हम इतना कैसे हंस पाते तेरे बिन लादेन?

फिल्म तेरे बिन लादेन

निर्देशक  अभिषेक शर्मा

कलाकार अली जाफर, प्रद्युम्न सिंह, सुगंधा गर्ग, पीयूष मिश्रा, निखिल रत्नपारखी, राहुल सिंह, बैरी जॉन

अनीस बज्मी, डेविड धवन, साजिद खान, रोहित शेट्टी और हेराफेरी के बाद वाले प्रियदर्शन के लिए ‘तेरे बिन लादेन’ का एक स्पेशल शो आयोजित किया जाना चाहिए ताकि अगली बार जव वे अपनी यातनामयी फिल्मों को ‘हंसी का तूफान’ (अंग्रेजी में लाफ रायट) कहकर प्रचारित कर रहे हों, तब उनकी आत्मा का एक हिस्सा उन्हें कोसे या कम से कम कचोटे ही.

तो साहेबान, ये अभिषेक शर्मा हैं जिन्हें गले से लगाने के लिए आपको अपनी सकुचाती हुई बांहें पूरी खोल लेनी चाहिए और उनसे इस बात पर रूठ जाना चाहिए कि जब हम ‘गोलमाल 2’ देख रहे थे और ‘गोलमाल 3’ बनने की खबरों से आतंकित हो रहे थे या ‘फिर हेराफेरी’, ‘पार्टनर’, ‘वेलकम’, ‘कम्बख्त इश्क’ और ‘हाउसफुल’ देखने के बाद बॉलीवुड की कॉमेडी की दुर्दशा पर आंसू बहाकर अपना फर्ज अदा कर रहे थे, तब वे क्यों नहीं आए? लेकिन रूठने के तुरंत बाद आपको चाहिए कि मुस्कुराएं और फिर फिल्म का कोई भी दृश्य याद करके ठहाका मारकर हंसें.

यह हमारे उपमहाद्वीप की अमेरिकापरस्ती और लादेन के हव्वे पर सबसे करारा व्यंग्य है. यह लादेन की सारी संकल्पना (आपको आपत्ति हो तो ‘संकल्पना’ को ‘सच’ पढ़ें) का मजाक उड़ाकर उसका डर खत्म करती है. यह अपने गानों में बार-बार नायक के अमेरिका जाने के सपने की तह में जाकर उसका मजाक उड़ाती है. इसके मुख्य पात्र अरबी में ‘….हबीबी जॉर्ज बुश’ गाते हुए नाचते हैं. यह बिना हथियार के अमेरिका के अहंकार को मारने जैसा है और आपको इसका अर्थ नहीं पता लेकिन आप जानते हैं कि ‘तले हुए पकौड़ों के शौकीन’ बुश अगर कभी इसे किसी के साथ देखेंगे तो उससे नजरें नहीं मिला पाएंगे.

यह पाकिस्तान की कहानी है और सबसे सुखद आश्चर्य में डालने वाली बात यह है कि हिन्दी फिल्मों की मुख्यधारा के उलट यह उसकी बात अपने देश की तरह करती है. इसके मूल में पाकिस्तान के लिए इतना अपनापन है कि यह वहां की व्यवस्था का मजाक उड़ाते समय इतनी बेपरवाह रहती है (और बदतमीज नहीं होती) जैसे अपने देश का मजाक उड़ा रही हो. पाकिस्तान में स्टेज पर राजनैतिक और सामाजिक व्यंग्यों की (जो कभी कभी फूहड़ भी हो जाते हैं) एक पूरी संस्कृति है और इस फिल्म में भी उनकी शालीन सोहबत दिखती है.

फिल्म के नकली लादेन को अपने मुर्गों से बहुत प्यार है और अगर आप फिल्म की अन्दर वाली परत में झांकेंगे तो पाएंगे कि ये वही निरीह पाकिस्तानी और अफगानी हैं जिन्हें मारने के लिए अमेरिका कई बिलियन डॉलर झोंकने को तैयार था/है. अमेरिकी फौज मुर्गों को मार भी देती है. लेकिन आखिर में आपको उस पर तरस ही आता है. कोई अच्छा राजनैतिक व्यंग्य वही काम करता है जो दस साल का तानाशाही शासन या दस लाख की फौज नहीं कर सकती. इसी तरह ‘तेरे बिन लादेन’ भी अमेरिका और लादेन, दोनों का मजाक उड़ाती है और इस तरह उन्हें फिल्म की अपनी दुनिया में ‘बेचारा’ कर देती है.

अभिषेक शर्मा, दिबाकर और कुछ-कुछ ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ तक वाले हीरानी की कतार में आ खड़े हुए हैं और खूब हंसने के इन घंटों में भी यह हंसी की बात नहीं है

गौरव सोलंकी