आपकी पसंदीदा लेखन शैली क्या है?
कहानी मेरी प्रिय विधा है. कहानी के भीतर का स्पेस और काल मुझे एक शिशु की तरह उत्साहित करता है. हालांकि इसकी परिभाषा तय करना या इसकी व्याख्या करना मेरे लिए संभव नहीं, पर यह सच है कि स्पेस और काल में उतरते ही मुझे पंख लग जाते हैं और मैं पंछी की तरह परवाज़ भरने लगता हूं. इस क्रम में यथार्थ से, जीवनानुभवों से टकराना और फिर इस टकराव से पैदा होनेवाली छवियों को पकड़ना…. ये मेरे लिए आनंद के क्षण होते हैं, उत्सव के क्षण होते हैं…पीड़ा का आनंद, पीड़ा का उत्सव. नाटक लिखने की चुनौतियां अलग क़िस्म की हैं. वहां आपको प्रत्यक्ष रूप से मौन रहना होता है. पात्र मुखर होते हैं. अपने मौन को पात्रों की मुखरता में शामिल करना होता है. नाटक लिख भर लेने से उसकी यात्रा पूरी नहीं होती. मंचन के साथ पूरी होती है यह यात्रा. नाटक में केवल शब्द महत्व नहीं रखते. नाटक दृश्य-काव्य है.
अभी क्या पढ़ रहे हैं?
लंदन से कुछ नाटक लेकर लौटा हूँ. आयरलैंड के नाटक. उन्हें ही पढ़ने में लगा हूँ. अपने कथ्य और अपनी आंतरिक संरचना में ये नाटक विलक्षण हैं…वैसे इन दिनों पढ़ना कम और यायावरी ज्यादा हो रही है. कल ही चौदहवीं शताब्दी के नाटककार उमापति उपाध्याय के गांव कोईलख से उनकी डीह की माटी छूकर लौटा हूं. हम सब कृतघ्न लोग हैं. अपने पूर्वजों की स्मृतियों को सहेजना नहीं जानते.
वे रचनाएं या लेखक जिन्हें आप बेहद पसंद करते हों?
फणीश्वरनाथ रेणु का गद्य और शमशेर बहादुर सिंह की कविताएं मुझे प्रिय हैं. वैसे मैं कविताएं ज्यादा पढ़ता हूं. कबीर, निराला और शमशेर गहन संकट-काल में मेरे काम आते हैं. ‘यार से छेड़ चली जाए…’ की तरह बाबा नागार्जुन के समग्र रचना-संसार से मेरा आत्मीय संबंध है. बाद के कवियों में विनोद कुमार शुक्ल, अरुण कमल और राजेश जोशी को पढ़ना मुझे अच्छा लगता है. बिल्कुल नए कवि मनोज कुमार झा और व्योमेश शुक्ल को लेकर बेहद उत्साहित हूं. अमरकांत और शेखर जोशी की कहानियां तथा अपने समय के गद्यकारों में दूधनाथ सिंह का कथेतर गद्य और काशीनाथ सिंह का गल्प मुझे प्रिय है. अपने साथ कहानियां लिख रहे प्रियंवद, महेश कटारे, आनंद हर्षुल, शशांक, अवधेश प्रीत, योगेंद्र आहूजा, पंकज मित्र, संतोष दीक्षित आदि की रचनाओं के प्रति हमेशा उत्सुकता बनी रहती है. इनका रंग अलग-अलग है. वंदना राग, रणेन्द्र, मनीषा कुलश्रेष्ठ और चंदन पांडेय जैसे नए कहानीकारों को भी पसंद करता हूं. वंदना के पास स्मृतियों की आवाजाही है, जो आज विरल है.
कोई जरूरी रचना जिसपर नजर नहीं गई हो?
ऐसी ढेरों रचनाएं हैं, जो साहित्य की गिरोहबंदी के कारण उपेक्षा का शिकार हुईं. हिंदी में अधकांश संपादक गिरोहबाज हैं. पाठकों की फिक्र न करनेवाला प्रकाशन तंत्र भी इसके लिए जिम्मेवार है. आलोचना का हाल बहुत बुरा है. बहुत कम लोग हैं जो गंभीरता से काम कर रहे हैं. अभी तो अमरकांत और शेखर जोशी जैसे लेखकों पर काम नहीं हुआ.
कोई रचना जो बेवजह मशहूर हो गई हो?
तस्लीमा नसरीन का उपन्यास ‘लज्जा’ और अरूंधति राय का उपन्यास ‘द गॉड ऑफ स्माल थिंग्स’. हिंदी में अनावश्यक रूप से चर्चित होनेवाली रचनाओं की फ़ेहिरस्त लंबी है.
पढ़ने की परंपरा को कायम रहे, इसके लिए क्या किया जाना चाहिए?
हिंदीभाषी समाज में पढ़ने की परंपरा बेहद क्षीण रही है. यह समाज आज भी सामंती मूल्यों की जकड़न से पूरी तरह आज़ाद नहीं हो सका है. जिस समाज में कवि-लेखक होना विदूषक होने की तरह हो, वह समाज पढ़ने को भला कितनी प्राथमिकता देगा?…मेरे एक पत्रकार मित्र का कहना है कि ‘पत्रकारिता से संवेदना और साहित्य से यथार्थ ग़ायब होता जा रहा है. इसीलिए पत्रकारिता अविश्वसनीय हो गई है और साहित्य अपठनीय.’ यह टिप्पणी एक सीमा तक सही भी है. साहित्य नहीं पढ़े जाने का एक यह भी कारण हो सकता है. दूसरा बड़ा कारण यह है कि पुस्तकें और पत्रिकाएं आम आदमी की पहुंच से बाहर हो चुकी हैं. अधिकांश प्रकाशकों की रुचि, पाठकों तक पुस्तकें पहुंचाने में नहीं है….हमारे जीवन से बहुत सारी चीजें इन दिनों ग़ायब होती जा रही हैं, पुस्तकें भी इनमें शामिल हैं. मैं दृश्य या अन्य माध्यमों को पुस्तकों के लिए ख़तरा नहीं मानता. पुस्तकों का कोई विकल्प नहीं है. आज शिक्षा को केवल रोज़गार से जोड़कर देखने का चलन है. जाहिर है कि ऐसे में साहित्य हाशिए पर ही रहेगा. साहित्य मनुष्य को कल्पनाशील, विवेकवान और संवेदनशील बनाता है. हिंदीभाषी समाज को साहित्य पढ़ने की परंपरा नए सिरे से विकसित करनी होगी.
रेयाज उल हक