फिर हिंदी का शून्यकाल

भाषाएं सिर्फ शब्दों या वाक्य रचनाओं से नहीं बनतीं, वे समाज से भी बनती हैं और समाज को भी बनाती हैं

लिखने को कश्मीर की कशमकश थी, क्रिकेट की मिलीभगत थी, झारखंड की मौकापरस्ती थी, ‘दबंग’ की सफलता थी, कॉमनवेल्थ पर मंडरा रहे साए थे, केंद्र सरकार के मंत्रियों के झगड़े थे, आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर ऐक्ट की प्रासंगिकता का सवाल था, लेकिन इन सबको छोड़कर मैंने वह विषय चुना जिस पर नए सिरे से कुछ न लिखने की न जाने कितनी बार कसम खाई है. पिछले कुछ वर्षों से हर 14 सितंबर के आसपास निश्चय करता हूं कि इस साल हिंदी के हाल पर कुछ नहीं लिखूंगा. इस विषय पर इतना कुछ लिख और पढ़ चुका हूं कि लगता है कि जो लिखूंगा उसमें काफी कुछ दुहराव होगा.  इसके अलावा 14 सितंबर पर हिंदी के वर्तमान, भविष्य, उसकी संभावना या प्रगति या दुर्गति पर लेख लिखना भी ऐसा कर्मकांड हो चुका है जैसे हिंदी दिवस से जुड़े दूसरे आयोजन होते हैं.

इसके बावजूद हिंदी के हाल पर लिखने बैठ गया- सिर्फ अपने भाषामोह की वजह से नहीं, इस लगातार गहरे होते एहसास के चलते भी कि इन तमाम वर्षों में हिंदी को लेकर चलने वाले पाखंड और परोसे जाने वाले भ्रम कुछ ज्यादा ही मजबूत हुए हैं और पुरानी हिचक की जगह नए आत्मविश्वास से दुहराए जा रहे हैं. हमारा राजनीतिक और बौद्धिक नेतृत्व जाने-अनजाने हिंदी के साथ छल के इस खेल में शामिल है. वह पहले उसे ठोकर लगाता है और फिर औंधे मुंह गिरी हिंदी को 14 सितंबर के दिन उठाकर गले लगाने की रस्म निभाता है. इस छल को समझना सिर्फ हिंदी को बचाने के लिए नहीं, एक समाज के रूप में अपनी सहजता, मेधा और मौलिकता को बचाने के लिए भी जरूरी है.

14 सितंबर की शाम हमारे गृहमंत्री पी चिदंबरम ने भी यह रस्म अदायगी की. हिंदी भाषी समाज ने कुछ अभिभूत होकर और कुछ कृतज्ञता के साथ देखा कि हमेशा नफीस अंग्रेजी बोलने वाला उनका गृहमंत्री क्लिष्ट शब्दों से भरा एक लंबा, टेढा-मेढ़ा हिंदी वाक्य  बोलने का कष्ट कर रहा है. जिस शाम गृहमंत्री पी चिदंबरम हिंदी का एक वाक्य बोलने का अभ्यास कर रहे थे, उसी शाम हिंदी के सबसे बड़े अखबार ने हिंदी पर एक बड़ी संगोष्ठी की- लगभग जानी-पहचानी चिंताओं के साथ वहां भी अंग्रेजी बोलने वाले वक्ताओं ने यह बात रेखांकित की कि हिंदी दिल की भाषा है, उसे दिमाग की भाषा बनाना होगा. उन्होंने इस बात पर  खुशी जताई कि सारी चीजों के बावजूद हिंदी का प्रचार-प्रसार जोर-शोर से हो रहा है और इस पर अफसोस कि हिंदी भाषी नेता भी अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूलों में भेजते हैं और बॉलीवुड के सितारों को भी कायदे की हिंदी नहीं आती.

अंग्रेजी में जो आत्मविश्वास और अहंकार दिखता है, वह इस देश के संसाधनों पर अपने संपूर्ण अधिकार के भरोसे से पैदा हुआ है

लेकिन क्या यह संकट सिर्फ हिंदी या भारतीय भाषाओं का है? पी चिदंबरम के लिए हिंदी या तमिल मायने नहीं रखतीं, वे उस विशेषाधिकार संपन्न अंग्रेजी की पैदाइश हैं जो इस देश में शासन और प्रशासन की ही नहीं, ज्ञान-विज्ञान और व्यवसाय की इकलौती भाषा मान ली गई है. इस अंग्रेजी में जो आत्मविश्वास और अहंकार दिखता है वह इस देश के संसाधनों पर अपने संपूर्ण अधिकार के भरोसे से पैदा हुआ है और इस साम्राज्यवादी उम्मीद से कि जो बचे-खुचे संसाधन हैं वे भी एक दिन उसकी झोली में आ जाएंगे. यही वर्ग इस देश में अंग्रेजी के महंगे स्कूल खुलवाता और चलवाता है और हिंदी और तमिल के सरकारी स्कूलों को ऐसी उपेक्षा का शिकार बना डालता है जहां बचे-खुचे समाज के बच्चे आकर साक्षर हों और उसके तंत्र के निचले हिस्से की जरूरतें पूरी करें. फिर यही वर्ग यह शिकायत भी करता है कि हिंदी बोलने वाले घरों को अगर हिंदी से प्रेम है तो उनके बच्चे अंग्रेजी स्कूलों में क्यों जा रहे हैं.

समझने की बात यह है कि यह अंग्रेजी या हिंदी का मामला नहीं है, न ही यह भाषा के रूप में किसी के कमजोर-मजबूत होने की बात है. यह दरअसल भाषा की राजनीति है जो भाषा की हैसियत तय करती है. अंग्रेजी अगर दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण भाषा बन गई है तो इसलिए कि वह अमेरिका की भाषा है. अगर उसके नए शब्दकोशों में ढेर सारे चीनी शब्द और मुहावरे ठूंसे जा रहे हैं तो इसलिए कि चीन ने इस दौर में वह राजनीतिक और आर्थिक हैसियत हासिल कर ली है कि अंग्रेजी भी अपना एक चीनी रूप विकसित करने लग गई है. जब सोवियत संघ और रूसी प्रतिष्ठान मजबूत था तो रूसी सीखने वालों की तादाद दुनिया में बहुत ज्यादा थी. जब अंग्रेजों से पहले भारत में हुकूमत की भाषा फारसी थी तो स्कूलों में फारसी पढ़ाई जाती थी. आधुनिक भारत में अंग्रेजी अगर सबसे महत्त्वपूर्ण है तो इसलिए कि वह सत्ता की भाषा है. अपनी इस हैसियत से वह ज्ञान-विज्ञान की दूसरी शाखाओं को भी अपने एकाधिकार के दायरे में ला रही है और कारोबार को भी.

लेकिन अंग्रेजी सिर्फ यही नहीं कर रही कि वह हर जगह फैल रही है, वह दूसरी भाषाओं के चरित्र को भी बदल रही है. जो लोग इस बात पर पुलकित होते हैं कि हिंदी का बाजार बड़ी तेजी से फैल रहा है, हिंदी के अखबार सबसे ज्यादा पढ़े जाते हैं, हिंदी की फिल्में सात समंदर पार भी देखी जाती हैं, हिंदी के टीवी चैनल दूर-दराज तक पहुंच गए हैं, उन्हें यह भी देखना चाहिए कि यह कैसी हिंदी है जो कारोबार में, बाजार में और अखबार में दिखाई पड़ रही है. दरअसल यह अंग्रेजी की नकल की मारी वह इकहरी हिंदी है जो अपनी सार्थकता इस बात में समझती है कि उसमें भी अंग्रेजी जैसी स्मार्टनेस चली आए, जो यह नहीं समझती कि यह भाषा की नहीं, उस फैशन की स्मार्टनेस है, जिस पर एक छोटे-से तबके ने अपनी मुहर लगा रखी है. इस स्मार्टनेस में जितना सरोकार है, उससे कम संस्कृति है और उससे भी कम स्मृति है. नतीजे में इस नकल से तैयार होने वाली हिंदी एक खोखली और सतही हिंदी होती है- ऐसी हिंदी जिसको लिखने और बोलने की इकलौती कसौटी यही है कि उसे कोई अंग्रेजीवाला भी बिना किसी दिक्कत के समझ ले.

मुश्किल यह है कि जो लोग इस तरह की बात करते हैं, भाषा में संस्कृति, स्मृति और सरोकार खोजते हैं, वे शुद्धतावादी मान लिए जाते हैं- ऐसे शुद्धतावादी जिन्हें दूसरी भाषाओं के शब्दों और चलन से परहेज है. उन्हें अचानक शुद्ध हिंदी लिखना और बोलना चाहने वालों की ऐसी जमात में ठेलने का अभियान छेड़ दिया जाता है जो लुप्तप्राय हो रही है और उसका लुप्त होना ही हमारे समकालीन पर्यावरण के लिए ठीक है. ये वे लोग हैं जो नहीं जानते कि भाषाएं सिर्फ शब्दों या वाक्य रचनाओं से नहीं बनतीं, वे समाज से भी बनती हैं और समाज को भी बनाती हैं. यानी अंग्रेजी अगर हिंदी या बाकी भारतीय भाषाओं का चरित्र बदल रही है तो वह सिर्फ भाषाओं का ही नहीं, समाजों का भी चरित्र बदल रही है.

सार्त्र ने जिन्हें डेढ़ अरब माना था, उनकी तादाद काफी हो चुकी है और भारत में भी वे इतनी बड़ी संख्या हैं कि अपनी मर्जी का समाज बना सकें इससे भी हमें क्यों परहेज हो? अगर अंग्रेजी नए जमाने की भाषा है तो हम उसे क्यों न अपना लें? अगर उसी में तरक्की और ताकत मुमकिन है तो हम उसके साथ क्यों न हो लें? इस भोले लगने वाले सवाल को ध्यान से देखें. भारत के संदर्भ में अंग्रेजी अब तक एक साम्राज्यवादी भाषा है- एक छोटे से अल्पतंत्र की भाषा- जिसने एक बड़े समाज को अपना उपनिवेश बना रखा है. यह अनायास नहीं है कि जो नया बनता हुआ, ताकतवर भारत है, उसने अपनी भाषा अंग्रेजी ही मान ली है- उसकी वफादारी अमेरिका और यूरोप के प्रति ज्यादा है, भारत के प्रति कम. गरीबों का, कमजोरों का एक बड़ा भारत है जो हिंदी या दूसरी भारतीय भाषाएं बोलता है. इन गरीबों को भी अपने दायरे से बाहर जाने की कुंजी अंग्रेजी ही लगती है और इस नाते जो झोंक सकते हैं, वे अपने सबसे ज्यादा संसाधन अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूलों में भेजने पर लगाते हैं.

हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं की यह आर्थिक विपन्नता अनायास उनकी सांस्कृतिक और बौद्धिक विपन्नता में बदल जाती है. हिंदी में जो भी काम होता है- चैनलों से लेकर फिल्मों तक में- उस पर मुहर अंग्रेजीवाले ही लगाते हैं. हिंदी अखबारों में अंग्रेजी के सतही लेखकों के कॉलम छपते हैं और हिंदीभाषी समाज के बीच उनके सतही उपन्यास बिकते हैं. अंग्रेजी फैसला करती है और वह चाहे जितनी सदाशयता से फैसला करे, यह मान कर चलती है कि वह इन देसी लोगों से श्रेष्ठ है और इन्हें कुछ सिखाना उसका फर्ज है. फ्रैंज फेनन की मशहूर किताब ‘रेचेड ऑफ द अर्थ’ की उतनी ही मशहूर भूमिका की शुरुआत में ही ज्यां पाल सार्त्र ने लिखा है, ‘ज्यादा दिन नहीं हुए, जब धरती पर दो अरब लोग थे- इनमें 50 करोड़ इनसान थे और बाकी डेढ़ अरब गंवार (नेटिव). पहले के पास भाषा थी और दूसरों के पास उसका इस्तेमाल.‘आगे वह लिखता है कि यूरोपीयन एलीट ने एक देसी एलीट बनाने का काम अपने ऊपर लिया, वहां के कुछ संभावनाशील युवा लोगों को चुना, उन्हें अपने पश्चिमी रंग में रंगा, अपने भारी-भरकम मुहावरे उनके मुंह में ठूंस दिए और उन्हें वापस भेज दिया.

यह छोटा-सा वापस भेजा हुआ- अंग्रेजी बोलता अल्पतंत्र अब भी साम्राज्यवादी ताकतों का प्रतिनिधि बना हुआ है और ऐसा भारत बना रहा है जो अमेरिका की राजधानी लगे. बेंगलुरु, दिल्ली और मुंबई से लेकर छोटे-छोटे शहरों तक के किशोर जिस तरह लांस एंजिलिस और न्यूयॉर्क के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने से लेकर उनके बिजली बिल भेजने और तगादा करने और शिकायतें सुनने तक का काम निबटा रहे हैं, उससे यही लगता है.
लेकिन हिंदी क्या करे? और हिंदीभाषी समाज क्या करे? क्या वह अपने खोल में सिमट जाए और एक प्रतिक्रियावादी भाषा और समाज की तरह पेश आए? या वह अपनी आधुनिकता का, अपनी बौद्धिकता का पुनराविष्कार करे, उन छलों को समझे जो सियासत से लेकर तिजारत तक उनके साथ कर रही है और उनसे लोहा ले? यह काम आसान नहीं है, लेकिन असंभव भी नहीं.

सार्त्र ने जिन्हें डेढ़ अरब माना था, उनकी तादाद काफी बड़ी हो चुकी है और भारत में भी वे इतनी बड़ी संख्या बनाते हैं कि अपनी मर्जी का समाज बना सकें. लेकिन इसके लिए भाषा के साथ और समाज के साथ हो रहे छल को समझना होगा.