग्रेसी नेता को पटखनी भी दी थी.
इतने बड़े दिग्गज दलित नेता के गांव तक पहुंचने के लिए जिला मुख्यालय से सड़क मार्ग का न होना हैरत भरा है. बिजली के तार के इंतजार में लगे खंभे उपेक्षा की अलग कहानी कहते हैं. राजनीतिक निष्क्रियता यहां भी है, जनता और नेता दोनों की तरफ से. फूलतोरा घाट के रास्ते में मिले गंगेश बताते हैं, ‘बिजली-पानी और रोजी-रोटी जैसी बुनियादी चीजें न मिलें तो राजनीति को लेकर रोमांचित होने की कोई वजह नहीं बचती.’ वहीं रामप्रवेश, शिवनारायण समेत कई ऐसे लोग मिलते हैं जिनकी रुचि रामविलास की राजनीतिक बुलंदी में नहीं है और न ही उनके छोटे भाई व अलौली के विधायक पशुपति कुमार पारस के उपमुख्यमंत्री बनने में.

पूरा अलौली प्रखंड तो दूर, शहरबन्नी ही गांव जैसी बुनियादी सुविधाओं तक से वंचित है. यहां की बहुसंख्यक आबादी मुसहर है जो महादलित समीकरण का अहम हिस्सा हंै. ऐसे में नीतीश रामविलास की असफलताओं को भुनाने की पूरी कोशिश करेंगे. प्रदेश के दिग्गज राजनेता के गांव के प्रति सरकारी और उसकी राजनीतिक बेरुखी आश्चर्यजनक है.