पहले आरा फोन मिलाया, फिर पटना, रांची और अंत में दिल्ली. कुंवर सिंह के नाम से फाउंडेशन चलाने वाले विशेषज्ञों से भी तसदीक करनी चाही. जानना था कि यह धरमन कौन थीं, बाबू कुंवर सिंह से उनका क्या रिश्ता था. भोजपुर के इलाके में कई संभ्रांतों से पूछा, लेकिन वे धरमन के बारे में बात करने से हिचकते दिखे.हालांकि भोजपुर का गंवई इलाका और लोकमानस डंके की चोट पर एलान करता है कि धरमन अपने जमाने की मशहूर नचनिया (तवायफ) थीं और बाबू कुंवर सिंह उनसे बेपनाह मोहब्बत करते थे. लोकमानस में रचे-बसे किस्से के अनुसार एक बार जब अंग्रेजों ने सार्वजनिक रूप से आयोजित मुजरे में कुंवर सिंह की खिल्ली उड़ाने की कोशिश की, तभी से धरमन का स्नेह कुंवर सिंह से बढ़ा. कुंवर सिंह को प्रेम हुआ. बाद में धरमन उनकी सहयोगी और जीवनसंगिनी भी बनीं. अखिल विश्व भोजपुरी विकास मंच के प्रमुख और भोजपुरी जमात में भाईजी भोजपुरिया के नाम से मशहूर बीएन तिवारी कहते हैं कि मुजरे वाला वाकया पटना में हुआ था और अब उस जगह का नाम बांकीपुर क्लब है.
धरमन ने जिंदगी भर की अपनी सारी कमाई बाबू कुंवर सिंह को लड़ाई लड़ने के लिए दे दी थी. बाद में जीवनसंगिनी के तौर पर कुंवर सिंह को नैतिक सहारा भी दिया. लेकिन यह सच किताबी इतिहास के किसी भी अध्याय में दर्ज नहीं हो सका. 1857 के गदर पर, बाबू कुंवर सिंह पर, अनाम-गुमनाम नायकों पर, राष्ट्रप्रेमी तवायफों पर न जाने कितनी किताबें आईं, अनुसंधान हुए, लोकगीत रचे गए, उनसे जुड़े लोक आख्यान हैं, किंवदंतियां हैं, लेकिन धरमन शायद ही कहीं दिखती हों! ऐसा क्यों, यह एक यक्ष प्रश्न है.
भारत सरकार के प्रकाशन विभाग द्वारा 1857 के अमर सेनानी नामक शृंखला के तहत आई पुस्तक ‘वीर कुंवर सिंह’ में अब जाकर स्वीकारा गया है कि धरमन, कुंवर सिंह की दूसरी पत्नी थीं. पहली पत्नी राजपूत परिवार की थी. यह किताब रश्मि चौधरी ने लिखी है. इतिहास संग्रह में गहरी रुचि रखने वाले मशहूर कलेक्टर (संग्रहकर्ता) कर्नल सुरेंद्र सिंह बख्शी कहते हैं, ‘हम जब कुंवर सिंह की बात करते हैं तो यह क्यों भूल जाते हैं कि भारत में महान प्रतापी सिख राजा रंजीत सिंह भी हुए थे जो मोरां नामक तवायफ से प्यार करते थे और उससे ब्याह करने के लिए उन्होंने अपनी पूरी शानो-शौकत ताक पर रख दी थी. क्या महाराजा रंजीत सिंह को इतिहास ने इसलिए खारिज कर दिया कि वे मोरां से प्रेम कर बैठे!’
आरा में उनके नाम पर दरमन चौक तो है ही साथ में धरमन मस्जिद भी है. मस्जिद के मौलाना शमशूल हक जिनकी उमर तकरीबन 50 साल है, बताते हैं, ‘बाबू कुंवर सिंह ने धरमन से ज्यादा लगाव होने की वजह से उनके नाम पर यह मस्जिद बनवाई थी. यहां धरमन और करमन दो बहनें रहती थीं. दूसरी बहन के नाम पर भी उन्होंने एक टोला बसाया था- करमन टोला. एक हिंदू राजा के हाथों बनी होने के कारण इस मस्जिद पर पहले नमाज नहीं पढ़ी जाती थी पर अब सारे मुसलिम यहां नमाज अदा करते हैं.’ कुंवर सिंह और धरमन की शादी के सवाल पर शमशूल हक चुप्पी साध लेते है. वे कहते हैं कि इस बारे में कोई उनके पास ंकोई पुख्ता जानकारी नहीं है. धरमन के नाम से आज तक जो दुराव-बचाव-अलगाव रखा जा रहा है उसने एक महान प्रेम कथा को ही नहीं बल्कि अकबर-जोधा की तरह दो धर्मों के मिलाप की एक अनूठी कहानी को भी निगल रखा है.