हैदराबाद के उपनगरीय इलाके साइबराबाद में साइना नेहवाल का अपार्टमेंट किसी शादी वाले घर की तरह सजा हुआ है. भारतीय बैडमिंटन की इस शीर्ष महिला खिलाड़ी को इंडोनेशिया सुपर सीरीज जीते हुए दो हफ्ते बीत चुके हैं लेकिन उन्हें बधाई देने वालों की भीड़ कम नहीं हो रही. घर में टीवी देख रही साइना की मां ऊषा नेहवाल, हमसे बैडमिंटन की तकनीक पर बात करते हुए कहती हैं, ‘ पहले उसका (साइना का) हाफ-स्मैश उतना अच्छा नहीं था. मजबूत शरीर वाले खिलाड़ियों के सामने यह बहुत जरूरी है.’ ऊषा खुद बैडमिंटन की राज्यस्तरीय खिलाड़ी रह चुकी हैं. आजकल वे टीवी पर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर के सभी मैचों पर बारीक नजर रखती हैं ताकि उन्हें अपनी बेटी के प्रतिद्वंद्वियों के बारे में पहले से पता हो.
हैदराबाद के पॉश इलाके में बने इस भव्य अपार्टमेंट में नेहवाल परिवार हाल ही में शिफ्ट हुआ है. कुछ साल पहले तक यह परिवार भी हाथखींच कर खर्च करने वाले आम मध्यवर्गीय परिवारों जैसा था. हां, एक चीज इसे जुदा करती थी और वह यह कि यहां हर बात में अकसर बैडमिंटन जरूर शामिल होता था. ऊषा बताती हैं कि साइना जब स्कूल में थी तो राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं में भाग लेने के दौरान वे भी उसके साथ जाती थीं और बैडमिंटन कोर्ट की दर्शक दीर्घा में बैठकर चीयरलीडर्स की तरह अपनी बेटी का उत्साह बढ़ाया करती थीं.
अपने आदर्श टेनिस खिलाड़ी रोजर फेडरर की तरह साइना भी मानती हैं कि जीत की राह काफी हद तक आपका आंतरिक संघर्ष है. वे कोर्ट पर शांत रहने की उनकी आदत से भी बेहद प्रभावित थींसाइना का परिवार नए अपार्टमेंट में अभी पूरी तरह शिफ्ट नहीं हुआ है. मेंहदीपट्टनम के अपने पुराने घर में ट्रॉफियों के बीच बैठे साइना के पिता हरवीर सिंह को 1998 के वे दिन आज भी याद हैं जब उनका स्थानांतरण हरियाणा के हिसार से हैदराबाद हुआ था. उसी साल दिसंबर में उनकी कंपनी एक बैडमिंटन प्रतियोगिता आयोजित करने वाली थी. आयोजन की जिम्मेदारी सिंह संभाल रहे थे. एक दिन जब वे साइना के साथ स्थानीय स्टेडियम पहुंचकर व्यवस्थाओं का जायजा ले रहे थे तभी आठ वर्षीया साइना अपने हमउम्र बच्चों के साथ बैडमिंटन खेलने लगी. सिंह बताते हैं, ‘उसे देखकर एक कोच ने मुझसे कहा कि वह बहुत खूबसूरती से रैकेट पकड़ती है.’ कोच ने सिंह से यह भी कहा कि अगले साल बैडमिंटन के ग्रीष्मकालीन शिविर में वे साइना को जरूर लाएं.
गरमी की वे छुट्टियां सिंह और नेहवाल परिवार के लिए सबसे महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुईं. उस दौरान सिंह हर दिन सुबह चार बजे उठते थे और साइना को अपनी स्कूटर से 25 किमी दूर बैडमिंटन एकेडमी छोड़ने जाते थे. भावुक होते हुए सिंह कहते हैं, ‘ वह रास्ते में सो जाती थी, मुझे भी लगता था कि इतने छोटे बच्चे के लिए यह काफी तनाव भरी कवायद है.’ उस समय यह कवायद एक तरह से पूरे परिवार की जिम्मेदारी बन गई थी जिसने बाद में इस परिवार की प्राथमिकताएं तय कर दीं. अब यहां बैडमिंटन पहले था, बाकी सारे काम पीछे. कमाई का एक बड़ा हिस्सा रैकेट-शटल खरीदने और सबसे अच्छे कोच की फीस देने में खर्च होने लगा था. एक विलक्षण प्रतिभा निखरने लगी थी.
बधाई देने वालों से मुलाकात के बाद साइना हमें बताती हैं कि जब उनके सहपाठी खिलौने और वीडियो गेम में उलझे रहते थे तो उनके लिए बैडमिंटन एक काम होता था और साथ में मनोरंजन भी. वे कहती हैं, ‘ यह मुश्किल था लेकिन लगातार अभ्यास एक आदत बन गई.’ अपनी मां और रैकेट के साथ देश भर में घूमते हुए वे जल्दी ही एक और अनुभव की आदी हो गईं. वे कहती हैं, ‘खेलते-खेलते मुझे जीत की लत लग गई.’ राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में जीत के इस सिलसिले के बीच 2004 उनके करियर का सबसे महत्वपूर्ण साल साबित हुआ. इसी साल उन्हें पुलेला गोपीचंद के रूप में एक साथी, मार्गदर्शक और कोच मिला. 2001 में गोपीचंद ऑल इंग्लैंड चैंपियनशिप जैसी प्रतिष्ठित प्रतियोगिता जीत चुके थे. बैडमिंटन जैसे खेल में भारत को यह उपलब्धि अचानक मिली थी. इसके बाद और इससे आगे हम भारतीयों के सामने और कोई नहीं था. गोपीचंद ने 2002 में पहली बार साइना पर ध्यान दिया था. उस समय वे अपनी चोट से उबर रहे थे और बैडमिंटन की कोचिंग देने के बारे में मन बना चुके थे. गोपीचंद बताते हैं, ‘ वह उस समय कुछ नाटी और मोटी थी, लेकिन जुझारूपन उसमें कूट-कूटकर भरा था.’
2006 में साइना की विश्व रैंकिंग 186 थी. उसी साल उन्होंने विश्व में चोटी की कई खिलाड़ियों को हराकर फिलीपींस ओपन जीत लिया. 16 साल की इस खिलाड़ी के लिए यह जीत काफी अहम थी. साइना कहती हैं, ‘ इसके बाद मुझे भरोसा हो गया कि मैं दुनिया के सबसे अच्छे खिलाड़ियों को हरा सकती हूं.’
हाल की सफलताओं के बाद इस बात की भी चर्चा हो रही है कि कहीं अपनी नाम से मिलते-जुलते नाम वाली हैदराबाद की एक और चर्चित खिलाड़ी की तरह ग्लैमर और सफलता की चकाचौंध साइना का ध्यान खेल से न हटा दे. हालांकि उनकी मेहनत और खेल के प्रति रवैए से इस बारे में आश्वस्ति जगती है. साइना जब 10 साल की थीं तब से बैडमिंटन खेल रही हैं. हर सुबह सात बजे से अभ्यास में जुट जाने वाली और दिन में 12 घंटे बैडमिंटन खेलने वाली इस भारतीय शटलर के लिए यह खेल जीवन रेखा बन चुका है. प्रतियोगिताओं के दौरान दबाव दूर रखने के लिए योग का सहारा लेने वाली साइना बैडमिंटन पर योगियों की शब्दावली में बात करती हैं, ‘खेलना मेरे लिए ध्यान करने जैसा है.’ अपने आदर्श टेनिस खिलाड़ी रोजर फेडरर की तरह साइना भी मानती हैं कि जीत की राह काफी हद तक आपका आंतरिक संघर्ष है. वे कहती हैं, ‘मैं बचपन में उनका खेल देखती थी, कोर्ट पर शांत रहने की उनकी आदत से मैं बहुत प्रभावित थी. उनको देखकर यह पता लगाना मुश्किल है कि वे मैच हार रहे हैं या जीत रहे हैं. मैं भी खेल के दौरान कोर्ट पर शांत रहने की कोशिश करती हूं.’ शायद साइना की यही सबसे बड़ी खूबी है जिसकी बदौलत उन्हें लगातार तीन प्रतियोगिताओं – इंडियन ओपन ग्रांपी, और उसके बाद सिंगापुर व इंडोनेशिया सुपरसीरीज, जिन्हें बैडमिंटन का ग्रैंड स्लैम माना जाता है, में जीत मिली. इन प्रतियोगिताओं की जीत की आधारशिला तकरीबन एक साल पहले तब रखी गई थी जब उन्होंने फैसला किया कि वे अपनी रैंक सुधारने की बजाय बड़ी प्रतियोगिताएं जीतने पर ध्यान देंगी. अब आने वाले महीनों में उन्हें राष्ट्रमंडल खेल, एशियाड और विश्व बैडमिंटन चैंपियनशिप में भाग लेना है. इन प्रतियोगिताओं के लिए भी साइना की यही रणनीति है. हालांकि ये प्रतियोगिताएं गोपीचंद और साइना के लिए एक बड़े लक्ष्य- लंदन में 2012 में आयोजित ओलंपिक में स्वर्ण पदक के बीच की सीढ़ियां भर हैं.
बैडमिंटन में रची-बसी साइना के लिए क्या इससे इतर भी जिंदगी है? वे कुछ देर ठहरकर हमें बताती हैं कि इतवार के दिन वे घर में फिल्में देखना और आराम करना पसंद करती हैं. और बाहर जाकर खाना भी. उनके पसंदीदा कलाकार शाहरुख खान के बारे में चर्चा के दौरान ही आप यह बता सकते हैं कि वह अपनी हमउम्र 20 साल की लड़कियों जैसी हैं.
साइना की चमत्कारिक सफलता क्या भारत में इस खेल, जो एक लंबे अरसे तक शौकिया तौर पर ही खेला जाता रहा, को नई ऊंचाइयां दे पाएगी? पुलेला गोपीचंद नम्मीगड्डा अकादमी, जहां साइना अभ्यास करती हैं, के ग्रीष्मकालीन बैडमिंटन शिविर में इस साल शामिल होने वाले बच्चों की संख्या में बढ़ोतरी इस बात की उम्मीद तो जगाती ही है और यह भी बताती है कि इस साइना जैसी विलक्षण प्रतिभा की उपलब्धियां उनको मिली ट्रॉफियों से कहीं आगे जाती हैं.