अयोध्या पर उच्च न्यायालय के फैसले के बाद क्या होगा, इसपर पूरी दुनिया माथापच्ची करने में लगी है. मगर बड़े-बड़े लेख पढ़ने के बाद भी बस इतना ही समझ आ पा रहा है कि हम सबको न्यायपालिका का आदर करना चाहिए, हारने वाले पक्ष के लिए 24 तारीख के बाद भी सारे रास्ते बंद नहीं होने वाले, वह सर्वोच्च न्यायालय जा सकता है आदि-आदि…
यह मसला न्याय से ज्यादा अहम की लडाई का है. और इसे अहम की लड़ाई हमारे यहां की सांप्रदायिक राजनीति ने बनाया है. हिंदू समुदाय के कुछ लोगों के दिमाग में यह डाल दिया गया है कि हमारे देश में आकर, हमारी इतनी संख्या होने के बावजूद कोई हमारे सबसे बड़े आराध्य के जन्म स्थान को हमसे कैसे छीन सकता है(भले इसके कोई प्रमाण हों या न हों). मुस्लिम समुदाय के कुछ लोगों के दिमाग में यह घर करा दिया गया है कि अगर हम इस तरह से हार मान लेंगे तो पता नहीं किन-किन बातों पर हमें बहुसंख्यक समुदाय के साथ समझौते करने पड़ेंगे.
अब मामला ऐसा फंस गया है कि इस मामले पर सामने वाले समुदाय की भावनाओं की ज़रा भी इज्जत करना दोनों समुदायों को अपनी कमजोरी का प्रमाण लगने लग गया है.
अब तक जो हो चुका उस पर बहस बेमानी है मगर अभी भी शायद एक हल ऐसा है जो आने वाले अदालती फैसले को दोनों समुदायों और देश के लिए एक अवसर बना सकता है.
माना फैसला मुस्लिम समुदाय के पक्ष में आता है – कि बाबरी मस्जिद किसी मंदिर को तोड़कर नहीं बनाई गई थी और वहां मस्जिद ही थी कोई राम का मंदिर नहीं. तो ऐसे में यदि मुस्लिम समुदाय यह घोषणा कर दे कि वह अपनी मस्जिद की आधी जमीन मंदिर के लिए देना चाहता है और वहां मंदिर और मस्जिद साथ-साथ बनवाना चाहता है तो यह उसकी कमजोरी या किसी तरह के समझौते की नहीं बल्कि बड़प्पन की बात होगी. यह न केवल देश में सुलगती आ रही सांप्रदायिकता की चिन्गारी की चटकन को कम करके खत्म करने की क्षमता रखता है बल्कि देश की राजनीति के सांप्रदायिक औजारों को हमेशा के लिए भोंथरा करने की भी कुव्वत रखता है.
ऐसा ही हिंदू भी कर सकते हैं. यदि फैसला उनके पक्ष में आता है तो वे विवादित स्थान पर मंदिर के साथ एक मस्जिद के निर्माण की घोषणा कर सकते हैं. ऐसा करने से न वे छोटे होंगे न ही उनका धर्म. बल्कि दोनों ही हिमालयी ऊंचाइयों पर पहुंच जाएंगे. और यह उनकी राष्ट्रवादिता का भी सबसे बड़ा प्रमाण होगा.
यह हल दोनों पक्षों के अहम को तो संतुष्ट करता ही है, कि कोई हमसे जबरन हमारी चीज नहीं छीन रहा है, दोनों की ही इच्छाएं भी पूरी कर देता है. एक समुदाय द्वारा अपने बडप्पन को दर्शाने वाली ऐसी घोषणा दूसरे समुदाय को न जाने और कितने दूसरे इसी प्रकार के छोटे-बड़े मसलों पर बड़प्पन दिखाने के अवसर मुहैया करा देगी. अगर एक स्थान से जुड़ी आस्था देश की राजनीति को बुरे के लिए बदल सकती है तो उसका एक सर्वमान्य हल उसी राजनीति को एक नई और बेहतर दिशा भी दिखा सकता है.
इसके उलट, यदि ऐसा कुछ नहीं होता है तो यह मुकदमेबाजी सर्वोच्च न्यायालय तक जाने और उसका फैसला आने के बाद देश के भविष्य को न जाने कौन-कौन से तरीकों से प्रभावित करने वाली है!
संजय दुबे, वरिष्ठ संपादक