आजादी के तिरसठ साल बाद भी इस देश में अंग्रेजी का वर्चस्व बना हुआ है निकट भविष्य में यह वर्चस्व टूटता दिख नहीं रहा है. अगर आजादी से लेकर अब तक की स्थिति का आकलन करें तो हम पाएंगे कि यह वर्चस्व उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया है. आज तो स्थिति यह हो गई है कि देश का बहुसंख्यक तबका अंग्रेजी के वर्चस्व को भाषाई गुलामी के रुप में न देखकर उसे मुक्ति के साधन के रुप में देख रहा है. आज गरीब से गरीब व्यक्ति भी अपने बच्चे को अंग्रेजी पढ़ाना चाहता है. कई राज्य सरकारें भी अंग्रेजी को पहली कक्षा से ही अनिवार्य घोषित करने में लगी हुई हैं. यह इसके बावजूद हो रहा है कि सभी शिक्षाशास्त्री इस बात को एक मत से स्वीकार करते हैं कि प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में ही होनी चाहिए कुल मिलाकर, यह कि समाज को बदलने के लिए जो भाषा की लड़ाई लड़ी जा रही थी वह समाप्त हो चुकी है और इस लड़ाई में हिन्दी की हार हो चुकी है.
यहां गांधी की याद अनायास ही आ जाती है, जिन्होंने आजादी के दिन बीबीसी के प्रतिनिधि से कहा था कि तुम्हें भूल जाना चाहिए कि मुझे अंग्रेजी आती है
अब यह एक महत्वपूर्ण सवाल है कि इस लड़ाई में अंग्रेजी क्यों जीती और हिन्दी क्यों हारी ? इसका ठीक से विश्लेषण करना जरूरी है. आजादी के समय यह सोचा गया कि धीरे धीरे अंग्रेजी का वर्चस्व क्षीण होता जाएगा और उसका स्थान हिन्दी क्रमश: ले लेगी. इसी सोच के तहत संविधान के अनुच्छेद 343 में देवनागरी लिपि में हिन्दी को राजभाषा तो घोषित किया गया किन्तु इसके साथ यह प्रावधान भी कर दिया गया कि शुरुआत के 15 वर्षों तक भारत सरकार का सारा कामकाज अंग्रेजी में ही होता रहेगा. इस दौरान यह उम्मीद की गई कि हिन्दी के लिए तब तक अनुकूल माहौल बन जाएगा.
लेकिन यह नीति से अधिक नीयत का सवाल था हिन्दी की भ्रूण हत्या तो उसी दिन हो गई जिस नेहरु ने आजाद भारत का पहला भाषण (नियति से साक्षात्कार) अंग्रेजी में दिया. इतना सुंदर और काव्यात्मक भाषण शायद ही किसी राजनीतिज्ञ ने दिया हो, लेकिन दुर्भाग्य यह कि उस भाषण को देश की जनता नहीं समझ सकती थी. हिन्दी की पहली और निर्णायक पराजय उसी दिन हो गई थी. आगे तो बस इसकी पटकथा लिखी जानी थी. यहां गांधी की याद अनायास ही आ जाती है, जिन्होंने उस दिन बीबीसी के प्रतिनिधि से कहा था कि तुम्हें भूल जाना चाहिए कि मुझे अंग्रेजी आती है.
स्वातंत्रयोत्तर भारत में हिन्दी के नाम पर एक पाखंड की शुरुआत हुई जिसकी बुनियाद नेहरु के उस प्रभम भाषण ने रख दी थी. अंग्रेजी को शासन की भाषा बनाए रखा गया और हिन्दी को दिखावे के लिए राष्ट्रभाषा और राजभाषा घोषित किया गया. यह पाखंड 26 जनवरी1950 से हिन्दी को राजभाषा के रुप में औपचारिक रुप से स्थान मिलने के बाद भी जारी रहा, क्योंकि उसी दिन से लागू राजभाषा अधिनियम1963 में किए गए उपबंधों के अनुसार अब भी कुछ काम केवल हिन्दी में, कुछ केवल अंग्रेजी में और कुछ अंग्रेजी तथा हिन्दी दोनों भाषाओं में किया जाता है.
अंग्रेजी के वर्चस्व को तोड़ने और उसकी जगह हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं को स्थापित करने के लिए देश में एक सशक्त आंदोलन भी चला. लेकिन यह असफल हो गया. इसका एक बड़ा कारण यह था कि इस आंदोलन के साथ जुड़े तमाम नेताओं और बुद्धिजीवियों ने अंग्रेजी को प्रश्रय देने वाली सामाजिक स्थितियों और संरचनाओं को बदलने की जगह भाषा के क्षेत्र में ही उग्र और क्रांतिकारी कदम उठाने की वकालत की. इससे अंग्रेजी हटाओ का नारा तो लोकप्रिय हुआ लेकिन इसका कोई दूरगामी असर नहीं हुआ. इस आंदोलन के प्रभाव में जिन लोगों ने अंग्रेजी से नाता तोड़ा वे पूरी तरह पिछड़ गए क्योंकि संस्थाओं के चरित्र में कोई बदलाव नहीं हुआ और वहां कमोबेश अंग्रेजी का वर्चस्व बना रहा. अंग्रेजी न जानने वाले अनफिट घोषित होते गए और आंदोलन दम तोड़ता गया. आंदोलन की असफलता ने इस बात को स्पष्ट किया कि अंग्रेजी हटाने का सर्वप्रथम प्रयास सार्वजनिक जीवन की उन संस्थाओं से करनी होगा जो अंग्रेजी को योग्यता के रुप में स्वीकार करती हैं, इसके बिना अंग्रेजी विरोध आम जनता के लिए छलावा ही होगा.
दरअसल, भारत में अंग्रेजी का प्रश्न केवल भाषा का प्रश्न नहीं है. इसे समूची व्यवस्था के संदर्भ में देखा और समझा जाना चाहिए. भारत में अंग्रेजी लेखकों की संख्या काफी कम है और उनके साहित्य की गुणवत्ता भी भारतीय भाषाओं के साहित्य के अपेक्षा कम है. बावजूद इसके भारत में अंग्रेजी की स्थिति मजबूत है तो इसके दूसरे अन्य कारण हैं. अंग्रेजी का वर्चस्व भारत में मुट्ठी भर लोगों के बहुसंख्यक जनता पर वर्चस्व को संभव बनाता है. इस तरह भाषा का वर्चस्व समाज में कुछ लोगों के वर्चस्व के रुप में तब्दील हो गया है. भाषा और वर्चस्व का यह संबंध कोई नया नहीं है.
यह बात निर्विवाद रुप से सत्य है कि भारत में अंग्रेजी की प्रधानता इसलिए कायम हुई क्योंकि यह अंग्रेजों का उपनिवेश था. शासन या सत्ता उस भाषा को अपनाती है जो जनता से दूर हो अर्थात जनता की भाषा न हो. यह बात वर्तमान के लिए जितनी सच है उतनी ही अतीत के लिए भी उदाहरण के लिए हमारे देश में तुर्क, अफगान, मुगल आए तो इनमें से किसी ने भी अपनी भाषा में शासन नहीं चलाया यह अपने आप में कम दिलचस्प नहीं है कि इनमें से कोई भी ईरान का नहीं था लेकिन यहां शासन की भाषा फारसी बनी रही. बाबर और जहांगीर ने खुद अपनी आत्मकथाएं तुर्की में लिखी थी. अकबर तो पढ़ा लिखा भी नहीं था बावजूद इसके उसके शासन काल में राजस्व का विभाग संभालने वाले टोडरमल ने हिन्दू होने के बावजूद यह कहा कि राजभवन की भाषा फारसी होनी चाहिए.
इस संदर्भ में देखें तो यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि भारत में अंग्रेजी का वर्चस्व इसलिए है कि उसे जानने वाले लोग मुश्किल से पांच फीसदी हैं और न जानने वाले 95 फीसदी. और 95 फीसदी लोगों पर राज करना है तो ऐसी भाषा में किया जाए जिसे वे पढ़ न सकें, समझ न सकें, लिख न सकें. शासन का एक बहुत बड़ा हथियार है अंग्रेजी. इस हथियार के जरिए इस देश का प्रभु वर्ग अपनी विशिष्टता को बरकरार रखता है. इसलिए हमारे यहां का शासक वर्ग, मध्यमवर्ग, पढ़ा लिखा वर्ग, हर हाल में इसे कायम रखना चाहता है.