अब न तो चिल्ला-चिल्लाकर भालू का खेल दिखाने वाले मदारी रहे, न ही भोंपू पर सिनेमा का प्रचार करते बाइस्कोप लिए गांवों और मेलों में घूमने वाले. तकनीक ने सब-कुछ बदल डाला है. लेकिन झॉलीवुड (हॉलीवुड और बॉलीवुड की तर्ज पर झारखंड के फिल्म उद्योग का प्रचलित नाम) की फिल्मों को अंतिम आदमी तक पहुंचाने के लिए कुछ-कुछ वही पुराने तरीके ही इस्तेमाल में लाए जाते हैं. यहां सिनेमा तैयार होने के बाद कुछ लोग भाड़े पर प्रोजेक्टर लेकर गाड़ी से घूमते रहते हैं – हाट, कस्बे, मेलों और गांवों में. लाउडस्पीकर और माइक के जरिए सिनेमा का प्रचार होता है और खुली जगह पर लोगों की भीड़ जुटाकर, उजले पर्दे या दीवार पर सिनेमा दिखाया जाता है. गांव-गुरबे के लोगों के लिए अपनी बोली और अपने ही इलाके में मिल रहा यह मनोरंजन का सबसे सुलभ साधन है.
मोरहाबादी मैदान के पास हम ऐक्शन, कैमरा, कट और शॉट जैसे शब्द सुनकर रुक जाते हैं. किसी गाने की शूटिंग चल रही है बिना किसी मेकअप रूम के. कोई एयरकंडीशनर नहीं, न ही कोई और ताम-झाम. मौजूद लोगों में से एक चिल्लाता है- जल्दी करो, ट्रैफिक का टाइम हो रहा है. तकनीक के नाम पर इनके पास सामान्य वीडियो कैमरे हैं और एडिटिंग के लिए भाड़े पर ली गई बुनियादी-सी मशीनें. स्टूडियो के नाम पर मुफ्त की पहाड़ियां, मैदान, नदियां और सड़कें.
आम-से वीडियो कैमरे से ‘बुद्धा वीप्स इन जादूगोड़ा’ सरीखी डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाकर राष्ट्रीय पुरस्कार पा चुके निर्माता-निर्देशक श्रीप्रकाश ने पहली बार झॉलीवुड के लिए फीचर फिल्म बनाई थी. नागपुरी और सादरी भाषा में बनी इस फिल्म का नाम था ‘बाहा’. झॉलीवुड की मायानगरी में संघर्ष कर रहे कलाकारों पर आधारित इस फिल्म ने झारखंड में बहुत नाम कमाया, लेकिन कमाई के नाम पर बस लाख-सवा लाख रुपए ही जुटा पाई जो इसकी लागत का एक मामूली-सा हिस्सा भर था. गौरतलब है कि यहां एक फिल्म करीब 6 से 7 लाख रुपए में बनती है, जो हिंदी फिल्मों के चरित्र कलाकार के मेहनताने से भी काफी कम है.
फिल्म निर्माता कमाई न कर पाने की दो मुख्य वजहें बताते हैं. एक- झारखंड के सारे सिनेमाहॉल बहुत बुरी हालत में हैं जहां कुछ गिने-चुने दर्शक ही जुटते हैं (कुछ हॉलवाले डिजिटल फिल्मों को दिखाने में आनाकानी भी करते हैं). टिकटों की कीमत छोटे शहरों में 8 से 14 रुपए और रांची जैसे शहरों में 20 से 60 रुपए तक है. रांची जैसे शहरों में इन फिल्मों को बस मॉर्निंग शो में ही दिखाते हैं, इसलिए व्यवसाय की ज्यादा गुंजाइश नहीं रह जाती. इसके अलावा ज्यादातर घरों में इन फिल्मों की पायरेटेड डीवीडी पहले-दूसरे दिन ही पहुंच जाती हैं.
दर्शकों की अपेक्षाओं और सरकारी उपेक्षाओं के बीच फंसे झॉलीवुड की भिड़ंत उच्च तकनीक और तामझाम से लैस हिंदी फिल्मों से है
चूंकि झॉलीवुड कमाई के मामले में बहुत पीछे है लिहाजा इसके सितारे भी ज्यादा पैसा नहीं कमा पाते. झॉलीवुड के एंग्री यंग मैन दीपक लोहार के अलावा यहां कोई अन्य हीरो या हीरोइन आर्थिक दृष्टि से बहुत मजबूत नहीं हैं. ‘बाहा’ की 29 वर्षीया हीरोइन शीतल सुगंधिनी मुंडा समुदाय से हैं. एक इतनी नामी फिल्म में काम भी उनकी जिंदगी में कोई बड़ा बदलाव नहीं ला पाया है. वे एक एनजीओ में नौकरी करती हैं. ‘झारखंड का छैला’ के निर्देशक अनिल सिकदर के लाइटिंग इंजीनियर ऋषिकेश के मुताबिक इन फिल्मों में हीरो को तकरीबन 20 और हीरोइन को 15 हजार रुपए मिलते हैं. कुछ तो अपने घर का भी पैसा लगा देते हैं, इस उम्मीद में कि एक बार जम गए तो आगे उनकी पूछ बढ़ेगी. सपनों के बनने और बिखरने का खेल बॉलीवुड की तर्ज पर यहां भी कम नहीं होता.
एनएफडीसी (राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम) की जिम्मेदारी भले ही भारत की क्षेत्रीय बोलियों में बनने वाली फिल्मों को बढ़ावा देना है पर शायद झॉलीवुड उनकी नजरों के दायरे से बाहर की चीज है. यह बात और है कि इन फिल्मों को भी केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के उन्हीं मानकों पर परखा जाता है जिन पर अन्य स्थापित भारतीय फिल्म उद्योगों की फिल्मों का परीक्षण होता है. पर क्या सरकारी तंत्र इनके प्रति जरा भी जवाबदेह नहीं है?
फिल्म निर्माताओं का मानना है कि यदि सरकार उन्हें थोड़ी-सी टैक्स में सब्सिडी दे, सिनेमाहॉलों के लिए साल में छह सप्ताह इन क्षेत्रीय फिल्मों को दिखाना अनिवार्य कर दे और गांव-गुरबों के छोटे-छोटे सिनेमाहॉलों को बढ़ावा दे तो झॉलीवुड की भी किस्मत बदल जाएगी. 2008 में गठित अखिल भारतीय संथाली फिल्म समिति (एआईएसएफए) के अध्यक्ष रमेश हांसदा कहते हैं, ‘बिना किसी सरकारी सहयोग के हमने झारखंड में स्थानीय बोली और लोगों को लेकर फिल्में बनाई और दिखाई हैं. लोगों ने इन्हें खूब सराहा लेकिन सरकार हमें नजरअंदाज करती है, अगर वह हमारी ओर ध्यान दे तो कोई कारण नहीं कि हम अच्छा नहीं कर पाएं.’
हालांकि झॉलीवुड में बनने वाली ज्यादातर फिल्में डिजिटल कैमरों की सहायता से बनाई जाती हैं, मगर यहां अब तक 9 सेल्यूलाइड फिल्में भी बन चुकी हैं. समुदाय की आवाज को सेल्यूलाइड का माध्यम देने वाले ऐसे लोगोंं में करनडीह के रहने वाले दशरथ हांसदा (रमेश हांसदा के भाई) और प्रेम मार्डी का नाम पहले आता है. इन दो कलाकारों ने ही सबसे पहले ‘चांदो लिखोन’ (झारखंड की पहली जनजातीय फिल्म) बनाकर संथाली (आदिवासी) चलचित्र के सपने को साकार किया था. युगल किशोर मिश्र और रवि चौधरी ने भी कुछ सेल्यूलाइड फिल्में बनाई हैं. हालांकि महंगी होने की वजह से इन्हें वापस डिजिटल तकनीक का सहारा लेना पड़ रहा है.
‘अमू’ फिल्म को संगीत देने वाले और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पैठ बना चुके नंदलाल नायक भी अमेरिका छोड़-छाड़कर एक साल पहले झारखंड आ बसे हैं. वे एक महत्वाकांक्षी फिल्म बनाने में लगे हैं. यह फिल्म झारखंड से लड़कियों के पलायन और माओवाद के इर्द-गिर्द घूमती है. इसी तरह पत्रकार और संस्कृतिकर्मी मनोज चंचल भी पलायन को केंद्र में रखकर ‘बीरची’ नामक फिल्म बना रहे हैं. बिरसा मुंडा और आदिवासी आंदोलनों को केंद्र में रखकर भी कई फिल्में बनी हैं.
इसका यह मतलब कतई नहीं है कि यहां की फिल्में डॉक्यूमेंट्री फिल्मों कजैसी होती हैं. झॉलीवुड अपने दर्शकों की जरूरतों का पूरा खयाल रखता है. यहां की लगभग सभी फिल्मों में गाने, रोमांस, ऐक्शन और मार-धाड़ वाले दृश्यों का अच्छा तालमेल होता है.
अनिल सिकदर के मुताबिक झॉलीवुड का सालाना कारोबार दो से ढाई करोड़ रुपए का है और यह अब झारखंड के अलावा पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, उड़ीसा और बिहार तक फैलने लगा है. यहां की इकलौती इंफोटेनमेंट पत्रिका ‘जोहार सहिया’ के संपादक अश्विनी कुमार पंकज के मुताबिक आने वाले समय में झॉलीवुड में काफी संभावनाएं हैं.
त्रासदी यह है कि दर्शकों की अपेक्षाओं और सरकारी उपेक्षाओं के बीच फंसे झॉलीवुड की भिड़ंत उच्च तकनीक और तामझाम से लैस हिंदी फिल्मों से है, लेकिन झारखंड की मायानगरी अपने स्तर पर अपने अस्तित्व को बनाए रखने के संघर्ष में जुटी है और यह एक शुभ संकेत है.