फिर सरकेगी सरकार

राजनीतिक विडंबनाओं से घिरे झारखंड में दस साल में आठवीं बार मुख्यमंत्री का बदलाव हुआ है. जिन मसलों पर तीन माह पहले भाजपा ने शिबू की सरकार गिरा दी थी, वह मसला अपनी जगह है लेकिन उसी कॉकटेल के सहारे फिर सत्ता का जश्न मना लिया गया. अजब कारनामों के लिए मशहूर गजब प्रदेश में बनी सरकार के भूत, वर्तमान और भविष्य पर अनुपमा की रिपोर्ट

और अंततः अजब कारनामों से भरे गजब प्रदेश झारखंड में फिर से सरकार बन ही गई. फिर वही गठबंधन, वही कुनबा, जो इसके पहले भी सरकार चला रहा था. भारतीय जनता पार्टी, आजसू और झारखंड मुक्ति मोर्चा. फर्क सिर्फ इतना रहा कि इस बार मुखिया बदला है, पहले शिबू सोरेन मुख्यमंत्री थे, अब अर्जुन मुंडा. सरकार कितने दिन चलेगी यह कोई नहीं बता सकता.

झारखंड में सरकारों के भविष्य को लेकर कोई कुछ बता भी नहीं सकता. इस मामले में यह अनोखा प्रदेश है. राज्य गठन के दसवें साल में है, आठवीं बार मुख्यमंत्री के पद पर शासक का बदलाव हो रहा है. किसी और की बात क्या की जाए, खुद झारखंड के सबसे बड़े नेता और इस सरकार की स्टीयरिंग अपने हाथ में रखने वाले पूर्व मुख्यमंत्री शिबू सोरेन तहलका से बातचीत में कहते हैं, ‘यहां कोई सरकार कभी अपना कार्यकाल पूरा नहींे कर सकती.’ अब शिबू की बात मान लें तो इस सरकार का भी हश्र वैसा ही होने वाला है, जैसा कि पहले एक-एक कर सभी सरकारों का होता रहा है. शिबू की बात छोड़ भी दंे तो आजसू के दूसरे नंबर के नेता और फिर से मंत्री पद पर विराजमान होने की कतार में लगे चंद्रप्रकाश चौधरी भी सरकार के भविष्य पर बहुत विश्वास के साथ कुछ नहीं कहते. हंसते हुए कहते हैं, ‘देखिए, पूरा होइए जाएगा कार्यकाल…!’

लगभग तीन माह पहले तक इसी गठबंधन के सहारे शिबू की सरकार चल रही थी. कथित मान-सम्मान और विश्वास को झटका लगने की दुहाई देते हुए भाजपा ने शिबू को दगाबाज, धोखेबाज नेता करार दिया जिसके बाद सरकार गिर गई. लेकिन अब अर्जुन मुंडा को मुख्यमंत्री बनाने अथवा बनवाने के लिए ‘पार्टी विद ए डिफरेंस’ यानी भाजपा ने सारे नियम, आदर्श, सिद्धांत ताक पर रख दिए. भाजपा के कई दिग्गज दिल्ली में छटपटाते रहे लेकिन अध्यक्ष नितिन गडकरी ने विदेश से ही सरकार बनाने के लिए हरी झंडी दे दी. भाजपा संसदीय बोर्ड ने जिस शिबू के पाला बदलने के बाद उनकी सरकार को हटाने का निर्णय लिया था, उस संसदीय बोर्ड का फैसला धरा का धरा रह गया.

बकौल शिबू वे आज भी केंद्र में यूपीए के साथ हैं. केंद्र मंे यूपीए के साथ होने की बात कहने वाली पार्टी के साथ मिलकर राज्य में भाजपा द्वारा सरकार बनाने की हड़बड़ी ही वह अकेली चीज है जो इस बार की सरकार के लिए नई है. ऐसा क्यों, यह सवाल आजकल प्रदेश में अहम बना हुआ है. हर जगह एक ही चर्चा है कि यदि सरकार के लिए इन्हीं दलों का कॉकटेल बनना था तो फिर उस वक्त नौटंकी की जरूरत ही क्या थी! और फिर इस दरम्यान ऐसा क्या हो गया कि जिससे शिकायत थी, उसी से मोहब्बत हो गई.

अब शिबू की बात मान लें तो इस सरकार का भी हश्र वैसा ही होने वाला है, जैसा कि पहले एक-एक कर सभी सरकारों का होता रहा है

राज्य के पहले मुख्यमंत्री और झारखंड विकास मोर्चा (झाविमो) के  अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी कहते हैं, ‘छह माह पहले भी इसी गठबंधन की सरकार बनी थी, चार माह तक ही चल सकी. ढाई माह से राष्ट्रपति शासन है. अब फिर वही गठजोड़ सत्ता में है. वह सरकार क्यों गिरी थी और ढाई माह में कैसे सारे मनमुटाव दूर हो गए, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है.’ मरांडी आगे कहते हैं कि औद्योगिक घरानों ने सरकार बनवाने में कीमत लगाई है, खरीद-फरोख्त की भी राजनीति हुई है. मैं खरीद-फरोख्त की राजनीति नहीं कर सकता था, इसलिए मौका आने पर भी 25 विधायकों के होते हुए भी मैंने सरकार बनाने की पहल नहीं की.

लेकिन राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के विधायक दल की नेता अन्नपूर्णा देवी इस सरकार के गठन के लिए मरांडी को ही कटघरे में खड़ा करती हैं. वे कहती हैं, ‘कांग्रेस और झाविमो चाहते तो सरकार पहले ही बन सकती थी. यदि कांग्रेस के नेतृत्व में ही सरकार बन जाती तो क्या हो जाता? वे बाबूलाल पर परोक्ष तरीके से निशाना साधते हुए कहती हैं, ‘ कहने को तो यहां कुछ साफ-सुथरी छवि वाले नेता भी हैं लेकिन मौका मिलने पर सबका स्वार्थ नजर आने लगता है.’

जाहिर-सी बात है कि इस नए ढांचे को सरकार की बजाय अपने-अपने स्वार्थों और मजबूरियों में जुटी एक भीड़ कह सकते हैं. झारखंड सरकार के एक बड़े अधिकारी कहते हैं, ‘चूंकि राष्ट्रपति शासन में काम तेजी से हो रहा था, भ्रष्टाचार पर शिकंजा कसने का सिलसिला शुरू हो चुका था और कई चीजें पटरी पर आने लगी थीं, इसलिए गैरकांग्रेसी दलों में छटपटाहट होना स्वाभाविक था. पूर्व मुख्यमंत्रियों की सुविधा का छिन जाना और विधायकों के फंड के उपयोग पर रोक लग जाना सभी को परेशान कर रहा था. ऐसे में दलगत भावनाओं से परे जाकर हर छटपटाता हुआ विधायक बस किसी तरह, किसी भी सरकार के बनने की बाट जोह रहा था. इसलिए इस बार अर्जुन मुंडा के नेतृत्व में सरकार बनने में न कोई हंगामा हुआ, न विरोधी गुटों के नेताओं की ओर से ही रटे-रटाए वाक्य दुहराए गए. वरना तीन माह पहले तक झामुमो के नेता भाजपाइयों के खिलाफ आग उगल रहे थे तो भाजपा के नेता झामुमोवालों को पानी पी-पीकर कोस रहे थे.’

झामुमो से राजनीतिक जीवन की शुरुआत करके भाजपा में कद्दावर नेता बनने वाले अर्जुन मुंडा को चालाक नेता और शासक माना जाता है. भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष रघुवर दास को किनारे लगाकर जब से अर्जुन मुंडा ने सरकार बनाने की कमान अपने हाथों में ली थी, तभी से यह तय माना जा रहा था कि सरकार बनेगी. अब यह भी माना जा रहा है कि अर्जुन मुंडा हैं तो वे इस भानुमति के कुनबे को चला भी लेंगे. लेकिन चुनौतियां इतनी हैं कि उनके लिए भी ऐसा करना आसान नहीं होने वाला है. इस अजीबोगरीब गठबंधन के पेंच उन्हें हर समय परेशान करते रहेंगे.

फिलहाल यह सरकार भाजपा के 18, जदयू के दो, झामुमो के 18, आजसू के पांच और दो निर्दलीय विधायकों के गणित से चलने को तैयार है. दूसरी ओर शासन की चुनौतियां सुरसा की तरह मुंह बाए खड़ी हैं. पूरा राज्य सूखे की चपेट में है. केंद्र से पैसा लेकर राहत कार्य सही ढंग से पहुंचवाना बड़ा काम माना जाएगा. राज्य में विकास योजनाओं पर ब्रेक लगा हुआ है. सालाना बजट की चौथाई राशि भी अब तक खर्च नहीं की जा सकी है जबकि वित्तीय वर्ष के छह माह गुजर चुके हैं. पेसा कानून के तहत पंचायत चुनाव करा लेना मुंडा के सामने बड़ी चुनौती है.  इन सबके साथ नक्सलवाद शाश्वत समस्या के तौर पर रहेगा ही.

झामुमो प्रमुख शिबू सोरेन के पुत्र और राज्य के नए उपमुख्यमंत्री हेमंत सोरेन कहते हैं कि हमारी प्राथमिकता पंचायत चुनाव कराने की ही है, हम इसे अच्छे से कराएंगे. इस सरकार के गठन पर हेमंत कहते हैं कि जनता नहीं चाहती कि एक बार फिर चुनाव का बोझ उसके माथे पर पड़े, इसके लिए सरकार का बनना बहुत जरूरी था. ‘हम भाजपा के साथ फिर से सरकार बना रहे हैं तो इस पर बहुत सवाल उठाने की जरूरत नहीं क्योंकि हमारे लिए दोनों राष्ट्रीय दल यानी भाजपा और कांग्रेस एक ही तरह की पार्टी हैं’ भाजपा के साथ मिलकर फिर से  सरकार बनाने पर सोरेन कहते हैं.

चुनौतियों से निपटना और विकास को गति देना अलग मसला है. झारखंड में फिर से वही बड़ा सवाल सामने है कि बकरे की मां आखिर कब तक खैर मनाएगी. यानी कि सरकार कितने दिन और चलेगी?

सदन में विपक्षी नेता कांग्रेस के विधायक राजेंद्र सिंह कहते हैं कि अभी हम छह माह तक अविश्वास प्रस्ताव पेश नहीं कर सकते लेकिन इन दलों के गठबंधन में ही इतने कलह हैं कि इसका भविष्य बेहतर नहीं कहा जा सकता.

क्या होगा, यह आने वाला समय बताएगा, फिलहाल राज्य अपने स्थापना के दशक वर्ष में आठवें मुख्यमंत्री का आश्वासन सुनने को तैयार है, काम को परखने को तैयार है और बदलाव को देखने के लिए बेताब है.