राष्ट्रीय पार्क बनने के बाद अपने पुश्तैनी हक-हुकूकों को गंवा चुके नंदादेवी बायोस्फेयर रिजर्व में पड़ने वाले गांवों के निवासी अब फिर से प्रस्तावित ‘क्रिटिकल वाइल्ड लाइफ हैबिटैट’ योजना से असमंजस में हैं. कई बदलावों की गवाह रही उत्तराखंड के इन गांवों की एक पीढ़ी हर दशक में हो रहे नए नीतिगत निर्णयों को पचा नहीं पा रही. ग्रामीणों और परियोजनाओं के लिए अलग-अलग मापदंडों की वजह से चिपको की इस भूमि में फिर एक और आंदोलन का माहौल बन रहा है.
7,817 मीटर ऊंचा नंदादेवी शिखर पहाड़ वासियों के लिए एक प्राकृतिक मंदिर है. नंदादेवी यहां की आराध्य देवी हैं. राष्ट्रीय पार्क क्षेत्र के हर गांव में नंदादेवी के मंदिर हैं, जिन पर स्थानीय ग्रामीणों की अगाध आस्था है. नंदादेवी राष्ट्रीय पार्क देश ही नहीं, दुनिया में सर्वश्रेष्ठ वन्यता वाले उन इलाकों में से एक है, जिन्हें आज भी प्राकृतिक रूप से संरक्षित माना जा सकता है. कटोरे के आकार के इस राष्ट्रीय पार्क को दो दर्जन से अधिक हिमाच्छादित चोटियां घेरे खड़ी हैं जिनमें आधा दर्जन 7,000 मीटर से अधिक ऊंची हैं.
इन गांवों के लोगों को आशंका है कि उनके ऊंचाई के खेतों व बसाहटों को भी जानवरों की उपस्थिति दिखाकर कहीं क्रिटिकल वाइल्ड लाइफ में शामिल न कर लिया जाए
बाहरी जिज्ञासुओं द्वारा पहली बार 1883 में ऋषि गंगा के खतरनाक गॉर्ज (खड्ड) के सहारे नंदादेवी के बेस कैंप तक जाने के प्रयास किए गए. मगर पार्क क्षेत्र से निकलने वाली ऋषि गंगा के खतरनाक बहाव के चलते ये प्रयास सफल नहीं हो सके. इसके बाद 1934 में एरिक सिप्टन व एच डब्ल्यू टिलमैन ने ऋषि बेसिन के भीतरी भाग तक जाने का रास्ता खोजा. तब से नंदादेवी चोटी पर्वतारोहियों को व उसका अभयारण्य साहसिक यात्रा के शौकीनों को रोमांच व चुनौती देता रहा है. अनूठी भौगोलिक परिस्थितियां और दुर्लभ वनस्पतियां व जीव नंदादेवी राष्ट्रीय पार्क को पूरे हिमालयी क्षेत्र ही नहीं बल्कि दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण वन्यतायुक्त क्षेत्रों से अलग और बेमिसाल बनाते हैं. हिमालय में इतने नजदीक से दृष्टिगोचर खूबसूरती और ऊंची व खूबसूरत चोटियों का इतनी बड़ी संख्या में जमावड़ा और कहीं नहीं है.
1939 में सबसे पहले नंदा देवी बेसिन को सैंक्चुरी घोषित किया गया. 1982 में इसके 632 वर्ग किमी क्षेत्र को पार्क क्षेत्र बना दिया गया जो 1988 में नंदादेवी बायोस्फेयर क्षेत्र का कोर क्षेत्र घोषित किया गया. नंदादेवी बायोस्फेयर रिजर्व चमोली, बागेश्वर व पिथौरागढ़ जिलों के 5,860 वर्ग किमी क्षेत्रफल में फैला है. 1992 में यूनेस्को ने यहां की प्राकृतिक जैव विविधता को देखते हुए इसे ‘विश्व धरोहर स्थल’ घोषित कर दिया था. चमोली के जोशीमठ कस्बे से लगभग 25 किमी आगे नीति घाटी में ऋषि गंगा और धौली के संगम से राष्ट्रीय पार्क के कोर जोन की सीमा शुरू हो जाती है.
‘क्रिटिकल वाइल्ड लाइफ हैबिटैट’ योजना के विषय में बताते हुए राज्य के मुख्य वन्य जीव प्रतिपालक श्रीकांत चंदोला बताते हैं, ‘2006 में संसद से पारित आदिवासी वनाधिकार कानून की शर्तों के अनुसार राष्ट्रीय पार्क व अभयारण्य क्षेत्रों में वन्य जीवों के लिए ये हैबिटैट बनाए जाने प्रस्तावित हैं. ये क्षेत्र संकटग्रस्त वन्य जीवों के लिए आरक्षित रहेंगे, इसलिए इन क्षेत्रों में वनाधिकार कानून लागू नहीं होगा.’
वनाधिकार कानून से मिले अधिकारों से वर्षों से वन्य क्षेत्रों में रह रहे वनवासियों, आदिवासियों और ग्रामीणों को उन वनभूमियों का स्वामित्व मिलना है जिन पर वे 75 वर्षों से रह रहे थे. हैबिटैट घोषित होने के बाद ये भूमिधरी अधिकार ग्रामीणों को नहीं मिलेंगे. केंद्र के समाज कल्याण व आदिवासी मंत्रालय द्वारा पारित कराए गए इस अधिनियम का संसद में पारित होने तक केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने जमकर विरोध किया था. अधिनियम को पारित होने से रोकने में असफल ‘पर्यावरण लॉबी’ उस समय इस अधिनियम में क्रिटिकल वाइल्ड लाइफ हैबिटैट जैसे नियमों को शामिल करवाने में सफल रही थी जबकि देश भर में घोषित राष्ट्रीय पार्क क्षेत्रों व आरक्षित वनों में पहले से ही ये वनवासी या ग्रामीण रहते आए हैं.
अभी तक वन विभाग के अधिकारी भी हैबिटैट के स्वरूप और उद्देश्यों को नहीं समझ पाए हैं. देश के अन्य पार्कों व बायोस्फेयर क्षेत्रों की तरह नंदादेवी बायोस्फेयर क्षेत्र में क्रिटिकल वाइल्ड लाइफ हैबिटैट की अधिसूचना जारी होने से यहां के गांवों के लोग भी आशंकित हैं. पूरे बायोस्फेयर क्षेत्र के भीतर 55 गांव आते हैं. चमोली जिले की जोशीमठ तहसील के गांव लाता के ग्रामीणों ने राज्यपाल को ज्ञापन भेजकर प्रस्तावित वाइल्ड लाइफ हैबिटैट के गठन पर आपत्तियों की सुनवाई के लिए गठित समिति के स्वरूप का विरोध किया है. ज्ञापन में ग्रामीणों ने कहा है कि इस समिति में एक को छोड़कर सभी सदस्य या तो वन विभाग के अधिकारी हैं या वन विभाग से सेवानिवृत्त, इसलिए इस समिति से न्याय व निष्पक्षता की उम्मीद ना के बराबर है.
ग्रामीणों ने वर्ष 1983 में पार्क के गठन के समय हुए पार्क के सीमा निर्धारण पर भी आपत्ति जताई हैं. उनके मुताबिक पार्क बनने से पहले लाता गांव से दो दिन दूर स्थित पड़ाव धरासी तक गांववालों की 36 छानियां (ग्रीष्मकालीन बसेरे) थीं जिनमें रहकर गांववालों के मवेशी अप्रैल से लेकर अक्टूबर तक अलग-अलग स्थानों पर चरते थे. इन छानियों का उल्लेख 1934 में नंदादेवी अभयारण्य में गए सिप्टन व टिलमैन ने भी किया है. 1982 में पार्क बनने के बाद गांव की सीमा से लगे सारे क्षेत्र ही गांववालों के लिए प्रतिबंधित कर दिए गए. लाता के पूर्व प्रधान धन सिंह राणा कहते हैं, ‘पूर्व की छानियों के क्षेत्र पहले ही विवादित हैं, इसलिए उन्हें पार्क का हिस्सा मानकर क्रिटिकल वाइल्ड लाइफ हैबिटैट में सम्मिलित करना गांववालों के पुश्तैनी हक-हुकूकों का गला घोंटना है.’ राणा बताते हैं कि पार्क बनते समय उनके धार्मिक स्थल और ग्रीष्मकालीन आवास भी कोर जोन में डाल दिए गए थे. ग्रामीणों ने राज्यपाल को भेजे ज्ञापन में यह शिकायत भी की है कि राष्ट्रीय पार्क के गठन के साथ 1983 में उत्तर प्रदेश के प्रमुख सचिव, वन ने स्थानीय जनजातियों पर पार्क बनने के संभावित प्रभावों के अध्ययन के लिए भी एक समिति बनाने का आदेश दिया था परंतु इस तरह का कोई अध्ययन नहीं किया गया. तब युवक मंगल दल के अध्यक्ष रहे राणा बताते हैं, ‘1983 में पार्क की सीमा निर्धारण के लिए हुई बैठक में वन एवं पर्यावरण मंत्रालय, भारत सरकार के तत्कालीन संयुक्त सचिव एनडी जयाल ने भी धरासू से एक पड़ाव और आगे डिब्रूगेठा तक के क्षेत्र को स्थानीय समुदाय को सौंपने की सिफारिश के साथ-साथ कोर क्षेत्र को डिब्रूगेठा से आगे ले जाने का सुझाव भी दिया था. परंतु जयाल का सुझाव भी नहीं माना नहीं गया. घुमंतु और स्थानीय छोटी दूरी के पलायन करने वाले यहां के ग्रामीणों को पार्क बनते समय तत्कालीन उप वन संरक्षक ने वैकल्पिक चरागाह की व्यवस्था करने व एक गांव से दस युवकों को रोजगार देने का वादा भी किया था. मगर यह वादा भी खोखला निकला. इन युवकों को उस समय केवल एक माह के लिए दैनिक वेतन पर रखा गया और चरागाह की भी कोई व्यवस्था नहीं की गई.
विडंबना थी कि वनों के संरक्षण के लिए चिपको जैसा ऐतिहासिक आंदोलन करने वाले ग्रामीण अब वन विभाग की अकर्मण्यता और बदइंतजामी के कारण छीनो-झपटो जैसे आंदोलन पर उतर गए थे
स्थानीय ग्रामीणों को लगता है कि जिन वन भूमियों पर वे पीढ़ियों से रह रहे हैं उन पर अधिकार मिलना तो दूर उन्हें अपनी पुश्तैनी जमीन से भी हाथ धोना पड़ सकता है. लाता से पहले सड़क किनारे बसे रैणी गांव से 4 किमी ऊपर स्थित पूरा का पूरा पैंग गांव नंदादेवी पार्क क्षेत्र के भीतर है. हैबिटैट बनने के बाद इस गांव का क्या होगा यह प्रश्न भी हैबिटैट के गठन में गांववालों की आपत्तियां जानने के लिए जोशीमठ में हुई जन सुनवाई में उठा. वन विभाग ने हाल ही में जोशीमठ ब्लॉक के आठ गांवों को नोटिस देकर हैबिटैट के गठन में संभावित आपत्तियां दर्ज करने को कहा था. अगस्त में हुई इस जनसुनवाई में स्थानीय ग्रामीणों ने बड़ी संख्या में भाग लिया और क्रिटिकल वाइल्ड लाइफ हैबिटैट के गठन का विरोध करते हुए चेतावनी दी कि पहले से ही पार्क के कारण बंदिशें झेल रहे ग्रामीण अब और अन्याय सहन नहीं करेंगे. जोशीमठ की ही नीति घाटी के फाक्ती जैसे कई गांवों के लोग पहले गर्मियों में ऊंचाई के क्षेत्रों में रहते थे. वहां गांववालों की अपनी भूमिधरी जमीनें भी हैं परंतु अब जंगली जानवरों के प्रकोप से कुछ सालों से ये ग्रामीण उन स्थानों पर न जाकर साल भर निचले स्थानों में स्थित शीतकालीन गांवों में ही रह रहे हैं. इसी तरह की समस्याएं फूलों की घाटी के रास्ते में स्थित पुलना और भ्योंडार गांवों में भी हैं. इन गांवों के लोगों को आशंका है कि उनके ऊंचाई के खेतों व बसाहटों को भी जानवरों की उपस्थिति दिखाकर कहीं क्रिटिकल वाइल्ड लाइफ में शामिल न कर लिया जाए. ग्रामीण तो सरकार द्वारा चुपचाप ही घोषित करने की आशंका भी व्यक्त कर रहे हैं. हालांकि नंदादेवी राष्ट्रीय पार्क के निदेशक वीके गांगटे वादा करते हैं कि ऐसा नहीं होगा. वे कहते हैं, ‘इस बार स्थानीय निवासियों की सहमति के बिना कोई निर्णय नहीं लिया जाएगा.’
वैसे देखें तो इन सीमांत गांववासियों पर सुसभ्य समाज द्वारा जबरन थोपी गई वन-नीतिजन्य परेशानियां कोई पहली बार नहीं आई हैं. चार दशक पहले नीति घाटी के ही रैणी गांव के जंगलों से लकड़ी काटने का ठेका एक बड़ी ‘भल्ला टिंबर कंपनी’ को दे दिया गया था. उस समय स्थानीय ग्रामीणों को पहले से ही अपने जंगलों की नीलामी का अंदेशा था, इसलिए कामरेड गोविंद सिंह ने अपने साथियों के साथ तपोवन-लाता-रैणी इलाके के गांवों में चिपको का नारा बुलंद कर दिया था. वनों की एकाधिकारवादी नीलामी के खिलाफ इससे पहले अप्रैल, 1973 में गोपेश्वर के पास मंडल व गुप्तकाशी नामक जगहों पर चिपको आंदोलन के प्रयोग सफल हो चुके थे. ग्रामीणों के विरोध व धरना प्रदर्शन के बाद भी रैणी में भल्ला कंपनी के सैकड़ांे मजदूर आ गए.फरवरी, 1974 में इस घाटी में चिपको आंदोलन में सक्रिय कार्यकर्ता चंडी प्रसाद भट्ट और उनके साथियों के भ्रमण से ग्रामीणों में और भी जोश भर गया था.
तब वन विभाग की प्राथमिकताओं में वन संवर्धन नहीं था, बल्कि उसका लक्ष्य होता था जंगलों से अधिक से अधिक राजस्व कमाना. स्थानीय जनता के विरोध के बाद भी अधिक राजस्व कमाने के लक्ष्य के साथ काम कर रहे वन विभाग के अधिकारी और सरकार किसी भी तरह भल्ला के ठेके को चलवाने के लिए आतुर थे. अधिकारियों ने रणनीति के तहत स्थानीय लोगों को बैठक के बहाने जोशीमठ व गोपेश्वर बुलाकर जंगलों में मजदूरों का प्रवेश करा दिया. रैणी गांव में उस दिन महिलाएं ही मौजूद थीं. मजदूरों को अपने जंगल का विनाश करते जाता देख उन्होंने पहली बार गौरा देवी के नेतृत्व में चिपको आंदोलन का वास्तविक प्रयोग किया. इस घटना से पहले चिपको संकल्पना के रूप में आमजन के बीच प्रसिद्ध हो चुका था परंतु इसके प्रयोग की जरूरत नहीं पड़ी थी. इस अहिंसक ऐतिहासिक प्रतिरोध ने गांव के जंगलों से भल्ला के कुल्हाड़ों और आरों को वापस बैरंग लौटा दिया और भोले-भाले गांववासियों की जीत हुई.
16 नवंबर, 1982 को अचानक इस क्षेत्र को नंदादेवी नेशनल पार्क में बदल दिया गया. इससे यहां के लोगों से पशु चराने के चरागाह और परंपरागत हक-हुकूक छिन गए. धन सिंह राणा बताते हैं , ‘वर्ष 1974 में जो विभाग पुलिस के बल पर अधिक राजस्व के लिए हमारे जंगलों को काटना चाहता था, जिसकी नजर में जंगल का मतलब सिर्फ टिंबर था, वह अब जैव विविधता और संरक्षण की बात करने लगा.’
पार्क बनाते समय सरकार ने इन ग्रामीणों से कई वादे भी किए थे पर वे अभी तक पूरे नहीं हुए. पार्क बनाकर ‘चिपको के इन सिपाहियों’ से ‘प्रकृति के नैसर्गिक संरक्षक’ की भूमिका छीन ली गई और इस खूबसूरत इलाके की रक्षा का जिम्मा वन विभाग को दे दिया गया. पार्क के कारण लगे प्रतिबंधों का सबसे अधिक असर अनुसूचित जाति के लोगों पर पड़ा, जिनके पास भूमि न के बराबर थी. वे वन आधारित काष्ठ कला के हुनर से स्थानीय लोगों की जरूरत की चीजें बनाकर रोजी-रोटी कमाते थे.
दूसरी तरफ पार्क बनने से बिचौलियों और शिकारियों की मौज आ गई क्योंकि अब इस दुर्गम, विशाल व वीरान हिमालयी क्षेत्र में कोई भी कानूनन प्रवेश नहीं कर सकता था. 632 वर्ग किमी क्षेत्रफल में फैले पार्क की सुरक्षा का जिम्मा केवल आधा दर्जन वन कर्मचारियों पर था. पहले इन दुर्गम स्थानों में स्थित चरागाहों में गर्मियों के दौरान स्थानीय लोग रहते थे जिनकी वहां नजर रहती थी. प्रतिबंधों के बाद अब वहां कोई नहीं था. इसका फायदा उठाकर तस्करों और अवैध शिकारियों ने इस संरक्षित पार्क को आखेट क्षेत्र में बदल डाला. इन सालों में पार्क क्षेत्र के आसपास कई शिकारी गिरोह भी पकड़े गए.
पार्क के अंदर हो रहे अवैध शिकार और चरान-चुगान व परंपरागत अधिकारों से वंचित होने की वजह से गांव के लोगों का गुस्सा बढ़ता जा रहा था. असंतोष को देखकर 1987 में तब जोशीमठ के ब्लॉक प्रमुख कामरेड गोविंद सिंह ने रैणी में एक बैठक बुलाई और स्थानीय जन जीवन पर नेशनल पार्क बनने के प्रभावों पर चर्चा कर सरकार को ज्ञापन भेजकर आगाह किया.
गांववालों को यह समझ में नहीं आ रहा कि सड़क के ऊपर जहां उनके लिए अत्यंत संवेदनशील क्षेत्र घोषित है वहीं सड़क के नीचे बन रही परियोजना में करोड़ों टन मिट्टी का कटान हो रहा है
कई वर्षों तक आम जन की आवाजाही पर रोक के बाद वर्ष 1993 में तीन सरकारी टीमें नंदादेवी के कोर जोन में गईं. इनमें से एक टीम में लातूर के तत्कालीन जिलाधिकारी प्रवीण परदेशी भी थे. इन टीमों के साथ स्थानीय लोग पोर्टर के रूप में गए थे. लाता के विजयपाल याद करते हैं, ‘पार्क में जगह-जगह जानवरों को मारने के लिए फांसी के फंदे व चूल्हे लगे थे.’ स्थानीय निवासी यह देखकर स्तब्ध थे कि एक ओर व्यापक जैव संरक्षण के हितों की दुहाई देकर उनके हक-हुकूकों को मारा जा रहा है और दूसरी ओर उनकी बहुमूल्य संपदा की लूट मची हैै. वे इससे भी नाराज थे कि तस्कर और बिचौलिए नंदादेवी के भीतर प्राकृतिक संपदा की लूट मचा रहे थे और देहरादून और जोशीमठ में विभागीय अधिकारियों द्वारा पाई गई सूचना के आधार पर कुछ राष्ट्रीय पत्रों के पत्रकार जनविरोधी संरक्षण नीति का विरोध करने वाले लाता, रैणी व तोलमा आदि गांवों को तस्करों का ठिकाना बता रहे थे.
लाता की सरस्वती देवी बताती हैं कि 1998 में मई महीने के दौरान ही भालू तथा बाघ ने गांवों की गौशालाएं तोड़कर उनके अनेक पालतू जानवरों को मार डाला. यहां वन विभाग द्वारा बहुप्रचारित सिद्धांत ने भी दम तोड़ दिया कि आसपास के वनों के कटने से ही जंगली जानवर गांवों या बस्तियों की तरफ बढ़ते हैं और वनों में भोजन कम होने के कारण ही वे पालतू जानवरों को मारते हैं. यहां तो सैकड़ों वर्ग किमी के संरक्षित क्षेत्र के भीतर से निकलकर जंगली जानवर अंधाधुंध नुकसान कर रहे थे. गांववालों का कहना है संरक्षित पार्क क्षेत्र में शिकारियों के जमावड़े के कारण ही ये जंगली जानवर डरकर गांवों की तरफ बढ़ रहे थे. उस समय भालू द्वारा मारे गए जानवरों का मुआवजा वन विभाग नहीं देता था.
मई, 1998 में हुए इन घटनाक्रमों ने सालों से ग्रामीणों के मन में घुट रहे असंतोष को विस्फोट का रूप दे दिया. कामरेड गोविंद सिंह के नेतृत्व में ग्रामीणों ने एकतरफा घोषणा कर दी कि यदि सरकार ग्रामीणों के परंपरागत हक-हुकूकों को बहाल नहीं करती तो वे 15 जुलाई, 1998 को प्रतिबंधित कोर जोन में प्रवेश कर अपने हक- हुकूकों को बहाल करेंगे. 31 मई, 1998 को लाता ग्राम सभा में हुई आम बैठक में परंपरागत हक-हुकूकों की बहाली के लिए ‘छीनो-झपटो आंदोलन शुरू करने’ जैसी बात स्वतः ही सामने आई.
पर सरकार कहां मानने वाली थी. उसने ग्रामीणों को कुचलने के लिए पुलिस और पीएसी की टुकड़ियों को लाता खर्क भेज दिया. वर्षों से सरकारी नीतियों से खार खाए ग्रामीण भी कहां डरने वाले थे. 15 जुलाई की सुबह गांवो में वे ही बूढ़े रह गए जो चल नहीं सकते थे. बाकी सारे ग्रामीण मवेशियों के कोर जोन की ओर बढ़ चले. पहली रात जब ग्रामीण भेल्टा के पड़ाव में विश्राम के लिए पहुंचे तो उन्होंने देखा कि पुलिस और पीएसी के जो जवान उन्हें खदेड़ने के लिए लाता खर्क गए थे वे उल्टियां करते हुए नीचे आ रहे हैं. दरअसल, ऊंचाई की परिस्थितियों से नावाकिफ ये जवान हाई एल्टिटयूड सिकनेस के शिकार हो गए थे. दूसरे दिन सैकड़ों ग्रामीणों ने प्रतिबंधित कोर जोन में प्रवेश किया.वनों के संरक्षण के लिए चिपको आंदोलन करने वाले ग्रामीण अब वन विभाग की अकर्मण्यता और बदइंतजामी के कारण छीनो-झपटो जैसे आंदोलन पर उतर गए थे. राणा बताते हैं कि छीनो-झपटो आंदोलन वास्तव में चिपको का ही व्यावहारिक पक्ष था. वे कहते हैं, ‘इन दोनों ही आंदोलनों को समाज के सभी वर्गों और राजनीतिक धाराओं का समर्थन था, इसीलिए ये सफल भी रहे.’
इसी के साथ ग्रामीणों को प्रतिबंध का पाठ पढ़ाने वाली सरकार व बड़ी पर्यटक कंपनियों की नजर नंदादेवी क्षेत्र में संभावित पर्यटन पर थी. 2001 में भारतीय पर्वतारोहण फांउडेशन द्वारा प्रसिद्व पर्वतारोही हरीश कपाड़िया के नेतृत्व में एक दल नंदादेवी पार्क क्षेत्र में भेजा गया. अध्ययन दल अभी नंदादेवी पार्क क्षेत्र में ही था कि अमेरिका व इंग्लैंड स्थित एक बड़ी ट्रेवल कंपनी केई एडवेंचर ने इंटरनेट पर विज्ञापन प्रकाशित कर दिया कि सरकार ने उसे नंदादेवी पार्क क्षेत्र मंे पर्यटन करवाने के लिए अधिकृत किया है. कंपनी ने यह भी दावा किया कि चिवांग मोटुप उनके भारतीय प्रतिनिधि हैं. मोटुप भी इस अध्ययन दल में शामिल थे. यानी अध्ययन दल के सदस्यों ने अध्ययन के बहाने नंदादेवी नेशनल पार्क से व्यापारिक फायदे उठाए. लाता निवासियों को आशंका थी कि पहले सरकार ने उन्हें हक-हुकूकों से भी महरूम रखा और अब पर्यटन खोलने के नाम पर इस बेमिसाल क्षेत्र के पर्यटन का काम किसी बड़ी कंपनी को दिया जा सकता है.
छीनो-झपटो और लोगों के लगातार विरोधों के बाद जानवरों के चरान के अधिकार भले ही बहाल न हुए हों पर 2001 में नंदादेवी राष्ट्रीय पार्क को सीमित मात्रा में पर्यटकों के लिए खोल दिया गया है. वनाधिकारियों के अनुसार पर्यटक अब डेब्रूगेठा तक जाकर लाता खर्क में कैंप कर सकते हैं. परंतु ग्रामीण सीमित दायरे में पार्क के कोर जोन को भी पर्यटन के लिए खोलने की मांग करते आए हैं. इस क्षेत्र में पर्यटन का व्यवसाय शुरू करने वाली संभावित बड़ी कंपनियों को टक्कर देने के लिए इन गांवों के ग्रामीण युवकों ने भी पर्यटन संबंधी प्रशिक्षण लिए हैं. ग्रामीण युवकों को वैश्विक पर्यटन से जोड़ने में लगे सुनील कैंथोला बताते हैं, ‘पहले से बेहतरीन गाइड माने जाने वाले इन गांवों के सभी तरह से प्रशिक्षित युवक अब पर्यटकों को बाहरी कंपनियों से अच्छी सेवाएं दे सकते हैं.’
सरकार की नीतियों का दोगलापन यहीं समाप्त नहीं होता. रैणी गांव में ही एक बड़ी जलविद्युत परियोजना निर्माणाधीन है. यह बात गांववालों की समझ के परे है कि सड़क के ऊपर जहां उनके लिए अत्यंत संवेदनशील क्षेत्र घोषित है वहीं सड़क के नीचे बन रही परियोजना में न केवल सुरंगें बन रही हैं बल्कि करोड़ों टन मिट्टी का कटान भी हो रहा है. तोलमा के गोविंद सिंह कहते हैं, ‘इन परियोजनाओं को स्वीकृति देते समय पर्यावरण का रोना रोने वाली यह लॉबी कहां मुंह छिपाकर बैठ जाती है?’ लाता के ग्रामीणों ने क्रिटिकल वाइल्ड लाइफ हैबिटैट समिति के सदस्यों को भेजी गई आपत्ति में दावे के साथ कहा है कि उनकी अधिसूचना के अनुसार पार्क की सीमा को धौली गंगा और ऋषि गंगा के संगम तक बताया गया है जबकि इसी सीमा के भीतर जलविद्युत परियोजनाओं का निर्माण किया जा रहा है. ग्रामीणों का आरोप है कि इन परियोजनाओं की डीपीआर व ईआरआर में जलविद्युत परियोजनाओं के स्थल नंदा देवी राष्ट्रीय पार्क से बाहर बताए गए हैं.
दोगली व्यवस्था से इन गांवों के लोगों का सरकार, अधिकारियों और विशेषज्ञों पर से भरोसा उठ गया है. लाता के ग्रामीणों का दावा है कि पिछले 30 सालों में दूसरे पड़ाव पर स्थित धरासी से आगे नंदादेवी पार्क क्षेत्र के भीतर वन अधिकारियों में से केवल एक अधिकारी विनीत पांग्ती ही बेस कैंप तक गए हैं. यही हाल वैज्ञानिकों का भी है. स्थानीय लोगों का सवाल है कि बिना व्यावहारिक ज्ञान के किस आधार पर ये वैज्ञानिक व अधिकारी इस क्षेत्र और यहां की वनस्पतियों व जीवों के बारे में यहां के निवासियों से अधिक जानने का दावा करते हैं. ग्रामीण बिना स्थानिक चर्चा के संसद में बने अधिनियम के औचित्य पर भी सवाल उठाते हैं.
ग्रामीणों के हिसाब से स्थानीय निवासी ही जंगलों और पर्यावरण को ज्यादा अच्छी तरह समझ पाएगा. उनकी हर मामले में स्पष्ट सोच है. स्थानीय ग्रामीणों ने सरकार को वैकल्पिक नीतियां तक दी हैं. लाता ग्राम सभा ने जन व वन संपदा की सुरक्षा के लिए ग्राम नीति बनाई है. इसी तरह नीति घाटी की सभी ग्राम सभाओं ने ‘पर्यटन के सामाजिक प्रभावों पर मनीला घोषणा पत्र-1997’ की तर्ज पर 2001 में ‘नंदादेवी जैव विविधता संरक्षण एवं ईको घोषणा पत्र’ बनाया है. स्थानीय लोग बड़ी कंपनियों को प्रोत्साहित करने की बजाय पर्यटन के संवर्धन के लिए ‘नीति घाटी पर्यटन विकास प्राधिकरण’ की मांग कर रहे हैं जिसमें 80 प्रतिशत स्थानीय जन प्रतिनिधियों का नेतृत्व हो और 10 प्रतिशत सरकार व विभिन्न स्रोतों के विशेषज्ञ हों. यहां के निवासी बड़े होटलों की बजाय स्थानीय घरों को ठीक करके पर्यटन को बढ़ावा देना चाहते हैं.