पस्त हौसले, बेहाल पुलिस

‘आपने मेरे लिए कुछ नहीं किया. पुलिस और सरकार ने मुझे बचाने के लिए कुछ नहीं किया. मेरी रिहाई के लिए मेरे परिवार ने नक्सलियों से बातचीत की. मैं आपसे हाथ जोड़ के विनती कर रहा हूं कि मुझे घर जाने दें. मैं आपके साथ पुलिस स्टेशन नहीं जाऊंगा. मैं पुलिस की नौकरी नहीं करना चाहता.’

6 सितंबर, 2010 को सब इंस्पेक्टर अभय यादव ने यह बात तब कही थी जब नक्सलियों द्वारा छोड़े जाने के बाद वे घर जा रहे थे और लखीसराय के पुलिस अधीक्षक रंजीत कुमार मिश्रा ने बीच रास्ते में ही उन्हें रोककर उनसे पुलिस स्टेशन चलने को कहा था. विरोध के बावजूद मिश्रा, यादव और उनके साथ छोड़े गए दो अन्य पुलिसकर्मियों रुपेश सिन्हा और मोहम्मद एहसान खान को जबर्दस्ती पुलिस स्टेशन ले गए. इससे पहले ये तीनों आठ दिन तक सीपीआई (माओवादी) की सशस्त्र इकाई पीपल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी (पीएलजीए) के पास बंधक रहे थे.

अभय ने जो कहा उससे बिहार पुलिस के मनोबल का संकेत मिलता है. अभय भले ही पुलिस में नहीं रहना चाहते हों मगर इसका मतलब यह नहीं है कि वे अपनी नौकरी छोड़ देंगे. बिहार में सरकारी नौकरी मिल जाए तो बड़ी बात मानी जाती है. और पुलिस की नौकरी तो लॉटरी लगने से कम नहीं क्योंकि आम धारणा है कि इसमें ऊपरी आमदनी की कोई कमी नहीं होती. अभय कहते हैं, ‘हम नौकरी छोड़ना चाहते हैं. मगर फैसला हमारा परिवार करेगा. धीरज रखिए.’

धीरज रखिए…पिछले दिनों जब भी कोई पुलिस अधिकारी अपने से छोटे रैंक के अधिकारियों से बात करता तो हमेशा यही कहता. मगर इससे लखीसराय, जमुई, मुंगेर और बांका के पुलिसकर्मियों में आश्वस्ति की जगह निराशा और बेबसी के भाव पैदा होते.  वजह यह है कि इसी दौरान बंधकों को खोजने के लिए इन जिलों को जोड़ने वाले घने जंगलों और पहाड़ियों में बिहार पुलिस और सीआरपीएफ की कई टीमों ने सघन तलाशी अभियान तो चलाए थे मगर उनका कोई फायदा नहीं हुआ था.

बिहार में पुलिसकर्मी नक्सलियों से नहीं लड़ना चाहते क्योंकि उनके पास एके-47 और इंसास राइफलें तो हैं मगर जंगल में लड़ाई की ट्रेनिंग नहीं है चार बंधकों में से एक लुकास टेटे की हत्या से निराश कई पुलिसकर्मी मानते हैं कि लखीसराय के एक बड़े हिस्से में सरकार का कोई कायदा-कानून नहीं चलता. गौरतलब है कि टेटे की हत्या तब की गई थी जब सरकार ने जेल में बंद आठ नक्सली कमांडरों को छोड़ने से इनकार कर दिया था. नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में तैनात पुलिसकर्मियों का मनोबल बुरी तरह टूटा हुआ है. कजरा थाने के सब इंस्पेक्टर राजेंद्र प्रसाद कहते हैं, ‘मैं यहां क्या कर रहा हूं? मैं अकसर खुद से यह सवाल करता हूं. मेरा नौकरी छोड़ने का मन करता है. मगर फिर करूंगा क्या? कमाई कैसे होगी? मेरा परिवार चाहता है कि मैं यह काम छोड़ दूं, मगर जब नौकरी नहीं होगी और मैं उनका पेट नहीं पाल सकूंगा तो क्या वे मेरे साथ ठीक बर्ताव करेंगे?’ यह थाना उस जगह से सिर्फ 15 किलोमीटर दूर है जहां 29 अगस्त को पुलिस के साथ मुठभेड़ के बाद नक्सलियों ने चार लोगों को बंधक बना लिया था. इस मुठभेड़ में सात पुलिसकर्मी मारे गए थे और दस घायल हुए थे.

राज्य सरकार द्वारा बंधकों की रिहाई के लिए सार्थक प्रयास न होते देख अभय के पिता इंदु प्रसाद यादव ने अपनी बिरादरी के उन लोगों से संपर्क किया था जो पीएलजीए कमांडर और पूर्वी बिहार के स्वयंभू नक्सली प्रवक्ता अविनाश उर्फ अर्जुन यादव के संपर्क में थे. अभय के मामा शंभू यादव बताते हैं, ‘राजनीतिक पार्टियों की अपील और पीएलजीए नेतृत्व में मौजूद जाति के नेताओं पर समुदाय के दबाव के चलते ही अभय, रूपेश और एहसान की रिहाई हुई. सरकार ने कुछ नहीं किया.’ लखीसराय के सिमरा रारी इलाके में जब बंधकों को छोड़ा गया तो शंभू वहीं मौजूद थे.

बिहार में पुलिसकर्मी नक्सलियों से नहीं लड़ना चाहते क्योंकि उनके पास एके-47 और इंसास राइफलें तो हैं मगर जंगल में लड़ाई की ट्रेनिंग नहीं है. न ही उनके पास ऐसे अधिकारी हैं जो आगे बढ़कर उनका नेतृत्व करने की काबिलियत रखते हों. वे मानते हैं कि नक्सलियों की रणनीतियां उनसे बेहतर हैं. छानन थाने के एसएचओ अतुल कुमार मिश्रा कहते हैं, ‘कोई पुलिसकर्मी अपनी नौकरी करते हुए भला मरना क्यों चाहेगा? मैं पुलिस की नौकरी में कानून-व्यवस्था की रक्षा के लिए आया था न कि नक्सलियों से लड़ने के लिए.’ अपने आसपास स्पेशल ऑक्सिलरी फोर्स (सैप) के 25 सशस्त्र जवानों की मौजूदगी के बावजूद मिश्रा को डर लगता है. वे कहते हैं, ‘भारत कारगिल की लड़ाई जीत सकता है मगर यह लड़ाई नहीं. कम से कम इस तरह तो नहीं.’

नक्सल प्रभावित इलाकों में पुलिसकर्मियों के लिए काम करने का एक तय तरीका है जिसे स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर (एसओपी) कहा जाता है. इसका लक्ष्य जवाबी कार्रवाई करना नहीं बल्कि यह सुनिश्चित करना होता है कि वे अपना जीवन सुरक्षित रखें. एक पुलिसकर्मी कहता है, ‘मैंने 30 आवारा कुत्तों को प्रशिक्षित कर लिया है. वे शाम ढलने के बाद किसी को अंदर नहीं घुसने देते.’ यानी शाम के छह बजे के बाद अगर उनके क्षेत्र में कोई वारदात हो जाती है तो सुबह होने तक कुछ नहीं हो सकता.

इस बीच 29 अगस्त की घटना के बाद से राजेंद्र प्रसाद और भी ज्यादा व्यथित हैं. वे कहते हैं, ‘हमारे पास कोई सुविधा नही है. रहने के लिए कोई ठिकाना नहीं है. नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में कई पुलिस स्टेशन किराए पर लिए गए जर्जर भवनों में चल रहे हैं. हमारा थाना कांग्रेस पार्टी का दफ्तर हुआ करता था. हमने स्थानीय लोगों से फंड जमा करके अपनी बैरकें बनवाईं. लड़ाई के लिए हम मानसिक रूप से तैयार हों इसके लिए हमारे कल्याण पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए.’

इसके अलावा यह बात भी अपनी जगह है कि इन पुलिसकर्मियों को उनके सामान्य कार्य के लिए प्रशिक्षण दिया जाता है, नक्सल विरोधी अभियानों के लिए नहीं. प्रसाद कहते भी हैं, ‘मुझे 25 साल पहले पुलिस ट्रेनिंग मिली थी. उसके बाद से कोई ट्रेनिंग नहीं हुई. मैं निशाना लगा सकता हूं, गोली चला सकता हूं मगर मुझे यह मालूम नहीं कि लड़ाई जैसे हालात में क्या करना है. मैं जंगल में होने वाली लड़ाई के लिए प्रशिक्षित नहीं हूं. ऐसे में अगर जंगल में नक्सलियों से सामना हो जाए तो मैं अपनी जान कैसे बचाऊंगा?’

पुलिसकर्मियों में रोष है. एक पुलिसकर्मी कहता है, ‘बिना किसी योजना के हमें मोर्चे पर भेज दिया जाए तो क्या होगा? मौत तय है.’ अपने सहकर्मियों की लाशें देखकर बिहार सैन्य पुलिस (बीएमपी) के कई जवान इतना भड़क गए कि उन्होंने लखीसराय के एसपी अशोक सिंह के साथ हाथापाई कर डाली. हालांकि आईजी (ऑपरेशन) केएस द्विवेदी और एडीजी (मुख्यालय) पीके ठाकुर इससे इनकार करते हैं कि सिंह के साथ हाथापाई हुई. लेकिन यह तथ्य तो अपनी जगह है ही कि घटना के तीन दिन बाद उनका लखीसराय से ट्रांसफर कर दिया गया था.

‘अगर वरिष्ठ अधिकारी संघर्ष में आगे बढ़कर हमारा नेतृत्व नहीं कर सकते तो हम अपनी जान खतरे में क्यों डालें?’ कजरा पुलिस थाने के सब इंस्पेक्टर राजेंद्र प्रसाद कहते हैं, ‘29 अगस्त की मुठभेड़ से पहले दस दिन तक रोज हमें खुफिया सूचनाओं के जरिए सावधान किया जा रहा था कि लखीसराय में जहानाबाद जैसा हमला होगा. लखीसराय जेल में कई नक्सली बंद हैं. हमें बताया गया था कि नक्सली जेल तोड़ने और डीएम ऑफिस व कजरा स्थित सीआरपीएफ कैंप पर हमले की कोशिश करेंगे.’ सीआरपीएफ की 131वीं बटालियन के कमांडेंट बिधान चंद्र पात्रा इसकी पुष्टि करते हुए कहते हैं, ‘एसपी अशोक सिंह ने मुझे बताया था कि उन्हें एक खुफिया सूचना मिली है कि लखीसराय के जंगल में 30 नक्सली मौजूद हैं. उन्होंने कहा था कि वे एक टीम भेज रहे हैं जो इलाके में प्रभुत्व जमाकर वापस आ जाएगी. ऐसी कोई संभावना नहीं जताई गई थी कि खूनी जंग हो सकती है. इसलिए मैंने 34 सीआरपीएफ जवानों की टीम बनाने के निर्देश दिए.’ सिंह ने 43 लोगों की टीम बनाई. इसमें 20 लोग सैप से थे और 23 बिहार मिलिट्री पुलिस से. प्रसाद कहते हैं, ‘हमारे इंटेलीजेंस इनपुट के मुताबिक वहां पहाड़ियों में कम से कम 500 नक्सली थे. लेकिन एक बड़ा अजीब फैसला करते हुए एसपी ने लड़ाई के लिए छोटा दल बनाया.’ मुठभेड़ में मारे गए एसआई भूलन यादव को इस तरह के अभियानों का अनुभव नहीं था. इसके बावजूद उन्हें इस यूनिट का नेतृत्व सौंपा गया. प्रसाद बताते हैं, ‘भूलन ने मुझे फोन किया और कहा कि मैं एसपी को फोन करूं कि और लोग भेजे जाएं. फिर अचानक उनका फोन कट गया. मैं लगातार उन्हें फोन करता रहा मगर फोन नहीं लगा.’ मिश्रा और प्रसाद बताते हैं कि सिंह ने उस एसओपी का पालन नहीं किया जो दंतेवाड़ा नरसंहार के बाद बनाया गया था. मिश्रा कहते हैं, ‘एक विस्तृत योजना बनाई जाती है. इससे पहले कि टुकड़ी चलना शुरू करे जीपीएस कोऑर्डिनेट्स सेट किए जाते हैं. मगर अशोक सिंह ने योजना नहीं बनाई. उन्हें पता था कि यह पहाड़ियों और जंगलों वाला इलाका है. उन्हें पूरा भूगोल मालूम था. उन्हें पता होना चाहिए था कि छत्तीसगढ़ में हुए हालिया छापामार हमलों से सबक लेते हुए नक्सल ऊंची जगह पर घात लगाए बैठे होंगे और वे पुलिसकर्मियों को जाल में फंसा लेंगे.’ पात्रा कहते हैं, ‘एसओपी का पालन नहीं किया गया. पहले टुकड़ी जमा होती है और कमांडर इलाके, इसके भूगोल और इंटेलीजेंस के बारे में चर्चा करते हैं. फिर रेत के मॉडल और सर्वे ऑफ इंडिया के नक्शों द्वारा यह पूरे दल को समझाया जाता है.’

इस तरह के अभियानों के लिए भूलन की नातजुर्बेकारी का नतीजा यह हुआ कि उन्होंने टीम को दो टुकड़ों में बांटकर अलग-अलग दिशाओं में भेज दिया. उन्होंने सीआरपीएफ की टुकड़ी से दाईं दिशा में जाकर घाघर घाटी और मोरवे बांध इलाके में गश्त लगाने को कहा जबकि वे खुद अपने आदमियों के साथ कानीमाई गांव की तरफ निकले.

मगर जैसे ही पुलिस पार्टी गांव में पहुंची उन पर दोनों तरफ से भारी गोलीबारी होने लगी. बिहार पुलिस के अधिकारी दावा करते हैं कि जब उनके लोगों पर घात लगाकर हमला किया गया तो जवाबी हमला करने और फंसे लोगों को बचाने के लिए कवर फायर देने की बजाय सीआरपीएफ की टुकड़ी पीछे हट गई. उधर पात्रा कहते हैं, ‘कवर फायर देने के लिए हमारे लोग ऊंची जगहों तक पहुंच गए थे जिससे 36 लोग जान बचाने में सफल हुए.’ बिहार पुलिस ने आत्मसमर्पण कर दिया था इस तथ्य का कम ही जिक्र हुआ है. इस पर अभय कहते हैं, ‘जब हम पर भारी गोलीबारी होने लगी तो इस दौरान नक्सली बार-बार घोषणा कर रहे थे कि आत्मसमर्पण कर दो वरना हर कोई मारा जाएगा. हमने इसलिए आत्मसमर्पण किया क्योंकि सीआरपीएफ पीछे हट गई थी.’

अभय यह भी बताते हैं कि बंधक बनाने के बाद नक्सलियों का बर्ताव उनके साथ अच्छा रहा. वे कहते हैं, ‘उन्होंने घायल लोगों का इलाज किया. जिनके चोट लगी थी उनके घावों पर पट्टियां बांधीं. जिन्होंने पानी मांगा उन्हें पानी दिया और उनसे वहां से चले जाने के लिए कहा. उन्होंने फिर सारे हथियार इकट्ठा किए और हम चारों से कहा कि हम उनके साथ जंगल में चलें.’ बाद में नक्सलियों ने स्थानीय पत्रकारों को बताया कि उन्होंने 35 इंसास और एके-47 राइफलें कब्जे में ली हैं.

बिहार पुलिस आत्मविश्वास की जबर्दस्त कमी का सामना कर रही है. प्रोटोकॉल के मुताबिक सीआरपीएफ का एक डिप्टी कमांडेंट रैंक के लिहाज से एक एसपी के बराबर होता है. इसके बावजूद ऐसा बहुत मुश्किल से ही होता है कि कोई एसपी जंगल में अभियान पर जाए. यादव कहते हैं, ‘अधिकारी आगे बढ़कर नेतृत्व नहीं करते. वे बस आदेश देते हैं. अगर वरिष्ठ अधिकारी संघर्ष में हमारा नेतृत्व नहीं कर सकते तो हम अपनी जान खतरे में क्यों डालें?’

पेशे से शिक्षक नरेश कुमार कहते हैं कि उनकी प्राथमिक पहचान एक किसान की है. अलीनगर में दोस्तों और गांववालों से घिरे नरेश बिहार के नेताओं को खूब गालियां देते हैं. उनकी शिकायतों की सूची खासी लंबी है. वे कहते हैं, ‘अलीनगर में गरीबी की रेखा से नीचे रह रहे लोगों को राशन कार्ड जारी नहीं किए जाते, विधवा पेंशन योजना कागजों पर ही है. इंदिरा आवास योजना में उन्हीं लोगों को घर बनाने के लिए ऋण मिल सकता है जो ग्राम सभा को 60 प्रतिशत कमीशन दे सकें. मुफ्त दवाएं न तो सरकारी अस्पतालों में हैं और न प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में. अगर बैंक मैनेजर को 5,000 रुपए दे दो तो वह फौरन जमीन का मालिकाना प्रमाण पत्र और किसान क्रेडिट कार्ड बनवाकर दे देगा. नवजात व जननी मृत्यु दर रोकने की खातिर गर्भवती महिलाओं के लिए बनी आशा योजना भी लागू नहीं हो रही.’

लखीसराय का अलीनगर इलाका एक तरह से ग्रामीण बिहार की भावनाओं का दर्पण है. बिहार के गांवों में नक्सलियों के प्रति सहानुभूति है. लोग सरकार पर भरोसा नहीं करते. वे बताते हैं कि क्यों बिहार में नक्सलियों का प्रभावक्षेत्र बढ़ रहा है. नरेश कहते हैं कि अलीनगर में किसी को ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना से फायदा नहीं हुआ. नरेश कहते हैं, ‘सारे नेता उनके लिए काम करते हैं जिनके पास पैसा है. नौकरशाही तो हमेशा हम लोगों को लूटने के लिए तैयार रहती है. बराबरी कहीं नहीं है. तो हर किसी को नक्सलियों के बढ़ने पर हैरत क्यों हो रही है?’

शायद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी लोगों के इस मूड को भांप गए हैं. 29 अगस्त की मुठभेड़ में घायल पुलिसकर्मियों से पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल में मुलाकात करने के बाद उनका कहना था, ‘ नक्सलवाद को उखाड़ फेंकने के लिए विकास की रफ्तार में तेजी लाने और विकास योजनाओं के क्रियान्वयन में व्याप्त भ्रष्टाचार को दूर करने की जरूरत है.’

नीतीश को बानु बगीचा गांव का भी दौरा करना चाहिए. यह वही जगह है जहां से बमुश्किल पांच किलोमीटर दूर स्थित एक जगह पर बंधक पुलिसकर्मियों को छोड़ा गया. इस गांव के लोग पिछले आठ साल से ब्लॉक ऑफिस के शुरू होने का इंतजार कर रहे हैं. जिला प्रशासन ने ऑफिस की बिल्डिंग तो बना दी थी मगर फिर सुरक्षा कारणों का हवाला देते हुए उस पर ताला डाल दिया. 29 अगस्त की मुठभेड़ से चार दिन पहले लखीसराय के डीएम मनीष कुमार बानु बगीचा आए थे और उन्होंने गांववालों से कहा था, ‘मुझे पांच नक्सली दे दो तो ब्लॉक ऑफिस चलने लगेगा.’ इस गांव के लोगों को भूमि पंजीकरण जैसी कई कागजी कार्रवाइयों के लिए 15 किलोमीटर दूर मननपुर ब्लॉक जाना पड़ता है.

बानु बगीचा के निवासी फकीरा यादव कहते हैं, ‘डीएम हमसे कह रहा है कि पांच नक्सलियों को उनके हवाले कर दो. इससे बेहतर क्या यह नहीं कि हम नक्सलियों के साथ ही मिल जाएं? हम पुलिस को नक्सली कैसे दें? हमारे लिए तो इधर भी बंदूक है और उधर भी.’

(वीके शशिकुमार की रिपोर्ट, सभी फोटो शैलेन्द्र पाण्डेय)