शिक्षा के मंदिर, शोषण की पूजा

पीलीभीत जिले के धर्मपाल ने जब इस साल लखनऊ के एसआर इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिले के लिए रजिस्ट्रेशन करवाया तो उन्हें अंदाजा नहीं था कि आगे उनका पाला किस मुसीबत से पड़ने वाला है. रजिस्ट्रेशन के वक्त उन्होंने 2,000 रु एडवांस जमा करवाए. अनुसूचित जाति का होने की वजह से धर्मपाल की फीस नाम मात्र की होनी चाहिए थी लेकिन कॉलेज ने उनसे 87,000 रु मांगे. आर्थिक स्थिति कमजोर होने  के चलते इतना रुपया दे पाना धर्मपाल के लिए संभव नहीं था.  उन्होंने फैसला किया कि वे अब उस कॉलेज में दाखिला नहीं लेंगे. उन्होंने ऐसे दूसरे कॉलेजों में एडमिशन के बारे में पता करना शुरू किया जहां अनुसूचित जाति के छात्रों को छूट मिल रही थी. लेकिन जब उन्होंने एसआर इंजीनियरिंग कॉलेज में जमा अपने मूल प्रमाणपत्र मांगे तो कॉलेज ने इन्हें देने से साफ इनकार कर दिया. धर्मपाल बताते हैं, ‘कॉलेजवालों ने कहा कि मुझे वहीं पढ़ना होगा वरना अपने कागजात भूल जाओ. कॉलेज ने फीस कुछ कम करने की पेशकश भी की.’ लेकिन धर्मपाल ने मना कर दिया तो कॉलेज वालों ने उन्हें दौड़ाना शुरू कर दिया. अब मूल कागजात के बिना दाखिला दूसरी जगह भी नहीं हो सकता था, इसलिए अपने पिता के साथ भागदौड़ में लगे धर्मपाल ने इस चक्कर में बहुत पैसा और वक्त बर्बाद किया.

यह अकेला उदाहरण नहीं है. कुछ ही सालों पहले लखनऊ के आजाद इंजीनियरिंग कॉलेज से पढ़ाई पूरी कर दिल्ली में एक सॉफ्टवेयर फर्म में काम कर रहे अभिषेक कसैले सुर में कहते हैं, ‘बचपन में पढ़ते थे कि गुरु भगवान से और विद्यालय मंदिर से बड़ा होता है, लेकिन मेरी तरह जिन्होंने भी यूपीटीयू (उत्तर  प्रदेश  प्राविधिक  विश्वविद्यालय) के किसी भी निजी कॉलेज से इंजीनियरिंग की पढ़ाई की होगी उनकी सोच अब जरूर बदल गई होगी.’

अभिषेक की बात उत्तर प्रदेश के निजी इंजीनियरिंग कॉलेजों को कटघरे में खड़ा करती है. उनका कहना गलत नहीं है. अगर आप उत्तर प्रदेश प्राविधिक विश्वविद्यालय से संबद्ध निजी इंजीनियरिंग कॉलेजों की पड़ताल करें तो पाएंगे कि ये कॉलेज शिक्षण की महान परंपरा के साथ जुड़े रहे मूल्यों और प्रतिष्ठा को तार-तार कर रहे हैं. पूरे उत्तर प्रदेश में सैकड़ों की तादाद में फैले ये इंजीनियरिंग कॉलेज मुनाफे की चाह में कुछ भी करने से नहीं कतराते. फिर चाहे वह विद्यार्थियों का शोषण हो या नियमों की अनदेखी.

जब एक विद्यार्थी से ही करीब बीस हजार रुपए अतिरिक्त फीस वसूली जा रही है तो सभी छात्रों को मिलाकर कॉलेज कुल कितनी अतिरिक्त फीस वसूल रहे होंगे इसका अंदाजा लगाया जा सकता है

लखनऊ स्थित श्री राम स्वरूप मेमोरियल कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग ऐंड मैनेजमेंट को ही लें. इस कॉलेज को कुछ समय पहले तक एक ऐसे निजी इंजीनियरिंग कॉलेज के रूप में जाना जाता था जहां पढ़ाई और प्लेसमेंट दोनों बेहतर होता है. लेकिन इस साल जुलाई में यहां तकरीबन एक करोड़ रुपए के फीस प्रतिपूर्ति घोटाले का पता चला. इसके बाद सूबे में निजी इंजीनियरिंग कॉलेजों को लेकर हड़कंप मच गया. हालांकि उत्तर प्रदेश में  निजी इंजीनियरिंग कॉलेजों के बारे में जुबानी तौर पर यह बात सभी जानते हैं कि अनुसूचित जाति के विद्यार्थियों की फीस को लेकर उनकी नीयत खराब रहती है. अनुसूचित जाति के विद्यार्थियों की फीस की प्रतिपूर्ति सरकार करती है, लेकिन इसके बावजूद ये कॉलेज इन विद्यार्थियों से भी फीस वसूल लेते हैं. राम स्वरूप मेमोरियल कॉलेज के खिलाफ सरकार को इसी धोखाधड़ी की शिकायत मिली थी. जांच कराए जाने पर शिकायत सही निकली. इसके बाद समाज कल्याण के प्रमुख सचिव बलविंदर कुमार ने निदेशक (समाज कल्याण) राम बहादुर को सभी कॉलेजों में फीस प्रतिपूर्ति की व्यापक जांच करने के आदेश दिए. बलविंदर कुमार के मुताबिक रामस्वरूप मेमोरियल कॉलेज ने पिछले सत्र में शासन से अनुसूचित जाति के विद्यार्थियों की फीस प्रतिपूर्ति भी हासिल की और साथ ही विद्यार्थियों से मोटी फीस भी वसूल कर ली जबकि ऐसे विद्यार्थियों से फीस नहीं ली जा सकती. घोटाले के बाद कॉलेज प्रबंधन के खिलाफ लखनऊ की चिनहट कोतवाली में समाज कल्याण विभाग की तरफ से मुकदमा दर्ज कराया गया है. इस कॉलेज की मान्यता समाप्त करने की प्रक्रिया भी चल रही है. कॉलेज से संपर्क करने पर कोई भी इस बारे में बात करने को तैयार नहीं होता.

भले ही इस घोटाले में अभी तक सिर्फ एक कॉलेज का नाम उजागर हुआ हो लेकिन छात्रों की मानें तो फीस में घोटाले का गोरखधंधा पूरे प्रदेश के कॉलेजों में चल रहा है. मेरठ के एक निजी कॉलेज से इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे गौरव बताते हैं, ’आपकी प्रतिपूर्ति फीस आ गई है या नहीं यह आपको तभी पता लग सकता है जब आप अकाउंट्स में बैठे बाबू को चाय-पानी दे दें. अगर आप यह मामूली खर्च नहीं उठाना चाहते तो आपको आपके हिस्से की फीस शायद ही मिल पाए. साथ ही अगर कोई फर्जी आय प्रमाण पत्र बनवा ले तो वह भी फीस प्रतिपूर्ति पा सकता है क्योंकि शायद हमारे यहां इनकी जांच नहीं होती.’ हालांकि घोटाले के सामने आने के बाद सरकार ने सामान्य वर्ग के सभी विद्यार्थियों के आय प्रमाण पत्रों की जांच शुरू की. इस दौरान हजारों की संख्या में प्रमाण पत्र फर्जी पाए गए. इसके बाद सामान्य वर्ग को मिलने वाली तकरीबन दो सौ करोड़ रुपए की प्रतिपूर्ति रोक दी गई.

दरअसल अनुसूचित जाति के विद्यार्थियों के अलावा सरकार की तरफ से सामान्य वर्ग के उन विद्यार्थियों की फीस की प्रतिपूर्ति भी की जाती है जिनके अभिभावकों की सालाना आय एक लाख से कम है. इसी प्रतिपूर्ति को हासिल करने के लिए फर्जी प्रमाण पत्र बनवाए जाते हैं. समाज कल्याण विभाग प्रदेश के इंजीनियरिंग कॉलेजों में तकरीबन 600 करोड़ रु की भारी-भरकम फीस प्रतिपूर्ति देता है. इस व्यवस्था में इतनी गंभीर अनियमितताएं सामने आने के बाद अब प्रतिपूर्ति की प्रक्रिया बदलने पर विचार हो रहा है.

निजी इंजीनियरिंग कॉलेज सिर्फ फीस प्रतिपूर्ति में ही धांधली नहीं कर रहे बल्कि शासन की तरफ से  निर्धारित फीस से भी बहुत ज्यादा बढ़ाकर फीस वसूल कर रहे हैं. मसलन अगर राम स्वरूप मेमोरियल कॉलेज को ही लें तो इस कॉलेज में निर्धारित फीस तकरीबन 82,000 रुपए है जबकि इसमें पहले वर्ष के विद्यार्थियों से 94,450 रुपए वसूले जाने की बात खुद सरकार की जांच में सामने आई है. बढ़ी हुई फीस लगभग हर निजी इंजीनियरिंग कॉलेज में वसूली जा रही है. जब एक विद्यार्थी से ही तकरीबन बीस हजार रुपए अतिरिक्त फीस वसूली जा रही है तो सभी छात्रों को मिलाकर कॉलेज कुल कितनी अतिरिक्त फीस वसूल रहे होंगे इसका अंदाजा लगाया जा सकता है. उत्तर प्रदेश प्राविधिक विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार प्रोफेसर यूएस तोमर भी इस बात को मानते हैं (देखें बॉक्स). प्रवेश के समय ही नहीं बल्कि अगले तीन सालों में भी छात्रों से निर्धारित फीस से बढ़ी हुई फीस ही वसूली जाती है. चूंकि विद्यार्थी बीच में कॉलेज नहीं छोड़ सकता, इसलिए उसे मजबूरी में यह बढ़ी हुई फीस देनी पड़ती है. तोमर शिकायत मिलने पर कार्रवाई की बात करते हैं लेकिन हकीकत यह है कि भविष्य के डर से कोई विद्यार्थी कॉलेज के खिलाफ मुंह खोल ही नहीं सकता. बरेली के श्री राममूर्ति स्मारक कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग ऐंड टेक्नोलॉजी के छात्र रह चुके शुभम तो निर्धारित फीस पर ही सवाल खड़ा करते हुए कहते हैं, ‘जब फीस इतनी ज्यादा ही रखनी थी तो निर्धारण की क्या जरूरत थी? मध्य प्रदेश जैसे दूसरे राज्यों में निजी कॉलेजों की फीस भी तीस-चालीस हजार से ज्यादा नहीं है जबकि उनका प्लेसमेंट भी ज्यादा अच्छा है.’

भारी-भरकम फीस अभिभावकों के सीने पर भी बोझ की तरह होती है. उनके मुताबिक बच्चों के भविष्य के लिए वे उनका एडमिशन तो करा देते हैं लेकिन हर साल फीस का इंतजाम करने में कमर टूट जाती है. चार साल की केवल ट्यूशन फीस तकरीबन चार लाख रु, इसके अलावा दूसरे खर्चे अलग. तब भी आपको नौकरी किस्मत का धनी और पढ़ाई में बहुत अच्छे होने की शर्त पर ही मिलेगा.

नए खुलने वाले कॉलेजों में तो बुनियादी सुविधाएं तक पूरी नहीं हैं. इन्हें एआईसीटीई की मान्यता कैसे मिल गई यह अपने आप में एक सवाल है

अनियमितताओं की कहानी यहीं खत्म नहीं होती. निजी कॉलेज जब पहले साल के विद्यार्थियों से भारी-भरकम फीस वसूलते हैं तो उसमें दस से पंद्रह हजार रु कॉशन मनी के रूप में लिए जाते हैं जो नियमानुसार पढ़ाई पूरी होने के बाद विद्यार्थी को वापस मिल जाने चाहिए. लेकिन यह कॉशन मनी भी सामान्यतः किसी को वापस नहीं मिलती. यह एक अघोषित नियम है. आपको कॉशन मनी उसी दशा में वापस मिल सकती है जब आप इसके लिए लंबी अदालती लड़ाई लड़ने को तैयार हों. निजी कॉलेज सामान्यतः कॉशन मनी वापस नहीं देते, यह बात उत्तर प्रदेश प्राविधिक विश्वविद्यालय से भी छिपी नहीं है. कोर्ट में और विश्वविद्यालय के पास लगातार आ रही इस तरह की शिकायतों के बाद ही कुछ समय पहले इस विषय में एक सर्कुलर भी जारी किया गया था कि विद्यार्थियों को उनकी कॉशन मनी हर हाल में वापस मिलनी चाहिए और ऐसा न करने वाले कॉलेजों के खिलाफ कार्रवाई की जाएगी.  लेकिन इसके बाद भी निजी कॉलेजों में कॉशन मनी सामान्य तौर पर वापस नहीं मिलती. कॉलेज कॉशन मनी के लिए झूठे फाइन और ड्यूज बनाने से भी नहीं चूकते. दस हजार रु प्रति विद्यार्थी के हिसाब से पूरे कॉलेज की कॉशन मनी एक अच्छी-खासी रकम होती है जिसे कॉलेज हजम कर जाते हैं. अंधी मुनाफाखोरी के चक्कर में इन कॉलेजों को नियमों की भी कोई परवाह नहीं रहती. लखनऊ स्थित सरोज इंस्टिटयूट ऑफ टेक्नोलॉजी ऐंड मैनेजमेंट से कई सालों पहले डिग्री हासिल कर चुकी दिव्या के साथ भी यही हो रहा है. उनकी कॉशन मनी उन्हें डिग्री मिलने के बाद भी वापस नहीं मिली है जबकि इसके लिए वे कई बार कॉलेज को प्रार्थनापत्र दे चुकी हैं. वे कॉशन मनी की मूल रसीद भी दिखाती हैं. दिव्या के मुताबिक वे अकेली नहीं हैं जिनकी कॉशन मनी नहीं लौटाई गई. हालांकि इस कॉलेज के रजिस्ट्रार सैयद हुसैन नासिर सईद इससे इनकार करते हुए कहते हैं कि डिग्री मिलने के वक्त ही हर विद्यार्थी को उसकी कॉशन मनी भी वापस कर दी जाती है.

इन कॉलेजों में एक बड़ा घपला इनमें पढ़ाने वाले शिक्षकों के वेतन और इनकी अर्हता में भी है. एआईसीटीई ने इंजीनियरिंग कॉलेजों में पढ़ाने वाले शिक्षकों के लिए वेतनमान और अर्हताएं निर्धारित कर रखी हंै, लेकिन निजी इंजीनियरिंग कॉलेज पैसा बचाने के चक्कर में इनका भी पालन नहीं करते. कॉलेज नए और गैरअनुभवी शिक्षकों को निर्धारित वेतनमान से बेहद कम वेतन पर भर्ती कर लेते हैं जबकि छठे वेतन आयोग की सिफारिशों के बाद नियमानुसार इन्हें इससे कहीं ज्यादा तनख्वाह मिलनी चाहिए. तोमर कहते हैं, ‘छठे वेतन आयोग के आने के बाद लेक्चरर से प्रोफेसर तक सभी की तनख्वाह बढ़ी है. शिक्षकों को उनका निर्धारित वेतन ही मिलना चाहिए. अगर कहीं ऐसा नहीं हो रहा तो शिक्षक उसकी शिकायत कर सकता है.’

लेकिन शिकायत करना इतना आसान नहीं है. नाम न छापने की शर्त पर लखनऊ स्थित बाबू बनारसी दास इंजीनियरिंग कॉलेज के एक शिक्षक बताते हैं कि नए लेक्चरर  की भर्ती सात-आठ हजार रु पर ही की जाती है. अब इसकी शिकायत अगर कहीं करें तो नौकरी तो जाएगी ही साथ ही आगे भी टीचिंग के सारे रास्ते बंद हो जाएंगे. एक दूसरे कॉलेज में पढ़ाने के लिए इंटरव्यू दे चुके आवेदनकर्ता बताते हैं, ‘वहां मुझे टीचिंग के आठ हजार ऑफर किए गए, लेकिन कहा गया कि आपकी पोस्ट लैब असिस्टेंट की रहेगी.’ बेरोजगारी ज्यादा होने और कॉलेजों की संख्या बढ़ने की वजह से इंजीनियरिंग डिग्री धारकों का एक बड़ा समूह निजी कॉलेजों में पढ़ाने का विकल्प चुनता है. कॉलेज भी उनकी मजबूरी को भांपकर उन्हें निर्धारित वेतन न देकर बेहद कम वेतन देते हैं और उनका शोषण करते हैं. शिक्षकों के वेतन के मामले में ही नहीं बल्कि उनकी अर्हता के मामले में भी कॉलेजों का रवैया ढुलमुल है. कायदे से चले तो सिर्फ बीटेक किया हुआ व्यक्ति किसी कॉलेज में विभागाध्यक्ष नहीं हो सकता, लेकिन सही से खोजने पर हमें ऐसा भी दिखाई दे ही जाता है.

उत्तर प्रदेश में निजी इंजीनियरिंग कॉलेजों में विद्यार्थियों का किस कदर शोषण हो रहा है इसका अंदाजा लगाने के लिए प्रणव की दास्तान ही काफी है. गाजियाबाद स्थित इंस्टिटयूट ऑफ मैनेजमेंट एजुकेशन से कुछ साल पहले पढ़ाई पूरी करने वाले प्रणव के साथ उनके कॉलेज ने जो किया है उससे वे पूरी तरह टूट चुके हैं. प्रणव के मुताबिक जब उन्होंने कॉलेज से अपनी मार्कशीट मांगी तो पहले तो कॉलेज की तरफ से उन्हें यह कहकर गुमराह किया जाता रहा कि उनकी मार्कशीट अभी तक प्राविधिक विश्वविद्यालय से आई ही नहीं है, लेकिन जब विश्वविद्यालय से उन्हें पता चला कि उनकी मार्कशीट कॉलेज में ही है तो उन्होंने फिर से कॉलेज से अपनी मार्कशीट की मांग की. अब प्रणव को पता चला कि उन्हें मार्कशीट क्यों नहीं दी जा रही थी. उनके कॉलेज के तत्कालीन रजिस्ट्रार ने उनसे मार्कशीट देने के बदले में पैसे की मांग की. प्रणव के मुताबिक अपने रजिस्ट्रार के इस तरह के आचरण से वे बहुत आहत हुए लेकिन फिर भी मजबूरी होने की वजह से उन्होंने रजिस्ट्रार को पैसे देकर अपनी मार्कशीट ले ली. मार्कशीट तो उनको मिल गई लेकिन डिग्री पूरी होने के कई सालों बाद भी उन्हें अपनी डिग्री नहीं मिली है. प्रणव को आशंका है कि डिग्री के लिए भी उनसे पैसा मांगा जाएगा. प्रणव से मिलती-जुलती कई कहानियां हैं. संस्थान में ऐसे कई विद्यार्थी और भी हैं. कुछ समय पहले प्रणव ने अन्य साथियों के साथ मिलकर इस भ्रष्टाचार का विरोध करना शुरू किया तो उन्हें पता चला कि वे जिस कंपनी में काम करते हैं उससे कॉलेज ने कहा कि वह प्रणव के कागजात की जांच कर ले.

साफ है कि स्थिति बहुत गंभीर है. ये कॉलेज उत्तर प्रदेश प्राविधिक विश्वविद्यालय से संबद्ध तो हैं लेकिन असल में इनका रवैया किसी तानाशाह जैसा है. इनके अपने अघोषित नियम हैं जो विश्वविद्यालय के नियमों को ठेंगा दिखाते हैं. इन अघोषित नियमों की आड़ में यहां पढ़ने वाले विद्यार्थियों का गंभीर शोषण किया जा रहा है. लखनऊ के सरोज इंस्टिटयूट ऑफ टेक्नोलॉजी ऐंड मैनेजमेंट में पढ़ने वाले एक विद्यार्थी बताते हैं कि उनके कॉलेज में स्थानीय विद्यार्थियों के लिए बस सेवा और बाहर के विद्यार्थियों के लिए होस्टल लेना अनिवार्य है. इन दोनों सेवाओं की फीस दस से बारह हजार रुपए होती है. हालांकि यह कोई लिखित नियम न होकर अघोषित नियम है. वे बताते हैं, ‘इसी नियम की वजह से लखनऊ निवासी होने के बावजूद और घर में मोटर साइकिल खड़ी होने के बावजूद मुझे कॉलेज की बस से आना-जाना पड़ता है. इसमें पैसे का नुकसान तो है ही साथ ही बस के हिसाब से चलना पड़ता है. भले ही क्लास जल्दी छूट जाए या देर तक चलनी हो.’ उधर, इस मुद्दे पर कॉलेज के रजिस्ट्रार सैयद हुसैन नासिर सईद कहते हैं, ‘कॉलेज विद्यार्थियों को प्रोत्साहित तो जरूर करता है कि वे कॉलेज की बस से आएं एवं होस्टल में रहें ताकि वे सुरक्षित रह सकें लेकिन ऐसा करना अनिवार्य कतई नहीं है.’

रजिस्ट्रार भले ही कुछ भी कहें लेकिन हकीकत उलट ही है. यह सिर्फ एक कॉलेज नहीं बल्कि ज्यादातर की कहानी है. बहुत-से कॉलेजों में बुक बैंक के नाम पर हर साल भारी-भरकम रकम विद्यार्थियों से जमा कराई जाती है. साल खत्म होने पर विद्यार्थियों को ये किताबें तो वापस करनी ही पड़ती हैं लेकिन अकसर उन्हें बुक बैंक का पैसा वापस नहीं मिलता. यहां तक कि फाइन के रूप में भी ये कॉलेज विद्यार्थियों से अंधाधुंध पैसा वसूलते हैं. फाइन सैकड़ों में नहीं हजारों में लगता है और एक नियत तारीख तक जमा न करने पर फाइन पर भी फाइन लगता है और साथ ही आपको परीक्षा देने से भी रोका जा सकता है. चूंकि पढ़ाई बीच में नहीं छोड़ी जा सकती, इसलिए छात्रों को मजबूरी में यह फाइन भरना पड़ता है. ज्यादातर कॉलेजों के शिक्षक अच्छे इंटरनल मार्क्स के बदले में विद्यार्थियों से सीधे-सीधे उनसे ट्यूशन लेने या पैसे देने की मांग करते हैं. चूंकि इंटरनल मार्क्स बहुत अहम होते हैं, इसलिए विद्यार्थियों को सर जी से ट्यूशन लेनी ही पड़ती है और जो ऐसा नहीं करते उन्हें इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ता है. लखनऊ के एक इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्र और सीतापुर के निवासी वरुण ने भी अपने कॉलेज के एक टीचर से ट्यूशन पढ़ी है और बदले में उन्हें बहुत अच्छे इंटरनल मार्क्स मिले हैं. लेकिन वरुण इसे एक चौंकाने वाले नजरिए से देखते हैं. वे कहते हैं, ‘कॉलेज में तो वैसे भी कहीं पढ़ाई नहीं होती. पढ़ना अपने आप ही पड़ता है.  पहले लखनऊ में कमरा लेकर रहता था तो महीने में लगभग पांच हजार खर्च हो जाते थे. सर से पंद्रह सौ की ट्यूशन पढने के बाद इंटरनल मार्क्स की तो गारंटी हो ही गई. अब रेलवे के सीजनल टिकट पर रोज लखनऊ आना-जाना बेहतर विकल्प है. इस तरह कम पैसों में काम हो जाता है.’

अलग-अलग जरियों से पैसे की इतनी भारी-भरकम वसूली के बावजूद भी ऐसा नहीं है कि इन कॉलेजों में पढ़ाई अथवा प्लेसमेंट का स्तर बहुत अच्छा हो. गिने-चुने निजी कॉलेजों को छोड़कर बाकी सब इसमें फिसड्डी ही हैं. अच्छी कंपनियों में ठीक समय पर प्लेसमेंट न मिलने की वजह से कई छात्रों को मजबूरी में इन कॉलेजों में ही औने-पौने वेतन पर शिक्षण का विकल्प चुनना पड़ता है ताकि पढ़ाई के समय लिए गए कर्ज की किश्त अदा की जा सके. हैरत नहीं कि उत्तर प्रदेश की इस बार की बीटीसी प्रशिक्षुओं की लिस्ट में भी कई बीटेक डिग्री वाले हैं. नए खुलने वाले कॉलेजों में तो बुनियादी सुविधाएं तक पूरी नहीं हैं. इन्हें एआईसीटीई की मान्यता कैसे मिल गई यह अपने आप में एक सवाल है. एआईसीटीई का दौरा कॉलेजों में हर साल होता है. कॉलेज भी लगातार खुल रहे हैं. ऐसा कहा जा रहा है कि जिस किसी के पास भी अंधी कमाई है वह कॉलेज खोले दे रहा है. उधर, इस सत्र की काउंसलिंग के बाद बी फार्मा की तो ज्यादातर और बीटेक की भी बहुत सारी सीटें खाली रह गईं. वजह साफ है, नए कॉलेजों में एडमिशन का खतरा कोई भी मोल नहीं लेना चाहता.

इसके अलावा ये कॉलेज इतना पैसा लेने के बाद भी किसी तकनीकी गड़बड़ी की दशा में विद्यार्थी से बिलकुल अलग खड़े रहते हैं और उनका बिलकुल भी सहयोग नहीं करते. चाहे नंबरों में गड़बड़ी हो या परीक्षाफल न आना. हर परेशानी के हल के लिए विद्यार्थियों को खुद ही लखनऊ स्थित विश्वविद्यालय के चक्कर काटने पड़ते हैं और वहां काम करा पाना भी किसी युद्ध को जीतने से कम नहीं है. यह एक ऐसी समस्या है जिसका दंश हर विद्यार्थी कभी न कभी जरूर झेलता है. मुजफ्फरनगर के सनातन धर्म कॉलेज के छात्र रह चुके विपुल सिंह को अपने कॉलेज से सिर्फ यही एक शिकायत है कि मुश्किल के वक्त कॉलेज ने उनका साथ बिलकुल नहीं दिया जबकि गलती कॉलेज की ही थी उनकी नहीं. असल में कॉलेज ने विपुल के पूरे बैच को एक ऐसे विषय का चुनाव करवा दिया था जो उनके लिए निर्धारित था ही नहीं. इसके बाद पूरे बैच का परीक्षाफल रुक गया था. लेकिन कॉलेज ने इस समस्या के हल के लिए रत्ती भर भी कोशिश नहीं की. विद्यार्थी बार-बार लखनऊ दौड़ते रहे. लंबे समय तक भारी विरोध और दौड़-धूप करने के बाद इस समस्या के हल के लिए एक कमेटी बैठाई गई जिसने विद्यार्थियों का परीक्षाफल घोषित किया. कॉलेज के साथ विपुल की बहुत-सी सुनहरी यादें जुड़ी हैं, लेकिन इस एक बात के याद आते ही उनका मन खट्टा हो जाता है.

यूपीटीयू से संबद्ध इन निजी कॉलेजों में जो कुछ हो रहा है वह तालीम की अजीम रिवायत को शर्मसार तो करता ही है, सूबे के शिक्षा तंत्र और निजाम पर भी सवालिया निशान भी लगा देता है.